मॉरीशस विश्व के उन चुनिंदा देशों में से एक है, जहाँ भारतीय भाषाओं और संस्कृति का प्रवाह आज भी गतिमान है. मॉरीशस की भूमि पर हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं का प्रवेश सन् 1810 में हो चुका था, जब फ्रांसीसियों के खिलाफ मॉरीशस पर किए गए आक्रमण में, ब्रिटिश सेना में लगभग १० हजार भारतीय सिपाही यहाँ पहुँचे थे. यहाँ हिन्दी का सही स्वरूप 1830से प्रारंभ हुआ जब दास प्रथा का अंत हो जाने पर गन्ने के खेतों में कार्य करने हेतु हजारों मजदूर भारत से यहाँ पहुँचे थे. ये लोग अपनी झोलियों में भविष्य के सपनों के साथ रामायण, महाभारत, हनुमान चालीसा और आल्हा जैसी पुस्तकें भी साथ ले जाते रहे. सन् 1900 के आसपास देश की लगभग साढ़े ३ लाख की आबादी में करीब ढ़ाई लाख भारतीय थे जिनकी आपस की बोली भोजपुरी थी.
वैसे कुछ बस्तियां ऐसी भी थीं जहाँ मराठी, तमिल और तेलुगु बोलने वाले लोग भी थे पर एक-दूसरे से मिलने पर हिन्दी इनकी सम्पर्क भाषा होती थी।  भारतीय की संख्या इतनी विशाल होने पर भी दस प्रतिशत बच्चों का ही स्कूल में प्रवेश हो पाता था क्योंकि अपना सांस्कृतिक साम्राज्य तथा भाषा विशेष का वर्चस्व बनाए रखने के लिए हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं  को सरकारी स्तर पर पढ़ाई के योग्य नहीं समझा गया।  फलस्वरूप मॉरीशस में हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं के पठन-पाठन का संघर्ष जारी रहा।  महात्मा गांधी की प्रेरणा से डॉ. मणिलाल द्वारा देश का पहला हिन्दी पत्र ‘हिन्दुस्तानी’ सन् 1910  में प्रारंभ हुआ।  इस जागृति अभियान के साथ ही विद्यालयों में भारतीय भाषाओं की पढ़ाई की व्यवस्था प्रारंभ हुई।  पूरे देश में आर्यसमाज, विष्णुदयाल आंदोलन तथा हिंदू महासभा और हिंदी प्रचारिणी सभा के सहयोग से गाँव-गाँव में हिन्दी की निःशुल्क पढ़ाई जोर पकड़ती गई।  हजारों अध्यापक स्वेच्छा से इस आन्दोलन में जुड़ गए और सारे मॉरीशस में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की बयार चल पड़ी।  
मॉरीशस में हिंदी को जीवित रखने में इन लेखकों और साहित्यकारों की भी महती भूमिका रही है जिन्होंने अपनी लेखनी से हिन्दी को घर-घर तक प्रवाहमान रखा है।  इन्हीं में से एक हैं श्री अभिमन्यू अनत जिन्हें मॉरीशस का प्रेमचंद कहा जाता है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक तथा कविता आदि विधाओं पर 75 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं।  वे भारत में भी लोकप्रिय हैं।  उनकी कृतियों का फ्रेंच में भी अनुवाद हो चुका है। पिछले दिनों श्री अनत का निधन हो गया और इसी के साथ मॉरीशस मे हिन्दी का एक प्रखर स्तंभ ढह गया। 
आज मॉरीशस की सरकारी कामकाज की भाषा भले ही अंग्रेजी हो किंतु सार्वजनिक व्यवहार में अंग्रेजी का बोलबाला बिल्कुल नहीं है। फ्रेंच और क्रेओल ने मॉरीशस के जन-जीवन पर अपनी पकड़ इतनी मजबूत कर ली है कि मॉरीशस में अब हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाएँ भी बहुत कम सुनने को मिलती हैं। प्रस्तुत है इंदौर  से  प्रकाशित नई दुनिया में 13 नवम्बर 1999 को प्रकाशित मॉरीशस के प्रख्यात साहित्यकार श्री अभिमन्यु अनत से जवाहर कर्णावट की बातचीत के कुछ अंश :

·         मॉरीशस को अंग्रेजों से स्वतंत्र हुए तीन दशक हो गए, स्वतंत्रता से पूर्व और पश्चात मॉरीशस में हिन्दी पठन-पाठन की क्या स्थिति है ?
Ø मॉरीशस में हिन्दी की यात्रा साहस, यातना और बलिदान की गाथा रही है. हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के दमन के लिए पूँजीपतियों ने कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा था. दुनिया के बहुत कम देश ऐसे होंगे जहाँ एक भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए इतना भुगतना पड़ा हो. मॉरीशस सभी हिन्दी प्रेमी देशों में ऐसा अकेला देश है जहाँ भोजपुरी बोली तो जाती रही, लेकिन हिन्दी लोगों की अस्मिता, शक्ति और संगठन की भाषा भी रही है.
स्वतंत्रता के पश्चात देश की साम्राज्यवादी नीति के कारण यहाँ के हिन्दी जगत में एक निराशा-सी छाई हुई थे. सरकारी स्तर पर हो रही हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की परीक्षा में जब भी समान अधिकार की माँग की गई, उसे ठुकराया जाता रहा. बच्चों की प्रारंभिक पढ़ाई की अंतिम परीक्षा में हिन्दी और अन्य भाषाओं के अंकों को शामिल नहीं किया जाता था. देश के नामी कॉलेजों में केवल गोरे, अधगोरे और चीनियों के बच्चे ही प्रवेश पाते रहे. भारतीय वंशजों के वही चंद बच्चे उस योग्य हो पाते थे जो या तो धर्म परिवर्तन कर चुके थे या जिनके पास कॉन्वेंट स्कूल का व्यय उठाने की आर्थिक क्षमता थी. इस प्रथा का विरोध स्व. डॉ. शिवसागर रामगुलाम के समय में उनके शिक्षामंत्री जगतसिंह ने जमकर किया. परीक्षा में मान्यता प्राप्ति के लिए संघर्ष चौदह वर्षों तक लगातार चला. तब कहीं जाकर सभी बच्चों को समान अधिकार प्राप्त हुए. आज मॉरीशस के विद्यालयों और महाविद्यालयों में लगभग 20 हजार विद्यार्थी हिन्दी का अध्य्यन कर रहे हैं.
·         औपचारिक शिक्षा में हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन से हटकर वर्तमान में मॉरीशस का हिन्दी लेखन किस दिशा में बढ़ रहा है ?
Ø मॉरीशस में साहित्य को समृद्ध करने में हिन्दी लेखकों ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है . साथ ही साथ उस साहित्य से भारत और अन्य देशों में मॉरीशस के स्वर को बुलंद किया है. अँग्रेजी, फ्रेंच और क्रेओल में मिलाकर भी यहां उतने उपन्यास, कविता संग्रह, नाटक, कहानी संग्रह तथा अन्य साहित्यिक विधाओं पर पुस्तकें नहीं लिखी नहीं जा सकी जितनी हिन्दी में लिखी गई हैं। मॉरीशस के हिन्दी लेखक भारत की डेढ़ सौ पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहें हैं. अन्य देशों तक भी उनकी रचनाएँ पहुँचती रही हैं. मॉरीशस में भी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला जारी है.
·         मॉरीशस में दो विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन हो चुका है. हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीयता में मॉरीशस की क्या भूमिका हो सकती है ?
Ø हिन्दी साहित्य और हिन्दी भाषा को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्रदान करने में मॉरीशस भारत से आगे रहा है. विश्व कहानियों के तहत फ्रांस की प्रतिष्ठित पत्रिका एरोप में मॉरीशस की हिन्दी कहानी ने अखिल हिन्दी कहानी का प्रतिनिधित्व किया. कनाडा के कनेडियन इंस्टीट्यूट में मॉरीशस के हिन्दी कवि को ही हिन्दी कविता का पाठ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. जर्मनी, रूस, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा और भी कई स्थानों पर मॉरीशस के द्वारा हिन्दी साहित्य की झलक वहाँ के लोगों को मिलती रहती है. कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड से होने वाली हिन्दी परीक्षाओं के लिए मॉरीशस के दो उपन्यासों को इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में रखा गया है. दिल्ली विश्वविद्यालय ने भी एक उपन्यास चुना है.
·         मॉरीशस में हिन्दी की समृद्धि हेतु आप भारत से क्या उम्मीदें रखते हैं ?
Ø हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए भारत से अपेक्षित समर्थन व सहयोग नहीं मिल रहा है. मॉरीशस के उन तमाम गाँवों में जहाँ हिन्दी का वातावरण अपनी पराकाष्ठा पर था, फ्रांसीसी सरकार के सक्रियता के कारण वातावरण बदल रहा है. फ्रेंच पुस्तकों, पत्रिकाओं, और साहित्यिक गतिविधियों की बाढ़ में १५० साल से अधिक की सँजोई धरोहर हाथों से फिसलती-सी लग रही है. कोई भी भाषा और संस्कृति प्रेमी फ्रांस सरकार से भाषा और संस्कृति प्रेम और उत्साहपूर्ण पहल की दाद दिए बिना नहीं रह सकता. काश ! भारतीय संस्कृति और भाषा के लिए इतना समर्पण और साहस देखने को मिलता.
हमारे बच्चे भारतीय चित्रकथाओं को बड़ी ही रुचि के साथ पढ़ते हैं किंतु उन्हें अमर चित्र कथा नहीं मिल पाती जबकि पाश्चात्य देशों के (खासकर फ्रेंच) कॉमिक्स पहुँचते रहते हैं. भारत से अधिकाधिक हिन्दी पुस्तकें यहाँ भेजी जानी चाहिए, किंतु ऐसा नहीं हो रहा है. भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिकाएँ भारतीय दूतावास में धूल खाती रहती हैं, किंतु उनके वितरण की समुचित व्यवस्था नहीं है.
·         इन सारी स्थितियों के बावजूद आप भारतीय हिन्दी लेखन को किस रूप में देखते हैं ?
Ø भारत में हिन्दी लेखन सशक्त है। समाज के सत्य को उजागर करने वाली प्रेमचंद और निराला की परंपरा आज भी आगे बाढ़ रही है किंतु हिन्दी जगत में नकारने की प्रवृति और खेमेबाजी जितनी भारत में देखने को मिलती है, उतनी अन्यत्र किसी देश में नहीं. यह सब बंद होना चाहिए. इस आपसी टकराव के कारण हम हिन्दी में विश्व स्तरीय रचना नहीं दे पा  रहे हैं.

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