पौराणिक कथा


सावंती विभांडक ऋषि के आश्रम से लौटकर जैसे ही अपनी नौका पर आयी कि उसकी पुत्री शान्ता तथा अन्य सभी युवा गणिकाओं ने उसे घेर लिया और उत्सुकता से ऋष्यशृंग के बारे में तरह तरह के प्रश्न पूछने लगी. उनके प्रश्नों से सावंती झल्ला पड़ी और शान्ता की कलाई पकड़ कर उसे घसीटती हुई अपने कक्ष में ले आयी. फिर शान्ता को ऊॅंच नीच समझाती हुई बोली. -

"देखो पुत्री, तुम्हें काफी संभल कर आगे का दायित्व निभाना होगा."

"मॉं, पहले मुझे यह तो बताओ, वह युवा ऋषि मिला या नहीं." शान्ता ने व्यग्र भाव से पूछा.

"नहीं, वह तो नहीं मिला, हाँ उसके पिता विभांडक ऋषि के आश्रम का पता चल चुका है."

"इससे क्या होगा, जब वही नहीं मिला, तो फिर....?"

"तो फिर क्या....वह उसी आश्रम में है परंतु वह किस कक्ष में है यह ज्ञात करना तुम्हारा काम है." सावंती कुछ पल के लिए चुप हो गयी. फिर शान्ता की पीठ पर स्नेह से हाथ फेरती हुई बोली -"देखो पुत्री.... तुम्हें अब इस तरह से उस युवा ऋषि को अपने प्रेम जाल में फंसाना है कि न तो उसका ब्रह्मचर्य नष्ट होने पाये और न ही तुम्हारा कौमार्य ही भंग हो."

"तुम चिंता मत करो मॉं, मैं ऐसा ही करूॅंगी."

"कल्ह दोपहर में, जब ऋषि भिक्षाटन के लिए निकल जाऐंगे तब मैं तुम्हें तथा तुम्हारी कुछ सहेलियों को वहाँ पहुॅंचा दूंगी, फिर आगे की जिम्मेदारी तुम्हारी होगी."

   "ठीक है मॉं, मुझे स्वीकार है." शान्ता अपनी मॉं के कक्ष से बाहर निकल गयी.

                     ∆∆∆∆

  दूसरे दिन दोपहर को सावंती अपनी पुत्री शान्ता तथा उसकी तीन खुबसूरत सहेलियों को साथ लेकर विभांडक ऋषि के आश्रम पर पहुँच गयी. स्वयं सावंती ऋषि के भेष में थी, जबकि शान्ता और उसकी सहेलियाँ ऋषि कुमार के भेष में थी. आश्रम में पूर्णतः सन्नाटा पसरा हुआ था. यज्ञ कुंड से सुवासित धुंआ निकल रहा था. इसका अर्थ यही था कि विभांडक ऋषि भिक्षाटन के लिए प्रस्थान कर चुके थे. सर्वप्रथम सावंती आश्रम में प्रविष्ट हुई. साबधानी पूर्वक पूरे आश्रम का अवलोकन करने के पश्चात जब वह संतुष्ट हो गयी कि आश्रम में न तो विभांडक ऋषि हैं और न ही कोई अन्य, तब वह शान्ता और उसकी सहेलियों को साथ लेकर ऋष्यशृंग की टोह में सभी कक्षों का निरीक्षण करने लगी. एक कक्ष में आकर वे सभी रूक गयी. वह कक्ष अन्य कक्षों की अपेक्षा बड़ा था. उस कक्ष में एक गुप्त कक्ष था, जो तहखाना जैसा था. उस तहखाने में जाने के लिए सीढ़ियां थी, जो टाट के द्वार से ढंकी हुई थी. वे सभी सीढ़ियां उतर कर उस तहखाने में प्रविष्ट हुई. तहखाने के बीचो बीच कुशासन पर ध्यान मग्न अवस्था में बैठा था युवा ऋष्यशृंग. काली काली घनी दाढ़ियों में छुपे उसके मुखमंडल से अलौकिक तेज प्रकाशित हो रहा था. उसके सर के पीछे इन्द्रधनुष जैसी आभा नाच रही थी. प्रशस्त ललाट से ऐसी तेजस्विता परिलक्षित हो रही थी जिसे देखकर सावंती तथा शान्ता के साथ साथ अन्य गणिकाएं भी मंत्रमुग्ध हो गयी. वे सभी अपलक उस युवा ऋषि को निहारती रह गयी. कुछ देर बाद जब उनकी चेतना लौटी तब सावंती शान्ता से बोली -"पुत्री, इस ऋषि को अब कैसे रीझाना है, यह तुम्हारी प्रतिभा पर निर्भर करता है. मैं आश्रम के बाहर गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठकर तुमलोगों की प्रतीक्षा कर रही हूँ, आगे की जिम्मेदारी तुम्हारी है."

"ठीक है मॉं मैं अपने सम्मोहन विधा द्वारा ऋषि को वश में करने की पूरी चेष्टा करूँगी." शान्ता ने अपनी माँ को आश्वस्त कर दिया. आश्वासन पा कर सावंती तहखाना से बाहर निकल गयी. सावंती के वहाँ से जाते ही शान्ता ऋष्यशृंग के निकट आ गयी और उसके कान में फुसफुसाती हुई अत्यंत ही मृदुल स्वर में बोली -"ऋषि कुमार अपनी आँखें खोलिए." परंतु शान्ता की इस मृदुल स्वर लहरी का कुछ भी प्रभाव ऋष्यशृंग पर न हुआ. वह पूर्णतः ध्यान मग्न था. कुछ पल के बाद शान्ता ने पुनः उसे पुकारा, परंतु उसका दूसरा प्रयास भी असफल रहा. 

"तुमलोग बाहर जाओ." शान्ता अपनी सहेलियों को संबोधित करती हुई बोली -"मैं देखती हूँ, इस ऋषि कुमार की तन्द्रा कैसे नहीं भंग होती है?." 

"जैसी तुम्हारी इच्छा." वे तीनों भी तहखाने से बाहर निकल गयी. उन तीनों के वहाँ से जाते ही शान्ता  उन्मत्त भाव से ऋष्यशृंग के अधरों पर अपने तप्त अधर रख दी. उसकी नासिका से निकलने वाली सुगंधित किन्तु तप्त सांसें ऋष्यशृंग की सांसों में घुलमिल कर उसके अंतस्तल में समाती चली गयी. उसका सम्पूर्ण अस्तित्व एक विचित्र अनुभूति से आनंदित हो उठा. साथ ही उसका रोम रोम पुलक उठा. जन्म काल से लेकर अबतक उसे ऐसे सुखद आनंद की प्राप्ति नहीं हुई थी. आनंद की इस अनुभूति ने उसके पौरुष को झकझोर कर रख दिया और उत्तेजना के उद्वेग को वह रोक नहीं पाया. उसकी आँखें खुल गयी. शांता उससे छिटक कर दूर खड़ी हो गयी. भय से वह कांप रही थी. उसकी आँखें भी मूंद गयी, कहीं इस तेजस्वी ऋषि कुमार ने उसे श्राप दे दिया तो? 

"आप कौन हैं.?" शान्ता के कानों में स्नेहसिक्त मृदुल आवाज पड़ी. उसके अशांत

हृदय को थोड़ी शान्ति मिली. उसने अपनी आँखें खोल दी और करबद्ध निवेदन करती हुई बोली -

"मेरी धृष्टता क्षमा करें ऋषि कुमार, मैं भी आपकी तरह ही एक ऋषि कुमार हूँ."

"तुम ऋषि कुमार हो?" ऋष्यशृंग चकित भाव से शान्ता को घूरते हुए बोला.

"हाँ....!" शान्ता के मुॅंह से स्फुट सा स्वर निकला.

"परंतु तुम्हारे स्पर्श से मुझे विचित्र तरह की अनुभूति हुई है."

"कैसी अनुभूति?" शान्ता चौंक पड़ी. उसे आशंका हो गयी, कहीं उसका भेद खुल न जाए. वैसे भेद तो एक न एक दिन खुलना ही था, परंतु जब तक वह ऋष्यशृंग को अपने वश में नहीं कर लेती, तब तक स्वयं को छुपाये रखना चाहती थी. यही उसकी माँ की आज्ञा थी.

"मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मेरे पूरे शरीर में विद्युत् की तरंग प्रवाहित हो रही हो और मन चंचल हो रहा है."

"आपको ऐसा इसलिए प्रतीत हो रहा है क्योंकि आप इस अंधकूप में पड़े हुए हैं. जरा इस अंधेरे कक्ष से बाहर निकल कर देखिए यह संसार कितना सुन्दर और सुखद है. प्रकृति ने सौंदर्य का वितान तान रखा है, इस धरा पर. इस वन में कलकल निनाद करती नदी है. पहाड़ों से निर्झर की तरह झरने वाले झरने हैं. सुंदर और मन मोहक सरोवर है. रंगबिरंगे पुष्प हैं.   तरु है, तरुवर है. और उन तरुवरों पर चहचहाते हुए पक्षी हैं, जिनके कलरव से समस्त वन गुंजायमान रहा करता है. इसके अतिरिक्त सबसे अलग सब एक अद्भुत चीज और भी है जो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है.!"

"वह क्या है?" ऋष्यशृंग आश्चर्य चकित भाव से शान्ता की एक एक शब्द को आत्मसात करता जा रहा था.

"स्त्री.....!"

"स्त्री.... यह कौन सी चीज है.?" 

"स्त्री ईश्वर की वह संरचना है, जो सृष्टि का आधार है. पुरुष और स्त्री के संयोग से ही यह सारा संसार बना है."

"परंतु पिताश्री ने तो मुझे स्त्रियों के बारे में कुछ भी नहीं बताया." 

"उन्होंने नहीं बताया तो क्या हुआ.... मैं बताऊंगा आपको स्त्री के बारे में."

"सच...." भोले भाले ऋष्यशृंग की ऑंखों में चमक उभर आयी.

"बिलकुल सच." हंसती हुई बोली शान्ता. -"मैं सिर्फ आपको स्त्री के बारे में बताऊंगा ही नहीं, बल्कि स्त्री से मिलवाऊंगा भी."

"ओ हो.... कब और कहाँ?" ऋष्यशृंग का रोम रोम पुलक उठा.

"कल्ह यहीं, आपके आश्रम में ही..... अब मुझे आज्ञा दीजिये." शान्ता सीढ़ियों की ओर बढ़ गयी.

"कल्ह आओगे न. " विकल स्वर स्वर निकला ऋष्यशृंग के मुॅंह से.

"अवश्य आउंगा. परंतु...."

"परंतु क्या....?"

"आप अपने पिताश्री को हमारे बारे में कुछ भी न बनाऐंगे."

"नहीं बताऊंगा." ऋष्यशृंग ने शान्ता को पूर्ण विश्वास दिलाता दिया. शान्ता मुस्कुराती हुई तेजी से सीढ़ियां चढ़ने लगी. ऋष्यशृंग अपलक उसे निहारता रह गया. जब शान्ता उसकी आँखों से ओझल हो गयी, तब उसके हृदय में हलचल सी मचने लगी. उसे ऐसा लगने लगा जैसे उसकी कोई बहुमूल्य वस्तु खो गयी हो. वह अपनी व्याकुलता पर काबू पाने का प्रयास करते हुए धपसे कुशासन पर बैठ गया.

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क्रमशः........

  -रामबाबू नीरव

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