हमारे मनीषी साहित्यकार 

 


-रामबाबू नीरव 

अपनी पत्नी से प्रताड़ित होने के बाद नीलकंदन ने राजमहल का परित्याग तो कर दिया, परंतु उसकी समझ में न आया कि अब वह जाये तो कहाँ जाये.? भले ही वह निरक्षर और मूर्ख था, मगर था स्वाभिमानी. उसके एक मन ने कहा कि वह अपने पाल्य माता पिता के पास ही चला जाये, परंतु दूसरे मन ने धिक्कारते हुए कहा -"कौन सा मुॅंह लेकर जाओगे उनके पास. तुम्हें अकेला आया देखकर वे लोग तरह तरह के सवाल पूछेंगे.... फिर क्या उत्तर दोगे?" 

"नहीं मैं वहाँ नहीं जाऊॅंगा, ऐसी जगह जाऊॅंगा, जहाँ राजकुमारी की छाया तक भी पहुॅंच न सके." मन में एक दृढ़ निश्चय करके वह पश्चिम दिशा की ओर निकल पड़ा. उसे खुद पता न था कि वह कहाँ जा रहा है.? बस वह सिर्फ चलता ही जा रहा था. जब उसे भूख लगती, तब किसी गाँव में रूककर भिक्षाटन करके अपनी क्षुधा शान्त कर लेता. नींद लगती तो किसी किसी मंदिर में जाकर सो जाता. कई दिनों की अनवरत यात्रा के पश्चात वह मिथिला राज्य में प्रविष्ट हुआ. उन दिनों मिथिला वज्जि संघ (वैशाली गणराज्य) का अंग था और वैशाली था मगध साम्राज्य के अधीन. मगध साम्राज्य के सम्राट थे, गुप्त राजवंश के चन्द्रगुप्त द्वितीय, जो विक्रमादित्य के नाम से विख्यात हो चुके थे. नीलकंदन अनजाने में ही मिथिला के वर्तमान मधुबनी जिलान्तर्गत बेनीपट्टी थाना के उच्चैठ ग्राम में पहुँच गया. उच्चैठ में एक नदी के किनारे अतिप्राचीन मॉं भगवती का मंदिर था. जो छिन्नमस्तिके दुर्गा मंदिर के नाम से विख्यात था. उस मंदिर के उत्तर दिशा से होकर एक नदी प्रवाहित होती थी. (वर्तमान में वह नदी एक सुन्दर सरोवर में परिवर्तित हो चुकी है. इसी सरोवर के ऊपर मंदिर से सटे उत्तर एक मंडप है जहाँ आज भी खस्सी (बकड़े) की बलि आश्विन माह की नौरात्रि में नवमी के दिन दी जाती है.) उस नदी के उस पार एक गुरूकुल हुआ करता था, जिसमें विद्वान आचार्यों के द्वारा वेद, पुराण, उपनिषद, ज्योतिष विद्या, वेदांग, षडदर्शन तथा अन्य शास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी. उस गुरूकुल में दूर दूर से छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आया करते थे. गुरूकुल में दूर दूर के छात्रों के लिए छात्रावास की भी व्यवस्था थी. छात्रावास में मेस (भोजनालय) भी था, जहाँ तीन चार की संख्या में रसोइया भोजन बनाया करते थे. भूले भटके नीलकंदन उसी गुरुकुल में पहुँच गया. चूंकि उसका सौंदर्य अनुपम था, परंतु भूख प्यास और थकान से उसका सुन्दर मुखड़ा कुम्हला गया था, फिर भी गुरूकुल के आचार्य से लेकर छात्र तक उसकी ओर आकर्षित हो गये. एक आचार्य ने उससे पूछा -"तुम कौन हो वत्स, और यहाँ कैसे आगये.?"

नीलकंदन ने अपनी अंगुली से पेट की ओर इशारा करते हुए करुण स्वर मे कहा -"श्रीमान, मुझे जोरों की भूख लगी है, पहले मेरी क्षुधा शान्त कीजिये." उसकी वेदना मुखमंडल पर उभर आयी. आचार्य ने छात्रों की ओर इशारा किया. सभी छात्र उसे भोजनालय की ओर ले गये. भोजनोपरांत एक छात्र ने उससे पूछा -"क्या तुम हमलोगों के लिए भोजन बना सकते हो.?" स्वीकृति में उसने अपनी गर्दन हिला दी. भोजनालय में जो रसोइया थे, उन्होंने नीलकंदन को भोला भाला समझ कर उससे मजदूरी का काम लेने लगे. और उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगे. फिर भी उसके मुॅंह से आह भी न निकली. उसने सोचा "चलो किसी तरह से दो शाम का भोजन मिल तो रहा है." परंतु उसके साथ दुर्व्यवहार करने वालों को रह पता न था कि यह सीधा साधा इंसान मालवा राज्य की राजकुमारी विद्योत्तमा का पति और मालवा राज्य का उत्तराधिकारी है.

    प्रत्येक दिन संध्या के समय उस गुरूकुल के कुछ छात्र, जो माँ भगवती के उपासक थे, सांध्य बेला में नदी पार करके मंदिर में दीप जलाने जाया करते थे. कुछ दिनों बाद बरसात का मौसम आ गया और दिनरात बारिश होने लगी. मूसलाधार बारिश से नदी में उफान आ गया. उन छात्रों, जो मंदिर में दीप जलाने जाया करते थे, की हिम्मत पस्त हो गयी. परंतु मंदिर में दीप जलाना भी आवश्यक था. तभी उन छात्रों के समक्ष नीलकंदन आ गया. नीलकंदन सीधा साधा, बलिष्ठ और दुस्साहसी था. उसे देखकर उन छात्रों को पूर्ण विश्वास हो गयाकि वह मंदिर में अवश्य दीप जला देगा. उन छात्रों में एक ने उससे कहा कि वो सामने जो मंदिर दिख रहा है, वहाँ दीप जलाना है, क्या तुम नदी पारकर के वहाँ जा सकते हो.?"

"हाँ..... जा सकता हूँ." उसने नि:संकोच अपनी स्वीकृति दे दी.

"तो जाओ, मगर तुमने वहाँ दीप जलाया है, इसकी कोई निशानी वहाँ अवश्य अंकित कर देना."

"ठीक है कर दूंगा." इतना कहकर नीलकंदन ने उफनती हुई नदी में छलांग लगा दी. अपने गाँव में वह एक कुशल तैराक माना जाता था. कुछ ही क्षणों में वह उफनती हुई नदी की धारा में तैरते हुए उस पार मंदिर में पहुँच गया. नदी के दूसरे तट पर खड़े छात्र उसकी दक्षता को देखकर दंग रह गये. वह भींगी हुई अवस्था में ही मंदिर में पहुँच गया और भगवती के समक्ष रखे दीपों को पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ जला दिया. अब उसे वहाँ अपनी उपस्थिति की निशानी छोड़नी थी. परंतु उसकी समझ में न आया कि आखिर वह कौन सी निशानी वहाँ छोड़े.? तभी उसकी दृष्टि बुझी हुई दीपों की स्याही पर पड़ी. उसने झटपट स्याही अपने दोनों हाथों में लगा लिया और निश्छलता पूर्वक माॅं भगवती के सुन्दर मुखड़े पर मल दिया. उसकी उस निश्छलता को देख माँ भगवती उस पर अनुरक्त हो गयी. (यहाँ का यह प्रसंग किंवदंती के रूप में है.) उन्हें लगा कि उनका सबसे बड़ा भक्त यही निश्छल युवक है, जिसने रह भी नहीं सोचा कि कालिख पोतने से मेरा मुखमंडल काला हो जाएगा. वे अपने इस भोले भाले भक्त के समक्ष प्रकट हो गयी और नीलकंदन को आशीष प्रदान करती हुई बोली -"वत्स मैं तुम्हारी भक्ति से काफी प्रसन्न हूँ. मैं तुम्हारी कोई एक मनोकामना पूर्ण कर सकती हूँ. बोलो क्या चाहते हो."

नीलकंदन ने देवी माँ को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात भावविभोर होते हुए कहा -"माहेश्वरी, सभी मुझे अज्ञानी, अनपढ़, गंवार और महामूर्ख समझते हैं. मुझे महा ज्ञानी बना दीजिये माते."

'तथास्तु वत्स, जाओ तुम जिस पुस्तक का स्पर्श कर दोगे, वह तुम्हें कंठस्थ हो जाएगा." माँ भगवती नीलकंदन को वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गयी.

"आपकी जय हो माते." उनकी जयकार मनाते हुए नीलकंदन पुनः नदी में कूद गया.

 उसी रात्रि में उसने गुरूकुल में उपलब्ध सभी पुस्तकों का स्पर्श करता चला गया. वह जिस पुस्तक का भी स्पर्श करता वह उसे कंठस्थ हो जाता. उन पुस्तकों में निरुक्त, ज्योतिष विद्या, छहो वेदांग, षडदर्श तथा उपनिषद थे. चूंकि वह गुरूकुल उच्च विद्या का केन्द्र था, इसलिए  वहाँ प्रारंभिक शिक्षा की पुस्तकें नहीं थी. और उसने लिखने का भी अभ्यास नहीं किया. माता ने उसे यह वरदान दिया था कि वह जिस पुस्तक का स्पर्श करेगा वह उसे कंठस्थ हो जाएगा. वहाँ उपलब्ध पुस्तकें तो उसे कंठस्थ हो गयी, परंतु न तो उसे अक्षर ज्ञान हो पाया और न ही व्याकरण तथा छंदोलंकार का ज्ञान हो पाया. सुबह होते ही जब उसने गुरूकुल के छात्रों के समक्ष कंठस्थ पुस्तकों का पाठ करना आरंभ किया तब सभी आश्चर्यचकित रह गये. आचार्यों को जब इस चमत्कार की जानकारी हुई तब वे सभी भी भौचक्के रह गये. एक ही रात में माँ कालि की कृपा से महामूर्ख नीलकंदन प्रकांड विद्वान बन गया. उस गुरूकुल के आचार्यों ने ही मूर्ख नीलकंदन का नवीन नामाकरण किया -"कालिदास " इसका शाब्दिक अर्थ होता माँ कालि का भक्त. अब कालिदास ने वहाँ रूकना उचित न समझा. वह शीघ्रता शीघ्र यह शुभ संवाद अपनी पत्नी राजकुमारी विद्योत्तमा को सुनाना चाहता था. वह आचार्यों तथा छात्रों से अनुमति लेकर अपने मालवा राज्य की ओर प्रस्थान कर गया.

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क्रमशः........! 

(अगले अंक में पढ़े - किस तरह विद्योत्तमा बनी अपने पति कालिदास की गुरु.)

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