भारत के मनीषी साहित्यकार


-रामबाबू नीरव

राधारानी को मूर्तरूप देनेवाले तथा उन्हें जन जन के हृदय में भगवान श्रीकृष्ण की मुख्य नायिका के रूप स्थापित करनेवाले वैष्णव कवि जयदेव का जन्म बारहवीं शताब्दी (सन् 1170 ई०) में उत्कल (वर्तमान उड़ीसा) के एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था. परंतु उनके जन्म की तिथि तथा जन्मस्थान को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद है. उनकी विश्वविख्यात कृति "गीतगोविन्द" जोकि भगवान श्रीकृष्ण तथा राधारानी के प्रेमप्रसंग पर आधारित महाकाव्य है, के अनुसार उनका जन्म उत्कल (उड़ीसा) के भुवनेश्वर के निकट स्थित केन्दुबिल्व (किन्डुबिल्वा) नामक ग्राम में हुआ था. परंतु बंगाल और बिहार (मिथिला) के विद्वानों ने भी उन्हें अपने अपने क्षेत्र के होने का दाबा किया है. बंगाल के लोग उन्हें वीरभूमि जिले के जयदेव केंदुली ग्राम का मानते हैं वहीं बिहार (मिथिला) के लोग वर्तमान झंझारपुर अनुमंडल के निकट स्थित केंदुली ग्राम के मानते हैं. मिथिला राज्य के इतिहास के अनुसार कर्नाट वंश के किसी राजा के समय झंझारपुर मिथिला राज्य की राजधानी हुआ करता था. हो सकता है उस राजा के शासन काल में महाकवि जयदेव यहाँ आए रहे हों. परंतु इस कथन को मिथक ही माना जाएगा. सोलहवीं शताब्दी के कई महत्वपूर्ण ग्रंथों तथा दस्तावेजों  के अनुसार महाकवि जयदेव को उड़ीसा का निवासी ही माना गया है. महाकवि जयदेव बंगाल के सेन वंशीय राजा लक्ष्मण सेन के राजकवि थे, इस में कोई शंका नहीं. राजा लक्ष्मण सेन के काल में ही उन्होंने अपनी अनमोल कृति "गीतगोविन्द" तथा "रति मंजरी" की रचना की. वे ओडिशा (उत्कल/उड़ीसा) के ही थे, इस बात की पुष्टि उड़ीसा में सर्वाधिक मात्रा में पाये जानेवाले उनके महाकाव्य "गीतगोविन्द" की हस्तलिखित पाण्डुलिपियों से होती है. हस्तलिखित ये पाण्डुलिपियाँ विभिन्न आकृतियों तथा आकारों में है. उड़ीसा राज्य के संग्रहालय में लगभग दो सौ दस पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित है. इन पाण्डुलिपियों में कई आकर्षक चित्रों से सज्जित हैं तो अधिकांश बिना चित्र के हैं. कुछ तार के पत्तों पर तो कुछ बांस के पत्तों पर हस्तलिखित हैं. कुछ पाण्डुलिपियाँ हस्तनिर्मित कागज पर भी लिखी हुई है. नौ पाण्डुलिपियाँ ऐसी हैं जिनपर माला, मछली तथा चाकू जैसी आकृतियाँ बनी हुई है.

    जयदेव एक घुम्मकड़ कवि थे. माना जाता है कि एक समय वे पुरी (जगन्नाथ पुरी) गये थे और उन्होंने भगवान जगन्नाथ मन्दिर की नर्तकी (देवदासी) पद्मावती से विवाह कर लिया था. परंतु कुछ विद्वानों की राय में पद्मावती देवदासी नहीं बल्कि भगवान जगन्नाथ के एक परम भक्त की पुत्री थी. कहानी चाहे जो भी हो, परंतु यह सत्य है कि उनकी पत्नी का नाम पद्मावती ही था, जो रूपवती के साथ साथ गुणवती भी थी. माना जाता है कि कवि जयदेव अपनी मंडली के साथ घूम घूमकर अपनी महान कृति "गीतगोविन्द" का पाठ अपनी सुमधुर आवाज में वाद्ययंत्रों की धुन पर किया करते थे. कहा जाता है कि उनकी जिह्वा पर साक्षात सरस्वती बिराजमान थी. महाकवि जयदेव उच्च कोटि के कवि के साथ साथ सिद्धहस्त गायक भी थे. उनकी स्वर लहरी में ऐसा जादू था कि उनके साथ साथ श्रोता भी भक्ति सागर में डूबकर राधाकृष्ण के प्रेम प्रसंगों पर आधारित गीतों को गाने लग जाया करते थे. अपने अद्भुत प्रेमकाव्य तथा अपनी परिकल्पना राधारानी को समस्त भारतवासियों के मनो मस्तिष्क में स्वयं महाकवि जयदेव ने ही अंकित करवाया था, इसमें रत्ती भर भी संदेह नहीं. "भक्ति विजय" महाकाव्य के रचयिता भक्तकवि संत महीपति महाकवि जयदेव को श्रीमद भागवत के रचयिता महामुनि व्यास का अवतार माना है. इसी तरह "भक्तमाल" महाकाव्य के रचयिता संत नाभादास ने ब्रजभाषा में महाकवि जयदेव की प्रशंसा करते हुए लिखा है -"कवि जयदेव कवियों के सम्राट हैं. जबकि अन्य कवि छोटे राज्यों के कवियों के समान हैं. तीनों लोकों में उनके "गीतगोविन्द" की आभा फैल रही है. यह रचना काम विज्ञान, काव्य नवरस तथा प्रेम की आनंदमयी कला का भंडार है. जयदेव वह सूर्य है जो कमलवत नारी पद्मावती (जयदेव की धर्मपत्नी) को सुख की प्राप्ति करवाते हैं. वे संत रूपी कमल-समूह के लिए भी सूर्य की भांति हैं."

  महाकवि जयदेव ने अपने महाकाव्य "गीतगोविन्द" के माध्यम से राधा और श्रीकृष्ण के निश्छल प्रेम के रूप में वैष्णव धर्म का व्यापक रूप से प्रचार प्रसार किया. इसलिए "गीतगोविन्द" को वैष्णव सम्प्रदाय में भक्ति एवं शृंगार रस का शास्त्र कहा जाता है. महाकवि जयदेव ने अपने "गीतगोविन्द" के माध्यम से तत्कालीन भारतीय समाज को, जो आदिगुरु शंकराचार्य के सिद्धांतों के अनुरूप आत्मा और मायावाद के जाल में उलझा हुआ था, राधा कृष्ण की रस युक्त लीलाओं की भावुकता और सरसता से जन जन के हृदय को आनंदित कर दिया.

    माना जाता है कि एकबार महाकवि जयदेव भगवान जगन्नाथ के दर्शनार्थ पुरी जा रहे थे. उसी यात्रा के दौरान उन्हें "गीतगोविन्द" लिखने की प्रेरणा मिली. और उनके मन में भगवान श्रीकृष्ण की निश्छल प्रेमिका के रूप में राधा रानी की छवि उभरने लगी. फिर तो राधा की उस छवि ने ऐसा विराट रूप धारण किया कि "गीतगोविन्द" के रूप में ऐसा महाकाव्य बन गया जिसकी तुलना विद्वानों ने श्रीमद्भागवत से करते हुए इसे भागवत कथा का दूसरा भाग मान लिया. कहते हैं पुरुषोत्तम क्षेत्र (पुरी धाम) में पहुँच कर उन्होंने भगवान जगन्नाथ का दर्शन किया, फिर किसी विरक्त संन्यासी की तरह एक पेड़ के नीचे बैठकर भगवान श्रीकृष्ण का भजन कीर्तन करने लगे. उनके इस भक्तिभाव से प्रेरित होकर उनके इर्दगिर्द संत महात्माओं का जमघट लग गया. और देखते ही देखते वह स्थान सत्संग स्थल में परिणत हो गया. उसी सत्संग में भगवान जगन्नाथ के परम भक्त अपनी रूपवती और गुणवती पुत्री के साथ पधारे. और वे युवा संत कवि जयदेव की भक्ति; तथा सुरीली भजन कीर्तन गायकी को देख सुन कर इतने प्रभावित हुए कि तत्क्षण ही उन्होंनें अपनी पुत्री पद्मावती का कन्यादान संत कवि जयदेव के साथ कर दिया. इस तरह श्री राधाकृष्ण की भक्ति में डूबे संत कवि जयदेव परिणय सूत्र में बंध गये और जीवनपर्यन्त गृहस्थ के साथ साथ संत का भी जीवन जीते रहे. 

       इस तरह महाकवि जयदेव ने अपनी कालजयी कृति "गीतगोविन्द" द्वारा राधाकृष्ण की शृंगार रस से परिपूर्ण भक्ति का महिमा गान एवं प्रचार प्रसार किया. महामहिम जयदेव के राधाकृष्ण निराकार हैं, इसलिए सर्वत्र व्याप्त हैं. वे शाश्वत सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हैं. अपने इस महाकाव्य में जयदेव ने व्यक्त, अव्यक्त, प्रकट, अप्रकट सभी तरह की लीलाओं का चित्रण किया है, जो अनुपम ही नहीं बल्कि अपने आप में अद्भुत है. इस काव्यकृति में राधाकृष्ण की केलि-कथाओं तथा उनकी अभिसार लीलाओं के अत्यंत रसमय चित्रण के साथ साथ प्रेम के भारतीय स्वरूपों का बड़े ही मनमोहक और कुशलता पूर्वक चित्रण किया है. गीतगोविन्द भारतीय साहित्य की ऐसा अनुपम वांग्मय है जिसकी मनोरम रचना शैली, भाव प्रवणता, सुमधुर राग रागनी, धार्मिक भाव तथा सुमधुर और कोमल कान्त पदावली साहित्यक रस पिपासुओं को अद्भुत आनंद प्रदान करती है. 

"गीतगोविन्द" को कुल बारह अध्यायों में बांटा गया है. तथा प्रत्येक अध्याय कोर्ट एक या एक से अधिक प्रभागों में विभाजित किया गया है. जिन्हें प्रबंध कहा जाता है. जो कुल मिलाकर कर चौबीस होते हैं. इन प्रबंधों में दोहे होते हैं, जिन्हें आठ भागों में बांटा गया है. इन आठ भागों को अष्टपदी कहा जाता है. गीतगोविन्द में इस महाकाव्य की मुख्य नायिका राधा तथा अष्ट नायिकाओं (गोपियों) के आठ भावों का क चित्रण बड़े ही मनमोहक तथा शास्त्रीय रूप में विस्तार से किया गया है. जिससे भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के कई भावों की उत्पत्ति हुई, जो नृत्यकला की प्रेरणा बनी. पुरी के भगवान जगन्नाथ मंदिर में महाकवि जयदेव के जीवनकाल से ही प्रत्येक रात्रि में "गीतगोविन्द" ओडिशी नृत्य शैली में प्रस्तुत किया जाता है. यह जगन्नाथ मंदिर की एक परंपरा सी बन गयी है, जो आज भी बिना किसी अवरोध के जारी है. 2009 में मुझे अपनी धर्मपत्नी सुचित्रा नीरव के साथ पुरी जाने का सुअवसर मिला तथा जगन्नाथ मन्दिर में आयोजित होने वाले गीतगोविन्द पर आधारित ओडिशी नृत्य, गीत तथा संगीत का आनंद लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. केरल के संगीतकारों ने गीतगोविन्द के अष्टपदों को मंदिरों में गाये जानेवाले संगीत रूप में रुपांतरित किया है, जिसे सोपान संगीतम कहा जाता है. 

 यही कारण है कि सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि विदेशों के भी बड़े बड़े विद्वानों ने "गीतगोविन्द" को विश्व के महानतम काव्यों में से एक माना है. संस्कृत साहित्य के मर्मज्ञ डा० ए० बी० कीथ ने अपनी पुस्तक "संस्कृत साहित्य का इतिहास" में महाकवि जयदेव की इस कृति को अप्रतिम काव्य माना है. इसी तरह विलियम जोन्स ने भी अपनी पुस्तक "ऑन द म्यूजिकल मोड्स ऑफ द हिन्दुज" में गीतगोविन्द को "पोस्टोरल ड्रामा" अर्थात "गोप नाट्य" के रूप में माना है. वहीं जर्मनी के विद्वान ने इसे "लिरिक ड्रामा" अर्थात "गीतिनाट्य" माना है.

महाकवि जयदेव की कालजयी कृति "गीतगोविन्द" से प्रभावित होकर ही इस महाकाव्य की नायिका राधारानी के प्रेम सागर में डूबकर लगभग चौदहवीं-पंद्रहवी शताब्दी में भक्तों ने राधावल्लभ सम्प्रदाय की स्थापना की. (राधा बल्लभ संप्रदाय पर विस्तार से जानकारी दी जाएगी.

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़ें - "श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधारानी की वास्तविकता.")

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