वैसे तो हिंदू धर्म जापान में बहुत कम प्रचलित धर्म है, फिर भी जापानी संस्कृति के निर्माण में इसकी महत्वपूर्ण और अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि कई बौद्ध मान्यताएं और परंपराएं (जो हिंदू धर्म के साथ एक समान भारतीय मूल साझा करती हैं) छठवीं शताब्दी में कोरियाई प्रायद्वीप के माध्यम से चीन से जापान तक फैल गईं थी। इसका एक संकेत जापानी "सेवन गॉड्स ऑफ फॉर्च्यून" ( शिची-फुकु-जिन या जापानी "भाग्य के सात देवता"), सात लोकप्रिय लोगों का समूहजापानी देवता, ये सभी अच्छे भाग्य और खुशी से जुड़े हैं। सातों को विभिन्न स्रोतों से लिया गया है, लेकिन कम से कम सोलहवीं शताब्दी से उन्हें एक साथ समूहीकृत किया गया है। वे बिशमोन , डाइकोकू , एबिसु , फुकुरोकुजू , जुरोजिन , होतेई और समूह में एकमात्र महिला, बेंटेन ( क्यूक्यू.वी. ) हैं।) है, जिनमें से चार की उत्पत्ति हिंदू देवताओं के रूप में हुई जैसे कि, ' बेंज़ाइटेन्समा ( सरस्वती ), बिशमोन (वैश्रवण या कुबेर ), डाइकोकुटेन ( महाकाल या शिव ), और किचिजोटेन ( लक्ष्मी )।' अंतिम, बेंज़ाइटेन्यो ( सरस्वती ) और डाइकोकुटेन के महिला संस्करण के साथ महान देवियों की निप्पोनाइज्ड त्रिदेवी को पूरा करता है । जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह 'होबुत्सुशू' में संक्षिप्त राम कथा संकलित है। इसकी रचना तैरानो यसुयोरी ने बारहवीं शताब्दी में की थी। रचनाकार ने कथा के अंत में घोषणा की है कि इस कथा का स्रोत चीनी भाषा का ग्रंथ 'छह परिमिता सूत्र' है।जापान में होबुत्सुशु और सैम्बो-एकोटोबा सबसे लोकप्रिय संस्करणों में से एक है। बोनटेनकोकू के नाम से मशहूर एक अन्य संस्करण में तमावाका यानी भगवान राम को एक बांसुरी वादक के रूप में चित्रित किया गया है। जापान के इतिहास को इकट्ठा करने वाले क्लियो क्रोनिकल्स ने 4 अगस्त 2020 को ट्वीट कर यह बताया था कि दुनिया में रामायण के मौजूद तकरीबन तीन सौ संस्करणों में से एक यह भी है। कहा जाता है कि बेनज़ैटन छठवीं से आठवीं शताब्दी के दौरान जापान में पहुंचे थे, मुख्य रूप से गोल्डन लाइट के सूत्र के चीनी अनुवादों के माध्यम से, जिसमें उनके लिए समर्पित एक अनुभाग है। लोटस सूत्र में उनका भी उल्लेख है। जापान में, लोकापाला चार स्वर्गीय राजाओं के बौद्ध रूप  हैं। गोल्डन लाइट का सूत्र ( गोल्डन लाइट सूत्र अपने मूल संदेश के कारण चीन और जापान में सबसे महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक बन गया है , जो सिखाता है कि चार स्वर्गीय राजा "चीनी पिनयिन सी दतियानवांग' उस शासक की रक्षा करते हैं जो अपने देश पर उचित रूप से शासन करता है।) जापान में अपने मूल संदेश के कारण सबसे महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक बन गया, जो सिखाता है कि चार स्वर्गीय राजा शासक की रक्षा करते हैं जो उचित तरीके से अपने देश को नियंत्रित करता है।

                इस सूत्र को चीन, कोरिया और जापान में भी देश की रक्षा के सूत्र के रूप में सम्मान मिला और अक्सर खतरों से बचने के लिए इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाता था। उदाहरण के लिए, जापान में इसका पहला वाचन लगभग छः सौ साठ ईस्वी के दौरान एक अदालती समारोह के रूप में हुआ था, जब चीन के तांग राजवंश और कोरिया के सिला ने कोरिया के बाकेजे राज्य को हराया था और जापान को धमकी दे रहे थे। जापान के सम्राट शोमू ने प्रत्येक प्रांत में भिक्षुओं और ननों के लिए प्रांतीय मठों की स्थापना की तथा मठों का आधिकारिक नाम चार स्वर्गीय राजाओं द्वारा राज्य की सुरक्षा के लिए मंदिर गोल्डन लाइट सूत्र का प्रयोग किया गया था। वहाँ रहने वाले बिस भिक्षुओं ने देश की रक्षा के लिए एक निश्चित समय पर सॉवरेन किंग्स गोल्डन लाइट सूत्र का पाठ किया था परन्तु जैसे-जैसे जापान में बौद्ध धर्म विकसित हुआ। जापान में मृत्यु के हिंदू देवता, यम, अपने बौद्ध रूप में एन्मा के रूप में जाने जाते हैं। विष्णु के पर्वत (वहाण) गरुड़ को जापान में एक विशाल अग्नि-श्वास जीव 'करुरा' के रूप में जाना जाता है। इसमें एक इंसान का शरीर है और चेहरे पर एक ईगल की चोंच है। लोगों ने जापान में हिंदू देवताओं की पूजा पर किताबें लिखी हैं। आज भी, दावा किया जाता है कि जापान हिंदू देवताओं के गहन अध्ययन को प्रोत्साहित करता है।     
             कहा जाता है कि तथागत शाक्य मुनि एक विख्यात साम्राज्य के स्वामी थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उसी समय पड़ोसी राज्य 'किउसी' में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। लोग भूख से मरने लगे। ऐसी स्थिति में वहाँ के लोगों ने तथागत के राज्य पर आक्रमण कर अन्न प्राप्त करने की योजना बनाई। आक्रमण की जानकारी मिलने पर तथागत की प्रजा दृढ़तापूर्वक उसका सामना करने के लिए तैयार हो गयी परन्तु तथागत को जब आक्रमण की योजना की जानकारी मिली, तब उन्होंने युद्ध में अनगिनत लोगों के मारे जाने की संभावना को देखते हुए अपने मंत्रियों को युद्ध करने से मना कर दिया और स्वयं अपनी रानी के साथ तपस्या करने पहाड़ पर चले गये। तथागत के अचानक चले जाने से वहाँ के योद्धा निराश हो गये और उन लोगों ने बिना युद्ध किये ही शत्रु के समक्ष आत्मसमपंण कर दिया था। उधर तथागत राजा पहाड़ पर कंदमूल खाकर तपस्या करने लगे। एक दिन एक ब्राह्मण तपस्वी राजा के पास आया जिसे देखकर राजा को प्रसन्नता हुई। वह राजा के साथ ही रहकर उनकी सेवा करने लगा। राजा एक दिन पहाड़ पर फल लाने गये तो उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में ब्राह्मण ने रानी का अपहरण कर लिया। लौटने पर रानी को नहीं देखकर राजा विचलित हो गये। वे रानी की खोज में निकल पड़े। उसी बीच उनकी भेंट एक विशाल मरणासन्न पक्षी से  हुई जिसके दोनों पंख टूटे हुए थे और उस पक्षी ने उन्हें बताया कि ब्राह्मण सेवक ने रानी का अपहरण किया है। प्रतिरोध करने पर उसने नागराज का रुप धारण कर लिया और उसकी यह दशा कर दी, इतना कहने के बाद पक्षी का प्राणांत हो गया। उसे देखकर राजा द्रवित हो गये और उन्होंने पहाड़ की चोटी पर उसका अंतिम संस्कार कर दिया। पक्षी की बात पर विश्वास कर राजा दक्षिण की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में हज़ारों बंदरों को गर्जना करते देखा। राजा को देखकर वे सभी बन्दर आनंदित हो उठे। उन्होंने बताया कि जिस पहाड़ पर उनका बहुत दिनों से अधिकार था, उस पर पड़ोसी देश के राजा ने कब्जा कर लिया है। सारे बंदर राजा को अपना सेनापति बनाना चाहते थे, किंतु राजा युद्ध के नाम से विचलित हो गये परंतु वानरों के अनुरोध पर अंत में उन्हें स्वीकृति देना पड़ी। बंदरों ने उन्हें धनुष-बाण लाकर दिया और निर्धारित समय पर युद्ध आरंभ हो गया। राजा ने जब पूरी शक्ति से धनुष को ताना तो उनके रुप को देखकर ही शत्रु सेना भाग गई और वानर दल में उल्लास छा गया।
             उसके बाद राजा ने बंदरों को अपनी पत्नी के अपहरण की बात बतायी। वानर दल उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये। राजा वानर दल के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण राजा की दुर्गति को देखकर ब्रह्मा भी द्रवित हो गये और वह भी छोटा बंदर का रुप धारण कर वहाँ पहुँच गये। छोटे कपि ने समुद्र के मध्य स्थित नागराज के भवन तक पहुँचने के लिए बंदरों को लकड़ी और जड़ी-बूटी की सहायता से पुल बनाने के लिए कहा। उसकी सलाह के अनुसार पुल तैयार हो गया और वानरी सेना सेतु मार्ग से नागराज के भवन के निकट पहुँच गयी। यह देखकर नागराज क्रुद्ध हो गया तथा उसके वहाँ के बर्फीले तूफान से आहत वानर योद्धा बेहोश हो गये। लघु कपि ने हिमालय से महावटी की शाखा लाकर उनका उपचार किया। उस दिव्य औषधि के प्रभाव से सब में शक्ति का संचार हुआ परन्तु नागराज पुन: आग उगलता हुआ आगे बढ़ा, किंतु इस बार राजा के बाण से आहत होकर नागराज धराशायी हो गया। वानरी सेना राजभवन में प्रवेश कर गयी। नाग भवन से रानी की मुक्ति के साथ सात रत्नों की प्राप्ति हुई। राजा रानी के साथ देश लौट गये। उसी समय 'किउसी' के राजा की भी मृत्यु हो गयी और वहाँ की प्रजा ने भी तथागत को  अपना राजा मान लिया और तथागत अपने   देश के साथ ही 'किउसी' के भी सम्राट बन गये।
                              डॉ सत्या सिंहजापान की राम कथा

वैसे तो हिंदू धर्म जापान में बहुत कम प्रचलित धर्म है, फिर भी जापानी संस्कृति के निर्माण में इसकी महत्वपूर्ण और अप्रत्यक्ष भूमिका रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि कई बौद्ध मान्यताएं और परंपराएं (जो हिंदू धर्म के साथ एक समान भारतीय मूल साझा करती हैं) छठवीं शताब्दी में कोरियाई प्रायद्वीप के माध्यम से चीन से जापान तक फैल गईं थी। इसका एक संकेत जापानी "सेवन गॉड्स ऑफ फॉर्च्यून" ( शिची-फुकु-जिन या जापानी "भाग्य के सात देवता"), सात लोकप्रिय लोगों का समूहजापानी देवता, ये सभी अच्छे भाग्य और खुशी से जुड़े हैं। सातों को विभिन्न स्रोतों से लिया गया है, लेकिन कम से कम सोलहवीं शताब्दी से उन्हें एक साथ समूहीकृत किया गया है। वे बिशमोन , डाइकोकू , एबिसु , फुकुरोकुजू , जुरोजिन , होतेई और समूह में एकमात्र महिला, बेंटेन ( क्यूक्यू.वी. ) हैं।) है, जिनमें से चार की उत्पत्ति हिंदू देवताओं के रूप में हुई जैसे कि, ' बेंज़ाइटेन्समा ( सरस्वती ), बिशमोन (वैश्रवण या कुबेर ), डाइकोकुटेन ( महाकाल या शिव ), और किचिजोटेन ( लक्ष्मी )।' अंतिम, बेंज़ाइटेन्यो ( सरस्वती ) और डाइकोकुटेन के महिला संस्करण के साथ महान देवियों की निप्पोनाइज्ड त्रिदेवी को पूरा करता है । जापान के एक लोकप्रिय कथा संग्रह 'होबुत्सुशू' में संक्षिप्त राम कथा संकलित है। इसकी रचना तैरानो यसुयोरी ने बारहवीं शताब्दी में की थी। रचनाकार ने कथा के अंत में घोषणा की है कि इस कथा का स्रोत चीनी भाषा का ग्रंथ 'छह परिमिता सूत्र' है।जापान में होबुत्सुशु और सैम्बो-एकोटोबा सबसे लोकप्रिय संस्करणों में से एक है। बोनटेनकोकू के नाम से मशहूर एक अन्य संस्करण में तमावाका यानी भगवान राम को एक बांसुरी वादक के रूप में चित्रित किया गया है। जापान के इतिहास को इकट्ठा करने वाले क्लियो क्रोनिकल्स ने 4 अगस्त 2020 को ट्वीट कर यह बताया था कि दुनिया में रामायण के मौजूद तकरीबन तीन सौ संस्करणों में से एक यह भी है। कहा जाता है कि बेनज़ैटन छठवीं से आठवीं शताब्दी के दौरान जापान में पहुंचे थे, मुख्य रूप से गोल्डन लाइट के सूत्र के चीनी अनुवादों के माध्यम से, जिसमें उनके लिए समर्पित एक अनुभाग है। लोटस सूत्र में उनका भी उल्लेख है। जापान में, लोकापाला चार स्वर्गीय राजाओं के बौद्ध रूप  हैं। गोल्डन लाइट का सूत्र ( गोल्डन लाइट सूत्र अपने मूल संदेश के कारण चीन और जापान में सबसे महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक बन गया है , जो सिखाता है कि चार स्वर्गीय राजा "चीनी पिनयिन सी दतियानवांग' उस शासक की रक्षा करते हैं जो अपने देश पर उचित रूप से शासन करता है।) जापान में अपने मूल संदेश के कारण सबसे महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक बन गया, जो सिखाता है कि चार स्वर्गीय राजा शासक की रक्षा करते हैं जो उचित तरीके से अपने देश को नियंत्रित करता है।
                इस सूत्र को चीन, कोरिया और जापान में भी देश की रक्षा के सूत्र के रूप में सम्मान मिला और अक्सर खतरों से बचने के लिए इसे सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाता था। उदाहरण के लिए, जापान में इसका पहला वाचन लगभग छः सौ साठ ईस्वी के दौरान एक अदालती समारोह के रूप में हुआ था, जब चीन के तांग राजवंश और कोरिया के सिला ने कोरिया के बाकेजे राज्य को हराया था और जापान को धमकी दे रहे थे। जापान के सम्राट शोमू ने प्रत्येक प्रांत में भिक्षुओं और ननों के लिए प्रांतीय मठों की स्थापना की तथा मठों का आधिकारिक नाम चार स्वर्गीय राजाओं द्वारा राज्य की सुरक्षा के लिए मंदिर गोल्डन लाइट सूत्र का प्रयोग किया गया था। वहाँ रहने वाले बिस भिक्षुओं ने देश की रक्षा के लिए एक निश्चित समय पर सॉवरेन किंग्स गोल्डन लाइट सूत्र का पाठ किया था परन्तु जैसे-जैसे जापान में बौद्ध धर्म विकसित हुआ। जापान में मृत्यु के हिंदू देवता, यम, अपने बौद्ध रूप में एन्मा के रूप में जाने जाते हैं। विष्णु के पर्वत (वहाण) गरुड़ को जापान में एक विशाल अग्नि-श्वास जीव 'करुरा' के रूप में जाना जाता है। इसमें एक इंसान का शरीर है और चेहरे पर एक ईगल की चोंच है। लोगों ने जापान में हिंदू देवताओं की पूजा पर किताबें लिखी हैं। आज भी, दावा किया जाता है कि जापान हिंदू देवताओं के गहन अध्ययन को प्रोत्साहित करता है।     
             कहा जाता है कि तथागत शाक्य मुनि एक विख्यात साम्राज्य के स्वामी थे। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी। उसी समय पड़ोसी राज्य 'किउसी' में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। लोग भूख से मरने लगे। ऐसी स्थिति में वहाँ के लोगों ने तथागत के राज्य पर आक्रमण कर अन्न प्राप्त करने की योजना बनाई। आक्रमण की जानकारी मिलने पर तथागत की प्रजा दृढ़तापूर्वक उसका सामना करने के लिए तैयार हो गयी परन्तु तथागत को जब आक्रमण की योजना की जानकारी मिली, तब उन्होंने युद्ध में अनगिनत लोगों के मारे जाने की संभावना को देखते हुए अपने मंत्रियों को युद्ध करने से मना कर दिया और स्वयं अपनी रानी के साथ तपस्या करने पहाड़ पर चले गये। तथागत के अचानक चले जाने से वहाँ के योद्धा निराश हो गये और उन लोगों ने बिना युद्ध किये ही शत्रु के समक्ष आत्मसमपंण कर दिया था। उधर तथागत राजा पहाड़ पर कंदमूल खाकर तपस्या करने लगे। एक दिन एक ब्राह्मण तपस्वी राजा के पास आया जिसे देखकर राजा को प्रसन्नता हुई। वह राजा के साथ ही रहकर उनकी सेवा करने लगा। राजा एक दिन पहाड़ पर फल लाने गये तो उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में ब्राह्मण ने रानी का अपहरण कर लिया। लौटने पर रानी को नहीं देखकर राजा विचलित हो गये। वे रानी की खोज में निकल पड़े। उसी बीच उनकी भेंट एक विशाल मरणासन्न पक्षी से  हुई जिसके दोनों पंख टूटे हुए थे और उस पक्षी ने उन्हें बताया कि ब्राह्मण सेवक ने रानी का अपहरण किया है। प्रतिरोध करने पर उसने नागराज का रुप धारण कर लिया और उसकी यह दशा कर दी, इतना कहने के बाद पक्षी का प्राणांत हो गया। उसे देखकर राजा द्रवित हो गये और उन्होंने पहाड़ की चोटी पर उसका अंतिम संस्कार कर दिया। पक्षी की बात पर विश्वास कर राजा दक्षिण की ओर चल पड़े। उन्होंने रास्ते में हज़ारों बंदरों को गर्जना करते देखा। राजा को देखकर वे सभी बन्दर आनंदित हो उठे। उन्होंने बताया कि जिस पहाड़ पर उनका बहुत दिनों से अधिकार था, उस पर पड़ोसी देश के राजा ने कब्जा कर लिया है। सारे बंदर राजा को अपना सेनापति बनाना चाहते थे, किंतु राजा युद्ध के नाम से विचलित हो गये परंतु वानरों के अनुरोध पर अंत में उन्हें स्वीकृति देना पड़ी। बंदरों ने उन्हें धनुष-बाण लाकर दिया और निर्धारित समय पर युद्ध आरंभ हो गया। राजा ने जब पूरी शक्ति से धनुष को ताना तो उनके रुप को देखकर ही शत्रु सेना भाग गई और वानर दल में उल्लास छा गया।
             उसके बाद राजा ने बंदरों को अपनी पत्नी के अपहरण की बात बतायी। वानर दल उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गये। राजा वानर दल के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। अहिंसा धर्म का पालन करने के कारण राजा की दुर्गति को देखकर ब्रह्मा भी द्रवित हो गये और वह भी छोटा बंदर का रुप धारण कर वहाँ पहुँच गये। छोटे कपि ने समुद्र के मध्य स्थित नागराज के भवन तक पहुँचने के लिए बंदरों को लकड़ी और जड़ी-बूटी की सहायता से पुल बनाने के लिए कहा। उसकी सलाह के अनुसार पुल तैयार हो गया और वानरी सेना सेतु मार्ग से नागराज के भवन के निकट पहुँच गयी। यह देखकर नागराज क्रुद्ध हो गया तथा उसके वहाँ के बर्फीले तूफान से आहत वानर योद्धा बेहोश हो गये। लघु कपि ने हिमालय से महावटी की शाखा लाकर उनका उपचार किया। उस दिव्य औषधि के प्रभाव से सब में शक्ति का संचार हुआ परन्तु नागराज पुन: आग उगलता हुआ आगे बढ़ा, किंतु इस बार राजा के बाण से आहत होकर नागराज धराशायी हो गया। वानरी सेना राजभवन में प्रवेश कर गयी। नाग भवन से रानी की मुक्ति के साथ सात रत्नों की प्राप्ति हुई। राजा रानी के साथ देश लौट गये। उसी समय 'किउसी' के राजा की भी मृत्यु हो गयी और वहाँ की प्रजा ने भी तथागत को अपना राजा मान लिया और तथागत अपने देश के साथ ही 'किउसी' के भी सम्राट बन गये।
-डॉ सत्या सिंह

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