विशैष आलेख

 -रामबाबू नीरव


आज से लगभग 40 वर्षों पूर्व 1985 में बालीवुड की एक फिल्म आई थी - *गुलामी*। इस फिल्म के निर्देशक थे जे. पी. दत्ता. बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म थी. वहीं इस फिल्म के प्रोड्यूसर थे ए. जी. नाडियाडवाला. तथा फिल्म में उस दौर के दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया था, जैसे- धर्मेन्द्र, मिथुन चक्रवर्ती, स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, रीना राय, अनीता राज, रज़ा मुराद,कुलभूषण खरबंदा, ओम शिवपुरी आदि. फिल्म के गीत लिखे थे फिल्मी दुनिया की जानीमानी हस्ती गुलज़ार साहब ने और उनके गीतों को मनभावन सुरों से सजाया था लक्ष्मीकांत प्यारे लाल की जोड़ी ने. इस फिल्म में एक गीत है -"जे-हाले-मिस्कीन मकुन ब-रंजिश, ब-हाले-हिज्रां बेचारा दिल है." यह उस गीत का मुखरा है. इस गीत को मिथुन चक्रवर्ती और अनीता राज पर फिल्माया गया था. गीत को स्वर दिया था स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर तथा शब्बीर कुमार ने. गीत के करोड़ों लोग तब भी दीवाने थे और आज भी हैं. गीत के प्रथम मुखड़े (प्रथम पंक्ति) के बाद के मिसरे का अर्थ तो सभी जानते हैं, मगर पहली पंक्ति का अर्थ उर्दू के अच्छे अच्छे जानकार भी नहीं बता पाते. उर्दू के जानकार मेरे कई मित्र हैं, जो अच्छे शायर भी हैं, वे भी इस पंक्ति का संतोषजनक तर्जुमां (भावार्थ) नहीं बता पाये. मैं समझ नहीं पाया कि आखिर गुलज़ार साहब, ने हिन्दी के गीत में इतने कठिन लफ़्ज़ों (शब्दों) का प्रयोग क्यों किया.? जबकि इस गीत के बाकी जितने भी छंद हैं, वे इतने सहज और सरल हैं, जिसे एक अनपढ़ मजदूर भी गुनगुना सकता है और उसके भाव को समझ सकता है. इस गीत के बारे में जानने पहले गुलज़ार साहब के बारे में जानना जरूरी है. तो आइए जानते हैं गुलज़ार साहब के बारे में -

गुलज़ार साहब का असल नाम सम्पूर्ण सिंह कालरा है. जबकि अधिकांश लोग भ्रमवश उन्हें मुस्लिम बिरादरी के समझ बैठते हैं. गुलज़ार साहब ने हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी, पंजाबी के साथ साथ अन्य कई भाषाओं में भी महारथ हासिल किया है. इनका जन्म 18 अगस्त 1936 को पंजाब के झेलम जिला में स्थित दीना नामक कस्बे में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है. इनके पिता का नाम माखन सिंह कालरा था. गुलज़ार साहब अपने पिता की दूसरी पत्नी  सुजान कौर की एकलौती संतान हैं. आजादी के बाद (हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे) के बाद इनका परिवार हिन्दुस्तानी पंजाब के अमृतसर शहर में आकर बस गया. गुलज़ार साहब की आरंभिक शिक्षा अमृतसर में ही हुई. बचपन में ही इनकी माँ का देहांत हो गया. साठ के दशक में ये काम की तलाश में बम्बई (मुम्बई) आ गये और यहाँ एक गैरेज में मोटर मैकेनिक के रूप में अपनी जिन्दगी की शुरुआत की. उन्हीं गर्दिश के दिनों में वे पार्ट टाइम में कविताएँ लिखा करते थे. और अपनी कविताएँ पत्र पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजने भी लगे, जो उस समय की मशहूर साहित्यक पत्रिकाओं में छपने लगी. ये अपनी रचनाएँ अपने उप नाम (तख़ल्लुस) "गुलज़ार दीनवी" से छपवाने लगे. इस उपनाम में भी दो तख़ल्लुस थे. एक था गुलज़ार, जिसका अर्थ होता है खिला हुआ बाग-बागिचा और दूसरा था  दीनवी. यह दीनवी इन्होंने अपने गाँव दीन पर रखा था. बाद में इन्होंने अपने मित्रों की सलाह पर दीनवी हटा दिया और सिर्फ गुलज़ार रह गये. उसी समय इनका एक गीत काफी विख्यात हुआ, गीत के बोल थे - "मोरा गोरा अंग लेई ले, मोहे शाम रंग देई दे" इस गीत पर सुप्रसिद्ध संगीतकार, निर्माता और निर्देशक एस. डी. बर्मन साहब की नजर पड़ गयी और उन्होंने इस गीत को अपनी फिल्म बंदनी में शामिल कर लिया. इस गीत को लता जी ने गाया था. उस जमाने में इस गीत ने धूम मचा दी थी. इन्होंने अब फिल्मी दुनिया में ही अपनी किस्मत आजमाने की ठान ली और उस दौर के विख्यात निर्देशकों - विमल रॉय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के रूप में अनुभव प्राप्त करने के पश्चात फिल्मों में गीत, संवाद, पटकथा लेखन के साथ साथ पूरी फिल्म का निर्देशन के साथ साथ निर्माण भी करने लगे. इन्होंने बालीवुड को कई दर्जनें कलात्मक तथा यथार्थ फिल्में दी जो मिल का पत्थर साबित हुई. अपनी कलात्मक फिल्मों की वजह से गुलज़ार साहब विमल रॉय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार जैसे दिग्गज फिल्मकारों की श्रेणी में आ गये. उनके कलात्मक फिल्मों में प्रमुख हैं - मेरे अपने, परिचय, कोशिश, अचानक, खुशबू, आंधी, मौसम, किनारा, किताब, अंगूर, नमकीन, मीरा, लिबास, माचिस आदि. इन्होंने 70-80 के दशक की मशहूर अभिनेत्री राखी से शादी कर ली. इनकी पुत्री मेघना गुलज़ार भी निर्देशन के क्षेत्र में अपने माता पिता का नाम रौशन कर रही है. 

अब आते हैं गुलज़ार साहब के गीत "जिहाल-ए-मिस्कीन मकुन-ब-रंजिश" पर. काफी खोजबीन के बाद मुझे यह ज्ञात हुआ कि गुलज़ार साहब ने गीत का यह मिसरा असल में चौदहवीं शताब्दी के मशहूर सूफी शायर अमीर खुसरो के एक ऐसे गीत से लिया है, जिस गीत में अमीर खुसरो ने गजब का प्रयोग किया है. उस गीत के प्रत्येक छंद की दो पंक्तियाँ फारसी में है, और दूसरी पंक्ति भारतीय लोकभाषा (ब्रजभाषा) में. भारतीय भाषा हिन्दी (हिन्दवी), उर्दू तथा अन्य लोकभाषाओं तथा विभिन्न संगीतों के जनक सूफी शायर अमीर खुसरो के उस अद्भुत गीत पर आगे चर्चा करूँगा, पहले गुलज़ार साहब के इस गीत पर चर्चा कर लूँ. गुलज़ार साहब का पूरा गीत इस प्रकार है -

"जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब- रंजिश

बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है. (2) 

सुनाई देती है जिसकी धड़कन

तुम्हारा दिल या हमारा दिल है." (2) 

(इस मिसरे का अर्थ है - मुझे रंजिश (क्रोध) भरी इन निगाहों से मत देखो, क्योंकि मेरा बेचारा दिल जुदाई (विरह) के मारे यूं ही बेहाल है. जिस दिल की धड़कन तुम सुन रहे हो, वो तुम्हारा या हमारा ही दिल है.) 

गुलज़ार साहब के गीत का आगे का जो भी मिसरा है, वो बिलकुल सरल और सहज है, जिसे, हर कोई समझ और गा सकता है. उस पूरे गीत को पढ़िए और गुनगुनाइए -

"वो आके पहलू में बैठे ऐसे? (2) 

के शाम रंगीन हो गयी है.(2) 

जरा जरा सी खिली तबियत 

जरा सी ग़मगीन हो गयी है. (2) 

जिहाल-ए-मस्कीं मकुन- ब-रंजिश ब-हाल-ए बेचारा दिल है.

सुनाई देती है जिसकी धड़कन तुम्हारा दिल या हमारा दिल है.

कभी कभी शाम ऐसे ढ़लती है

के जैसे घूंघट उतर रहा है 

(2) 

तुम्हारे सीने में उठा था धुंआ

हमारे दिल से गुजर रहा है.

जिहाल-ए-मस्कीं मकुन- ब-रंजिश बहाल-ए-हिज्र

बेचारा दिल है, 

सुनाई देती है जिसकी धड़कन तुम्हारा दिल या हमारा दिल है.

ये शर्म है, हया है क्या है

नजर उठाते ही झुक गयी है

(2) 

जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-

रंजिश बहाल-ए-हिज्र बेचारा दिल है

सुनाई देती है जिसकी धड़कन

तुम्हारा दिल या हमारा दिल है."

                   ∆∆∆∆∆

  आइए अब सूफी शायर (भक्तिरस के कवि) *अमीर खुसरो* और उनके कलाम को भी समझ लें. 

  अमीर खुसरो किशोरावस्था से ही पहेलियाँ, मुकरियां, गीत, ग़ज़ल, कविताएँ आदि लिखने लगे थे. वे फारसी और उर्दू के पहले ऐसे‌ शायर हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तानी जुबान (भाषा) के लिए "हिन्दवी" शब्द का प्रयोग किया. मूल रूप से वे फारसी के शायर थे, मगर उन्होंने फारसी के साथ साथ भारतीय लोक भाषा (ब्रजभाषा) का एक साथ समन्वय करके एक चमत्कार कर दिखाया. लोक भाषाओं में उन्होंने ऐसी ऐसी चमत्कारी विधाओं की रचना की, जो हमारे ग्रामीण समाज में लोकोक्ति बनकर रच बस गयी है. उन्हीं विधाओं में से प्रमुख है - पहेलियाँ (बुझौवल) और कहमुकरी. (उनकी इन विधाओं पर तथा उनके पूरे व्यक्तित्व पर मैं अगले आलेख में चर्चा करूँगा) खुसरो साहब के कलाम के इस बंद (छंद) को देखें,  इसका पहला मिसरा फारसी में है और दूसरा मिसरा ब्रजभाषा में है -

"जिहाल-ए-मिस्कीन मकुन तग़ाफ़ुल - (फारसी)

दौड़ाए नैना, बनाए बतियाॅं - (ब्रज भाषा) 

कि ताबे हिजरा न दारम ऐ जाॅं -(फारसी) 

न लेहू काहे लगाए छतियाॅं -(ब्रजभाषा)

इस मिसरे का अर्थ है -

"ऑंखें दौड़ा के और बातें बनाकर मेरी बेबसी को नगर अंदाज (तग़ाफ़ुल) मत करो. मेरे सब्र (धैर्य) की अब हद हो चुकी है. मुझे सीने से क्यों नहीं लगा लेते.?"

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क्रमशः.........! 

(अगले अंक में पढ़ें अमीर खुसरो साहब की जीवनी और ग्रामीण परिवेश से जुड़ी उनकी रचनाएँ.)

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