संस्मरण

 


- रामबाबू
 नीरव

आज से 10 वर्षों पूर्व यानि 26 मई 2014 को मेरे प्रथम उपन्यास *पश्यंती* का लोकार्पण पुपरी (सीतामढ़ी) के लोहिया भवन में एक भव्य साहित्यिक समारोह में हुआ था. इस लोकार्पण समारोह को सफल बनाने में मेरे साहित्यकार मित्रों तथा शुभेच्छुकों की अहम भूमिका रही. वैसे तो साहित्य में मेरी रुचि बाल्यावस्था से ही थी और लगभग 12 वर्ष की अवस्था से ही मैं स्वयं द्वारा लिखित नाटकों का मंचन अपने बाल मित्रों के साथ करने लगा था. जैसे जैसे मेरी उम्र बढ़ती गयी, वैसे वैसे साहित्य के प्रति मेरी अभिरुचि भी बढ़ती गयी और मेरी लेखनी में परिपक्वता के साथ साथ प्रवाह भी आता चला गया. जब मैं दसवीं कक्षा का छात्र था तभी मैंने एक कहानी लिखी "बुधुआ की मॉं". यह मेरी प्रथम कहानी थी जो दिल्ली से निकलने वाली मासिक पत्रिका "कथालोक" में प्रकाशित हुई. अब तो मेरा हौसला बढ़ गया और धराधर मैंने कई कहानियाँ लिख डाली. मेरी कहानियाँ कथालोक, दिल्ली के अतिरिक्त भोपाल, जयपुर, पटना, लखनऊ, कानपुर, गाजियाबाद, अलीगढ़, सहारनपुर, इलाहाबाद, कलकत्ता आदि शहरों से निकलने वाली पत्रिकाओं में भी प्रमुखता से छपने  लगी. 70 के दशक से लेकर अब तक मेरी 350 कहानियाँ देश की विभिन्न पत्रिकाओं तथा साझा संकलनों में प्रकाशित हो चुकी है. इसके साथ ही नाट्य लेखन से लेकर मंचन तक का भी मेरा सफर जारी रहा. चूंकि परिवार की जिम्मेदारियां भी मुझ पर ही थी. इसलिए एक जेनरल स्टोर्स खोलकर  छोटा मोटा व्यापारी बन गया. (बाद में मैंने समता प्रेस के नाम से प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की). 80 से 90 तक आते आते मेरे नाटकों की 10 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी. और उन नाटकों का मंचन भी अपने छोटे से शहर में समय समय पर करता रहा. उन्हीं दिनों अपनी बहन से मिलने मुजफ्फरपुर से रांची जाते समय बस में मेरी मुलाकात एक ऐसी युवती से हुई जिसने स्वयं को नर्तकी (तवायफ) बताया था. क्षण भर की मुलाकात में ही वह मेरे व्यवहार से इतनी प्रसन्न हुई  कि मेरे साथ एकदम से घुलमिल गयी. जब मैंने उसे बताया कि मैं कहानीकार हूँ, तब तो उसकी खुशी का ठिकाना ही न रहा और प्रसन्नता के प्रवाह में बहकर  वह धाराप्रवाह अपनी दर्द भरी दास्तान मुझे सुनाने लगी. उसके सद व्यवहार और मृदुलता को देखते हुए वह मुझे किसी भी दृष्टि से तवायफ नजर नहीं आयी. हॉं, उसके पांव पर पड़े घूंरुओं के निशान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि सचमुच वह तवायफ ही थी. मेरी असलियत जानकर वह मुझसे आग्रह करती हुई बोली -"सर, क्या आप मुझ पर भी एक कहानी लिखेंगे.?"

मैंने किंचित मुस्कुराते हुए कहा -"आपकी आत्मकथा में ऐसा दर्द है, ऐसी कशिश और भावुकता का एहसास है जिसने मुझे आपके ऊपर एक उपन्यास लिखने को प्रेरित कर दिया है. और मैं निश्चित रूप से आपके ऊपर  कहानी नहीं, उपन्यास ही लिखूंगा."

"सच सर." खुशी के मारे उसकी आंखें लबरेज हो गयी.

"बिलकुल सच." मैंने उसे पूर्ण रूप से आश्वस्त करते हुए कहा. उन दिनों मोबाइल का जमाना नहीं था. और न ही फोन ही उतना विकसित हो पाया था. उसने मुझे अपना लखनऊ का एड्रेस दिया था. परंतु दुर्भाग्य से वह एड्रेस खो गया. जल्दबाजी में मुझसे गलती यह हो गयी कि मैंने उसे अपना पता नहीं दिया. कई वर्षों तक मैं उस हमसफ़र के चरित्र का ताना बाना अपने मन में बुनता रहा. फिर उसपर उपन्यास लिखना आरंभ कर दिया. 

 उसी हमसफ़र की कहानी है "पश्यंती"! "पश्यंती" को मेरे पाठकों ने सर ऑंखों पर लिया. मेरे इस उपन्यास को हजारों पाठकों ने पढ़ा और इसके कथ्य की भूरि भूरि प्रशंसा की. सैकड़ों पत्र मुझे मिले. मोबाइल पर भी सैकड़ों पाठकों ने बधाइयाँ दी. सीतामढ़ी के राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात इतिहासकार श्री कुंजबिहारी जालान जी ने भी पश्यंती पर अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराते हुए मोबाइल पर कहा था -"नीरव जी, मैंने अपने अबतक के जीवन में बड़े से बड़े लेखकों के भी उपन्यास नहीं पढ़े. चूंकि मैं इतिहासकार हूँ, इसलिए पुराणों, धार्मिक ग्रंथों तथा ऐतिहासिक पुस्तकों के अध्ययन तक ही सीमित रहा. जब मैंने अनमने भाव से पश्यंती में छपी आप की भूमिका को पढ़ा तब आपकी लेखनी से इतना प्रभावित हुआ कि एक ही बैठक में पूरा उपन्यास पढ़ गया. आपने जिस खुबसूरती के साथ एक तवायफ के सद्गुणों, उसकी कोमल भावनाओं और सहृदयता को उभारा है वैसा बहुत कम ही देखने को मिलता है. आपके इस उपन्यास ने मेरे हृदय को झकझोर कर रख दिया. आप मुझसे काफी छोटे हैं, फिर भी मैं आपको नमन करता हूँ." राष्ट्रीय स्तर के इतिहासकार के इन आशार्वचनों ने मेरे अंदर एक नयी उर्जा का संचार किया और मैंने तब से उपन्यास ही लिखने का मन बना लिया. इन दस वर्षों की अवधि में मैंने 12 उपन्यास लिखे, जिसमें से 6 प्रकाशित हो चुके हैं और मित्रों का स्नेह रहा तो शेष भी प्रकाशित हो जाएंगे.

आप मित्रों को जिज्ञासा होगी कि आखिर पश्यंती में ऐसा है क्या....जिसके कारण पाठकों ने इसे हाथों हाथ लिया.? मित्रों, किसी तवायफ की जिन्दगी पर वैसे तो अनगिनत साहित्यिक कृतियों की रचना हो चुकी है. परंतु उन कृतियों में तवायफों के नकारात्मक चरित्र को ही उभारा गया है. यानि यह बताने की चेष्टा की गयी हैं कि लगभग सभी तवायफ अपने ग्राहकों को लूटने वाली होती हैं. वे सिर्फ सुन्दर, आकर्षक और धनवान युवकों पर ही आसक्त होती हैं और अपनी सुन्दरता तथा मोहक अदाओं से उन्हें रिझा कर धन ऐंठा करती हैं. यानि तवायफों का चरित्र खलनायिका के जैसा ही होता है. मैं समझता हूँ कि वास्तविकता भी यही है. इसी वजह से समाज तवायफों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता. इसके उलट मेरे उपन्यास पश्यंती की नायिका "श्वेता" नृत्य, गीत और संगीत में पारंगत होने के साथ साथ विदुषी भी है. इसके अतिरिक्त वह इतनी भावुक, सहृदय और कोमल है कि एक ऐसे व्यक्ति पर आसक्त हो जाती है जो कई वर्षों से अचेतनावस्था में पड़ा हुआ जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा है. उस युवक के प्रति उसके दिल में ऐसी संवेदना उत्पन्न होती है कि वह करोड़ों की दौलत को ठोकर मार कर कोमा में पड़े हुए उस युवक  को मौत के मुॅंह से खींच लाने का संकल्प लेकर उसकी सेवा में जुट जाती है. ऐसा वह इसलिए करती है क्योंकि उसका हृदय मानवीय संवेदना तथा दयाद्रभाव से परिपूर्ण है. उसके मन में उस रोगी के प्रति दया का सागर उमड़ पड़ता है. साथ ही उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि वह इस मरणासन्न युवक को नयी जिन्दगी देने में सफल हो जाएगी. यह आत्मविश्वास ही उसका संबल है. एक तरह से वह कठिन तपस्या का व्रत ले लेती है. इस उपन्यास में कई ऐसे मार्मिक स्थल हैं, जो किसी भी व्यक्ति की संवेदना को झकझोर कर रख देता है. 

उपन्यास के एक अहम पात्र हैं - सेठ द्वारिका दास. उनकी त्रासदी कैसी है, उनके ही शब्दों में देखें -"बेटी मैं संसार का वह अभागा बाप हूँ, जो अपने बेटे के लिए ईश्वर से मौत की प्रार्थना करता है." सेठ द्वारिका दास के इन्हीं चंद शब्दों में इस उपन्यास का पूरा कथ्य छुपा हुआ है. इस उपन्यास की नायिका श्वेता अपने एक नकली आशिक को प्रेम का अर्थ समझाती हुई कहती हैं -"तुम्हारा प्रेम उस भौरे के प्रेम की तरह है जो एक फूल का रस चूस कर दूसरे फूल पर मंडराने लगता है. मगर यह प्रेम नहीं वासना है. सच्चा प्रेम क्या होता है यह मैं बताती हूँ तुम्हें.... सच्चा प्रेम चकोर चॉंद से करता है और उसे पाने के लिए स्वयं मिट जाता है. सच्चे प्रेमी पतंगे होते हैं जो दिये की रौशनी को पाने के लिए उसी की लौ में जलकर भस्म हो जाते हैं. तुम्हारे जैसे कामुक रइसजादे सात्विक प्रेम को क्या समझेंगे." इन बातों में श्वेता की विद्वता के साथ साथ उसके पवित्र चरित्र की झलक मिलती है. अनेक तरह की विघ्न बाधाओं से लड़ती हुई अंततः वह उस रोगी को नयी जिंदगी देने में सफल हो जाती है, इतना ही नहीं बल्कि वह अपनी सम्मोहन शक्ति से पथभ्रष्ट हो चुके एक उस रइसजादे को भी सन्मार्ग पर ले आती है. पश्यंती उस नर्तकी की ही कहानी है, जो मुझे रांची जाते समय बस में मिली थी. कहानी को रोचक बनाने तथा प्रवाह लाने के लिए मैंने कल्पना का भी सहारा लिया है. परंतु दु:ख है कि जिसकी कहानी को मैंने उपन्यास का रूप दिया उसे ही मेरा यह उपन्यास पढ़ने को न मिल पाया. असल में मेरा यह उपन्यास उससे मिलने के पैंतालीस वर्षों बाद प्रकाशित हुआ. इस लम्बी अवधि में दुनिया की भीड़ में न जाने वह कहाँ खो गयी.

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