13 अप्रैल बैशाखी पर विशेष 


13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर शहर के हरमिंदर सिंह गुरुद्वारे में घटी नृशंस हत्याकांड मानव सभ्यता के माथे पर एक ऐसा कलंक है, जिसका बदनुमा दाग कभी धुल नहीं सकता. उन दिनों हम अंग्रेजी हुकूमत के गुलाम थे. सारे भारतवासी उस निरंकुश शासन से मुक्ति पाने के लिए छटपटा रहे थे. 1857 के सिपाही विद्रोह की असफलता के बाद लगभग 30 वर्षों तक भारतवासियों में एक अजीब सी खामोशी छा गयी थी. इस खामोशी को भंग करते हुए 28 दिसम्बर 1985 को हम पर शासन करने वाले अंग्रेजों में से ही एक मानवतावादी महा मानव सर ए० ओ० ह्यूम, जो थियोसोफिकल सोसाइटी के एक प्रमुख सदस्य थे, ने भारत को  आज़ादी दिलाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना बम्बई (मुंबई) में की. इस संस्था की स्थापना बैठक में 72 सदस्यों ने भाग लिया था, उन सदस्यों में दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा प्रमुख थे. मुंबई के तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुए उस प्रथम बैठक में सर ए० ओ० ह्यूम संस्थापक महासचिव तथा कोलकाता  (कलकत्ता) बंगाल के व्योमेशचन्द्र बनर्जी अध्यक्ष बनाए गए. उस समय इस संस्था का एकमात्र उद्देश्य जनकल्याण तथा समाज सेवा था. बाद में जैसे जैसे इसमें स्वतंत्रता प्राप्ति की अभिलाषा लिए देशप्रेमियों का समावेश होता गया, इस संस्था का मुख्य लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्ति बन गया.  इस नवनिर्मित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोज शाह मेहता, विपिन चन्द्र पाल आदि नेता शामिल हुए. उन दिनों मोहनदास करमचंद गॉंधी दक्षिण अफ्रीका में थे और वहाँ उन्होंने अंग्रेजों के काला और गोरे की भेद भाव वाली नीति का तीव्र विरोध किया था. वे चूंकि बैरिस्टर थे इसलिए दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे एक केश में उनकी पैरवी से एक मुव्वकिल की जीत हो गयी थी और विश्वस्तर पर वे चर्चा में आ चुके थे. 1916 में वे दक्षिण अफ्रीका से भारत आये. कांग्रेस के एक अधिवेशन में गाॅंधीजी शामिल हुए तथा अपने कुछ विचार रखे. उनके विचारों से प्रभावित होकर कांग्रेस के नरम दल के वरिष्ठ नेता गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें अपना शिष्य घोषित कर कांग्रेस में शामिल कर लिया. उन्हीं दिनों पंजाब के जुझारू नेता लाला लाजपत राय ने भी कांग्रेस की सदस्यता ली थी और उन्हें पंजाब का कमान सौंपा गया. उसी समय प्रथम विश्वयुद्ध (सन् 1914 से 1918 ई० तक) छिड़ चुका था. 1916 में ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस के नेताओं के समक्ष एक प्रस्ताव रखा -"यदि भारत की जनता विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ दे तो हम भारतीयों के साथ नरमी से पेश आएंगे तथा उनकी सभी जायज़ माॅंगों को मान लेंगे." नेताओं के साथ साथ भारत की जनता खासकर युवावर्ग अंग्रेजी हुकूमत के झांसे में आ गयी और बड़े पैमाने पर पंजाब के साथ साथ अन्य प्रांतों के युवा सेना में भर्ती हो गये. मगर विश्वयुद्ध के समाप्त होने (सन् 1918 ई०) के पश्चात अंग्रेजी हुकूमत अपने वादे से मुकर गयी और भारत वासियों को राहत देने की वजाये उन पर तरह तरह के कानून लादकर उन्हें परेशान करने लगी. उन्हीं कानूनों में से एक कानून था "रॉलेट एक्ट" इस कानून के तहत हुकूमत ने किसी भी भारतीय नागरिक को बिना कोई कारण बताये तथा बिना वारंट के गिरफ्तार कर जेल में डाल देने का अधिकार पुलिस को दे दिया. इस काले कानून का विरोध करने के लिए शीर्ष नेताओं के नेतृत्व में भारतवासी सड़कों पर उतर आये. उस समय तक महात्मा गॉंधी चम्पारण सत्याग्रह, अहमदाबाद कपड़ा मिल के मजदूरों द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन तथा खेड़ा के किसानों के आंदोलनों का नेतृत्व करते हुए जीत हासिल करके एक कीर्तिमान स्थापित कर चुके थे. उनके ही आह्वान पर रॉलेट एक्ट का हजारों युवाओं तथा नेताओं ने पूरजोर आवाज में  विरोध आरंभ कर दिया. हुकूमत ने दमनकारी रवैया अपनाते हुए हजारों छात्रों, नौजवानों तथा नेताओं को जेल में डाल दिया. पंजाब में यह आंदोलन काफी उफान पर पहुँच गया और पंजाब में इस आंदोलन का नेतृत्व लाला लाजपत राय करने लगे. 

13 अप्रैल 1919 को पूरे पंजाब में बैशाखी त्यौहार मनाये जाने की तैयारी जोरशोर से की जा रही थी.  अमृतसर के हरमिंदर साहिब गुरु द्वारा में भी इस त्यौहार को मनाये जाने की तैयारी हो रही थी. हरमिंदर साहिब गुरुद्वारा सुप्रसिद्ध स्वर्णमंदिर के पास ही था. 13 अप्रैल को उस गुरुद्वारा में सुबह से ही श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने लगी. इन श्रद्धालुओं में बूढ़े भी थे और बच्चे भी. युवा भी थे और महिलाएं भी. मगर उन निरपराध और मासूम लोगों को क्या पता था कि पवित्र बैशाखी त्यौहार के दिन ही हृदयहीन अंग्रेजी हुकूमत उनलोगों की नृशंस हत्या करवा देगी? उस दिन पॉंच हजार से अधिक लोग  गुरुद्वारा में एकत्रित हो चुके थे. उस गुरुद्वारा में लगभग पांच सौ वर्गमीटर में फैला हुआ एक बाग था, जिसे जालियाँवाला बाग के नाम से जाना जाता था. दुर्भाग्य से उस बाग में एक ही दरवाजा था. तथा एक काफी गहरा कुॅंआ भी था. उस बाग में लाला लाजपत राय के साथ अन्य देशभक्त नेताओं द्वारा रॉलेट एक्ट के विरुद्ध भाषण दिया जाने वाला था. परंतु देश के किसी गद्दार ने पुलिस को सूचना दे दी कि जालियाँवाला बाग में छात्रों, नौजवानों तथा नेताओं द्वारा सरकार के खिलाफ बगावत का ऐलान किया जाएगा. फिर क्या था, अंग्रेजी हुकूमत उस बगावत को कुचलने के लिए क्रूरता पर उतर आयी. सर्वप्रथम लाला लाजपत राय के साथ साथ अन्य नेताओं को भी मंदिर में आने से पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया गया और गुरुद्वारा में आतंक फैलाने की जिम्मेदारी ब्रिगेडियर जेनरल रेजीनॉल्ड डायर को दे दी गयी. डायर के नेतृत्व में 90 सैनिकों का एक जत्था वहाँ पहुँच गया. सभी अंग्रेज सैनिक बंदूक तथा अन्य घातक हथियारों से लैश थे. वे लोग अपने साथ तोप भी लाये थे, परंतु बाग के अंदर तोप ले जाने का रास्ता नहीं था, इसलिए तोप को बाहर ही छोड़ देना पड़ा. अंग्रेज सैनिक अंदर घुस गये और चारों ओर से उन निहत्थे लोगों को घेर लिया. फिर क्रूर जेनरल रेजीनॉल्ड डायर ने उन पर फायर करने का फरमान जारी कर दिया. अंग्रेज सैनिक इंसानियत की धज्जियां उड़ाते हुए अंधाधुंध फायरिंग करने लग गए. इस अचानक के हमला से सभी श्रद्धालु बुरी तरह से घबरा गये और जान हथेली पर लेकर इधर उधर भागने लगे. कुछ लोग कुॅंआ में कूद गये. माना जाता है कि उस कुॅंआ में लगभग 180 लोगों ने कूद कर अपनी शहादत दे दी. चूंकि बाग से निकलने का एक ही रास्ता था और वह भी तंग था, इसलिए भगदड़ के कारण  कुछ लोग कुचल कर तथा अधिकांश सिपाहियों की गोली से शहीद हो गये. वहीं घायलों की संख्या इतनी थी कि गिना नहीं जा सका. शहीद होने वालों में एक डेढ़ महीने का शिशु भी था. वहीं दस वर्ष का एक बालक भी एक कोने में दुबका हुआ जेनरल रेजीनॉल्ड डायर द्वारा करवाये जा रहे इस नृशंसता को हैरत भरी आंखों से देख रहा था. उस अबोध बालक का नाम था उधम सिंह. उस बालावस्था में भी उस बालक की ऑंखों से क्रोधाग्नि निकल रही थी. उस समय शहीद भगत सिंह की उम्र 12 वर्ष की थी. भगत सिंह ने भी उस घटना को अपनी आँखों से देखा था और उनके मन में भी अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध घृणा उत्पन्न हो गयी.

 सरकारी आंकड़े के मुताबिक उस नरसंहार में शहीद होने वालों की संख्या जहाँ 500 थी, वहीं घायलों की संख्या 2000 परंतु गैरसरकारी सूत्रों के अनुसार शहीदों की संख्या 1500 तथा घायलों की संख्या 2500 बतायी गयी.  इस नृशंस हत्याकांड के तुरंत बाद पूरे अमृतसर में कर्फ्यू लगा दिया गया, जिस कारण राहत कार्य में भी अवरोध उत्पन्न हो गया. समोचित चिकित्सा के बिना भी अनगिनत लोगों ने प्राण गंवा दिये. पूरी दुनिया में इस घटना की तीव्र निंदा हुई. भारत के नेतागण जेनरल रेजीनॉल्ड डायर तथा गोली चलाने वाले सिपाहियों को सजाए मौत देने की मांग करने लगे, परंतु निरंकुश अंग्रेजी हुकूमत ने जेनरल रेजीनॉल्ड डायर को सजा देने की वजाये इंग्लैंड बुलाकर उसे प्रोन्नति दे दी. इससे भारतीय जनता और भी आक्रोशित हो गयी. स्वाधीनता की लड़ाई लड़ने वाले तमाम राष्ट्रीय नेताओं को जेल में डाल दिया गया. 

जालियाँवाला बाग में हुए नृशंस हत्याकांड को अपनी आँखों से देखने वाले दस वर्षीय बालक उधम सिंह के दिलोदिमाग पर उस जालिम डायर की क्रूर छवि अंकित हो चुकी थी और उसने डायर को उसके इस महापाप की सजा देने का दृढ़ निश्चय कर लिया था. अंतोगत्वा  भारत माता के उस जाबांज सपूत ने इंग्लैंड जाकर कैप्टन हॉल में सरेआम 13 मार्च 1940 को जेनरल रेजीनॉल्ड डायर को गोलियों से छलनी करके हजारों निरपराध लोगों की हत्या का प्रतिशोध ले ही लिया. भारत मॉं के उस महान सपूत उधम सिंह को भी 31 जुलाई 1940 को इंग्लैंड में फांसी दे दी गयी. इस तरह भारत की अस्मिता की रक्षा करने वाले उधम सिंह ने शहीदों की पंक्ति में अपना नाम भी स्वर्णाक्षरों में अंकित करवा लिया.

- राम बाबू नीरव             

0 comments:

Post a Comment

 
Top