पौराणिक कथा  


दूसरे दिन प्रातः काल से ही ऋष्यशृंग विकलता से उस ऋषि कुमार की प्रतीक्षा करने लगा जिसने उसे किसी "स्त्री" से मिलवाने का वचन दिया था. पूरी रात वह इस गुनधुन में ही लगा रहा कि आखिर "स्त्री" है क्या.? जैसे जैसे दिन चढ़ता जा रहा था उसके हृदय की बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. महर्षि विभांडक अपने पुत्र के हाव भाव में आये बदलाव को देखकर भी उसकी असहजता को भांप नहीं पाये. वे अपने पुत्र के आदर्श चरित्र के प्रति इतने आत्मविश्वास से भरे हुए थे कि उन्हें रत्ती भर भी संदेह न हुआ कि उनकी अनुपस्थिति में यहाँ इतना भारी उथल पुथल हो चुका है कि उनकी वर्षों की तपस्या पुनः धूल धुसरित होने वाली है. ऋष्यशृंग ने अपने वचन का पालन करते हुए कल्ह वाली घटना की भनक तक उन्हें न लगने दी. सारे कार्यों से निश्चिन्त हो जाने के पश्चात विभांडक ऋषि भिक्षाटन हेतु आश्रम से निकल गये. उनके आश्रम से विदा होते ही शान्ता अपनी तीनों सहेलियों के साथ वहाँ आ गयी. आज भी वे सभी ऋषि कुमारों के भेष में ही थी. आज फर्क सिर्फ इतना था कि उनलोगों के साथ सावंती नहीं थी. 

आश्रम की वाटिका में आकर शान्ता अपनी तीनों सहेलियों को गेंदा और गुलाब के पुष्पों की एक माला तथा एक बड़ा सा गेंद बनाने की आज्ञा देकर स्वयं ऋष्यशृंग के कक्ष की ओर बढ़ गयी. जैसे ही शान्ता के कदम उस कक्ष में पड़े कि वह बुरी तरह से घबरा गयी. एकाएक ऋष्यशृंग तेजी से आकर उससे ऐसे लिपट गया जैसे वर्षों से बिछड़ा हुआ प्रेमी अपनी प्रेयसी से लिपट जाता है. शान्ता से लिपटा हुआ ऋष्यशृंग उसे उलाहना देते हुए कह रहा था -"इतनी देर क्यों कर दिया मित्र तुमने. मैं तुम्हारी उस "स्त्री" से मिलने के लिए व्याकुल हो रहा हूँ, बताओ न कहाँ है वह स्त्री?"

"धैर्य रखो मित्र, इतनी विकलता अच्छी नहीं होती." शान्ता उसे अपने से अलग करती हुई हॅंसने लगी. उसकी हॅंसी इतनी मृदुल और मादक थी कि  ऋष्यशृंग का रोम रोम पुलक उठा. वह उल्लसित दृष्टि से शान्ता की ओर देखने लगा. उसकी ऑंखों में वासना की रेखाएँ उभर आयी. उसके हाव भाव को देखकर शान्ता समझ गयी - "ऋष्यशृंग का पुरुषत्व इसे उद्वेलित करने लगा है." वह उसकी कलाई थाम कर सीढ़ियों की ओर ले जाती हुई बोली -

"चलो मित्र, पहले तुम्हें प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य का रसास्वादन करा देता हूँ." ऋष्यशृंग कुछ न बोला. उसके दिल में तो हलचल मची हुई थी. वह उमंग और उत्साह के साथ सीढ़ियां चढ़ने लगा. शान्ता उसे खींचती हुई आश्रम के बाग में ले आयी. वहाँ उसकी सहेलियाँ पुष्पों की माला और पुष्पों का गेंद बना चुकी थी. ऋषि कुमारों के भेष में उन तीनों को देखकर ऋष्यशृंग ने शान्ता से पूछा-"ये लोग कौन हैं? " 

-"ये सभी मेरी तरह ही ऋषि कुमार हैं. आओ मित्र हमलोग एक खेल खेलते‌ हैं."

"खेल.... कैसा खेल.?" ऋष्यशृंग ने चकित भाव से पूछा.

"इस गेंद का खेल. मैं इसे तुम्हारी ओर उछालता हूँ, तुम इसे पकड़ो." इतना कहकर शान्ता पुष्पों का वह गेंद ऋष्यशृंग की ओर उछाल दी. ऋष्यशृंग ने लपक कर गेंद को पकड़ लिया और उसे शान्ता की ओर उछाल दिया. शान्ता ने इसबार गेंद को लपक कर अपनी एक सहेली की ओर उछाल दिया. ऋष्यशृंग और शान्ता के साथ उसकी सहेलियाँ भी अब इस खेल में शामिल हो गयी. ऋष्यशृंग को लगने लगा जैसे उसके जीवन की दिशा ही बदल गयी है. अब वह एक ऐसे लोक में आ चुका है, जहाँ आनंद ही आनंद है. जब शान्ता और उसकी सहेलियाँ गेंद को पकड़ने के लिए उछलती तब उनके दोनों पयोधर भी उछलने लगते, उनके पयोधरों को देखकर ऋष्यशृंग मुग्ध हो जाता. मन ही मन वह सोचने लग जाता -"मैं भी ऋषि कुमार हूँ और ये लोग भी ऋषि कुमार है, फिर मेरे सीने पर वैसा उभार क्यों नहीं है, जैसा उभार उन चारों के सीने पर है." उसके चेहरे के हावभाव से शान्ता उसके दिल की बात समझ गयी. तब तक पुष्पों से बना हुआ गेंद छितरा कर पूरे प्रांगण में बिखर चुका था.

"अब हमलोग लुकाछिपी का खेल खेलेंगे."

"वह क्या होता है.?" भोलेपन से पूछा ऋष्यशृंग ने.

"मैं आपकी ऑंखों पर पट्टी बांध दूंगा फिर हमलोग छुप जाएंगे. आप हमलोगों में से जिसे पकड़ लेंगे वह आपके गले में यह वैजयन्ती माला डालेगा. "बोलिये स्वीकार है आपको?" 

"हाँ स्वीकार है." स्वीकृति मिलते ही शान्ता ने ऋष्यशृंग की ऑंखों पर पट्टी बांध दी और वे चारों अशोक के पेड़ के पीछे‌ छुप गयी. किसी अंधे की भांति इधर उधर भटकते हुए ऋष्यशृंग उन चारों को ढ़ूंढ़ने लगा. अचानक शान्ता ने उसकी पीठ पर थपकी दी. ऋष्यशृंग तेजी से पलट गया और शान्ता को कसकर अपनी बांहों में जकड़ लिया. तबतक शान्ता की तीनों सहेलियाँ भी वहाँ आ गयी और हर्ष से ताली पीटने लगी. जब ऋष्यशृंग ने अपनी आँखों पर से पट्टी हटाई तब उसकी ऑंखें चौंधिया गयी.  वहाँ ऋषि कुमारों की जगह अप्सराओं से भी अधिक सुन्दर युवतियाँ खड़ी ताली पीटती हुई हॅंस रही थी. शान्ता अब भी ऋष्यशृंग की बांहों में थी.

"तुमलोग कौन हो और मेरा मित्र ऋषि कुमार कहाँ गया." अचम्भित भाव से पूछा ऋष्यशृंग ने.

"कौन ऋषि कुमार...?" शान्ता इठलाती हुई बोली. -"यहाँ तो कोई ऋषि कुमार नहीं था."

"यह कैसे हो सकता है, मेरे मित्र ऋषि कुमार ने ही तो मेरी आँखों पर पट्टी बाँधा था." 

"अब उस ऋषि कुमार को भूल जाईये महर्षि विभांडक पुत्र ऋष्यशृंग क्या हमलोग आपको पसंद नहीं हैं.?" शान्ता ने कुछ इस भाव से पूछा कि ऋष्यशृंग का दिल उछलने लगा.

"परंतु तुमलोग हो कौन?"

"हम सभी स्त्रियाँ हैं, मेरा नाम शान्ता है और ये सभी मेरी सहेलियाँ हैं." शान्ता ने वैजयन्ती माला ऋष्यशृंग के गले में डाल दिया. ऋष्यशृंग आनंद के अनंत सागर में तैरने लगा. ऋष्यशृंग को प्रथम बार अनुभव हुआ - "पुरुष को आनंद यदि कोई दे सकती है वह स्त्री है."

"क्या आपको हमलोगों से मिलकर प्रसन्नता नहीं हुई.? "

"अतिब प्रसन्नता हुई." हर्ष प्रकट करते हुए ऋष्यशृंग ने कहा.

"क्या इससे भी अधिक आनंद पाना चाहते हैं आप. "

"अवश्य.....!" ऋष्यशृंग इस तरह से सम्मोहित हो चुका था कि वह शान्ता के किसी भी आग्रह को ठुकरा पाने की स्थिति में नहीं रह गया. 

"तो चलिए हमारे साथ." शान्ता ने उसकी कलाई थाम ली.

"कहाँ.....?"

"वहाँ जहाँ आनंद ही आनंद है. हृदयतंत्री को झनझना देने वाला नृत्य है, गीत है और संगीत है."

"चलो.....!" ऋष्यशृंग शान्ता के साथ आगे बढ़ गया और उन दोनों के पीछे थी शान्ता की तीनों सहेलियाँ. उनके पांव मनोरमा नदी के तट की ओर बढ़े जा रहे थे. 

 -रामबाबू नीरव

               ******

क्रमशः......!

0 comments:

Post a Comment

 
Top