रचनाकार: अरुण तिवारी
अभी-अभी तो वह उड़ने लायक हुआ था। अभी-अभी तो उसने अपनी दुनिया के बारे में सपने लेना शुरु किया था कि नामुराद अस्पताल वालों ने उसे शांत घोषित कर दिया। उसकी शांति की ख़बर मिलते ही कई अशांत हो उठे कि यह अस्पताल है या लूट का अड्डा। वे संयम खो बैठे; गाली-गलौच पर उतर आये - ''सालों ने बकाया दो लाख मिलते ही मुर्दा घोषित कर दिया।'' उनके निपटने के लिए अस्पताल प्रशासन ने भी बाउंसर बुला लिए। कभी भगवान का दूसरा घर कहे जाने वाला अस्पताल, जैसे जंग के मैदान में बदल गया। अशांति ने भी मौका देखा, तो गलियारे से गुजरती हुई मरीज़ों के जे़हन में उतर गई।
किंतु कोई थी, जो उस अशांत माहौल में भी शांत होने का प्रयास कर रही थी। वह कटे पेड़ सा ढह गई। उसकी आंखें मूंद चुकी थी। उसकी नब्ज गिरती जा रही थी। यह शांत हो चुके लड़के का मां थी; मिसेज मस्तानी।
अजब माहौल था। जो अशांत थे, उन्हे शांत करने की कोशिश हो रही थी और जो शांत होना चाह रही थी, लोग उसे अशांत करने के प्रयास कर रहे थे। एक ने उसके मुंह पर पानी के छींटे मारे। दूसरा, अपनी हथेली से उसका पैर रगड़ रहा था। तीसरा, जो शायद उसका सगा था; ढांढस बंधा रहा था - ''आंख खोल न भाभी। मेरी तरफ देख। तूने मुझे भी तो अपना बेटा ही माना है; अब भी मान।''
वह कुछ और कहता, इससे पहले मिसेज मस्तानी का शरीर एकाएक तड़पा और पलट गया। आवाज़ जैसे उसके सूखे हलक कोे फाड़कर बाहर आ गई - ''बेट्टा... आ, आ, आ... आयेगा, ज़रूर आयेगा।'' वह फिर शांत होने की कोशिश में लग गई। कहीं वह पूरी तरह शांत न हो जाये; इस भय से घरवालों ने अगले चार घंटे के भीतर ही उसके बेटे का अंतिम संस्कार कर दिया। वह न रोई, न बेटे के अंतिम दर्शन को उठी; बस, चुपचाप पड़ी रही; एकदम शांत।
उसकी यह शांति बाहरी थी। असल में भीतर से वह पूरी तरह अशांत हो चुकी थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसने ज़िंदगी में ऐसे कौन से बुरे कर्म किए कि उसके घर में चार-चार जवान मौतें हुईं। पहली कमाई हाथ में आने से लेकर अब तक, घर-मायका, गांव-मोहल्ला.... सभी कुछ तो उसने संभाला था। धर्म-कर्म भी कुछ कम नहीं किया था; फिर ईश्वर ने उसे सब कुछ देकर, छीन क्यों लिया ? ज़रूर उसने कोई बड़ा पाप किया होगा। मगर क्या ?
इस क्या और क्यों ने मिसेज मस्तानी के दिलो-दिमाग में उथल-पुथल मचा दी। इस क्या और क्यों का जवाब, उसे जानने वालों के पास भी नहीं था। जवाब न पाकर, मिसेज मस्तानी पूरी तरह बेचैन हो उठी। दिमाग की नसें ऐसे तन गईं, मानो अभी फट पड़ेंगी। कभी सिर पटकती, कभी सीने को मसलती तो कभी लेटे से उठकर बैठ जाती। रात तड़पते बीती। सुबह होते ही मिसेज मस्तानी ने घोषणा कर दी - ''मेरा अब इस दुनिया में कोई नहीं है। मुझे अब किसी से कुछ नहीं लेना-देना। ये घर-प्राॅपर्टी.. सब आप लोग संभालो। मुझे हरिद्वार-ऋषिकेश के किसी आश्रम में भेज दो।''
मिसेज मस्तानी की इस घोषणा से सबसे चेहरे लटक गये। जिसने सुना, वही दुःख हो गया। सभी का मन, एक अज्ञात आशंका से सहम गया।
मिसेज मस्तानी ने सभी को आश्वस्त किया - ''घबराने की ज़रूरत नहीं है। मैं आत्महत्या नहीं करुंगी। मैं जिऊंगी। मैं देखना चाहती हूं कि मैने कौन सा बुरा काम किया, जो मेरा यह हाल हुआ ? मुझे पूरी पिक्चर देखनी है। मुझे एकांत चाहिए। मैं हाथ जोड़ती हूं। मुझे सन्यास दिला दो। मुझे हरिद्वार भेज दो।''
सभी ने रोकने की लाख कोशिश की। उन्हे नींद की गोलियां देनी शुरु की। कोठी के मेन गेट पर ताला डालकर रखा। किंतु आवेग भी भला कहीं रोके रुकता है; कभी न कभी वह निकल ही पड़ता है। मिसेज मस्तानी भी एक दिन निकल पड़ी; अकेली; एक छोटे से बैग में चार जोड़ी कपड़ा, कुछ बडे़ नोट, एटीएम कार्ड, आधार और जरूरी सामान लेकर।
***
झक-पक, झक-पक, झक-पक..... कलकतिया मेल, मिसेज मस्तानी को लेकर भागी जा रही थी। खुर्जा, अलीगढ़, जलेसर रोड, हाथरस, टुण्डला...। दिशा, हरिद्वार-ऋषिकेश के विपरीत थी; पर मिसेज मस्तानी को यह सब जांचने का होश कहां ! वह अपनी ज़िंदगी की पिक्चर देखने में व्यस्त थी।
हां, सन् 77 की ही तो बात है। आदाबाद की वह अकेली लड़की थी, जो ग्रेजुएट हुई। पूरे गांव के तानों के बावजूद, रामधनिया ने उसे 12 कोस दूर पढ़ने भेजा था। वह सीधे सहायक स्टेशन मास्टर हुई; वह भी दिल्ली जैसे बडे़ स्टेशन पर। तनख्वाह थी; ऊपरी कमाई थी; सरकारी मकान था। रेलवे का अस्पताल था; स्कूल था। फ्री रेल यात्रा का पास था। कोयला-वोयला तो फ्री था ही। मस्तानी की नौकरी क्या लगी; रामधनिया की तो जैसे लाॅटरी लग गई। चार साल की नौकरी में ही मस्तानी की शादी, गौना, मकान, गाड़ी-घोड़ा सब हो गया। खूबी यह रही कि शादी होने के बाद मस्तानी ने ससुराल वालों की तिजोरी तो भरी ही, बाप का घर संभालना भी नहीं भूली। मां के याद में साल में एक भण्डारा करने लगी। धर्मशाला बनवा दी। मंदिर बनवा दिया। गांव में जब जिसको ज़रूरत हुई, पैसा उधार दिया; वह भी बिना सूद। परिणाम यह हुआ कि रामधनी, पण्डित रामधन हो गए। गांव-कुनबे में उनकी पूछ बढ़ गई। इधर मस्तानी के पास पैसा आया, तो पैसे से पैसा कमाने का गुर भी आ गया। जल्द ही वह 'मस्तानी एपार्टमेंट्स' की मालकिन बन गई। फिर तो यही उसका असल धंधा हो गया। नौकरी तो वह सिर्फ मन लगाने के लिए करती रही।
ज़िंदगी, मस्त चल रही थी। प्रेम, सेहत, धन, यश.. सारे सुख उसे हासिल थे। किंतु जैसे विधाता को ही उससे ईर्ष्या हो गई। महज् एक घंटे के पेट दर्द ने उसे बेवा बना दिया। संभलती कि मात्र छह महीने बाद बड़ी बेटी, फंदे पर झूल गई और तीन साल बाद एक ट्रेन एक्सीडेंट ने उसकी सबसे प्यारी छोटी बेटी को भी छीन लिया। मिसेज मस्तानी के लिए यह बड़ा झटका था।
मिसेज मस्तानी को लगा कि दो के दस बनाने के चक्कर में वह पति और बेटियों की सेवा नहीं कर पाई। शायद इसीलिए वे सब उससे दूर चले गये। मिसेज मस्तानी ने नौकरी छोड़ दी। वह, सिर्फ और सिर्फ बेटा नव की परवरिश में लग गई। नव को अपने हाथ से नहलाना, खिलाना, तैयार करना, उसका बिस्तर लगाना, बैग लगाना, पढ़ाना; मिसेज मस्तानी ने जैसे अपने आप को नव के लिए समर्पित कर दिया। वह, नव को अपने से कभी भी अलग नहीं करती।
नव कहता भी - ''ममा, मैं यह सब खुद कर सकता हूं। ऐसे तो मैं कभी भी खुद कुछ करने लायक नहीं बन पाउंगा।''
वह कहती - ''मुझे करने दे न। मुझे शुकून मिलता है।''
पिक्चर अभी अधूरी ही थी कि इंजन चीख उठा; साथ ही साथ मिसेज मस्तानी का हृदय भी - ''क्यों हुआ यह मेरे साथ ? नव, मेरा आखिरी सपना था। क्यों हुई मेरे सपने की मौत ? शायद अभी मेरा प्रायश्चित पूरा नहीं हुआ। मुझे अभी और सेवा करनी है.. और सेवा। मैं करुंगी सेवा; अवश्य करुंगी।''
इस निष्कर्ष के आते ही मिसेज मस्तानी का चेहरा चमक उठा। मुट्ठियां कस गई। वह उठकर सीधे बैठ गई। ज़ंजीर खींची, नीचे उतरी और घुप्प अंधेरे में गुम हो गई।
***
पन्द्रह बरस बाद दुनिया ने उसी जगह एक नया उजाला देखा। घुप्प अंधेरे में उतरने के लिए अब वहां किसी को ज़ंजीर नहीं खींचनी पड़ती। कलकतिया मेल के रूट पर अब नया स्टेशन उग आया है; आनंद अड्डा। इस आनंद अड्डे पर न किसी की जय के नारे लगते हैं और न कोई किसी पर कृपा बरसाता है। आनंद अड्डा स्टेशन से निकलने वाला हर रास्ता, अनाथों को एक ऐसे अड्डे की ओर ले जाता है, जहां ऐसे कई हज़ार बच्चों की लगभग एक सैकड़ा मातायें रहती है। ये सब मातायें, विधवा हैं। ये मातायें, बच्चों को प्यार और परवरिश देती हैं और इन्हे, मस्तानी मां। मस्तानी मां, अब न शांत होना चाहती है और न वापस मिसेज मस्तानी बनना। आनंद अड्डा स्थापित कर वह अब आनन्दित है; परमानंदित। ईश्वर से भी अब उसे कोई शिकायत नहीं। उसने अपना सब कुछ खोकर, सब कुछ पा लिया है।
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