भक्तिकालीन साहित्यकार


 -रामबाबू नीरव

मिथिला विभूति महाकवि विद्यापति शृंगार रस काव्य परंपरा के साथ साथ भक्ति रस काव्य परंपरा के भी मजबूत स्तंभ थे. माना जाता है कि वे मूल रूप से शैव मतालम्बी थे. फिर भी उन्होंने अपनी काव्यकृतियों में राधाकृष्ण की प्रणय लीलाओं का चित्रण करके एक कीर्तिमान स्थापित किया. राधा और कृष्ण के प्रति इनकी असीम श्रद्धा और भक्ति को देखते हुए इन्हें मिथिला का जयदेव माना जाता है. इनकी कृतियाँ (मुख्य रूप से काव्य) मिथिला की लोकभाषा मैथिली में लिखी गयी है. इसलिए इनकी कृतियाँ आम लोगों के हृदय में अपना स्थान बनाने में, सफल रही. इन्होंने अपनी कृतियों द्वारा मैथिली साहित्य के भंडार को लबालब भर दिया है. मैथिली भाषा बंगला भाषा से मिलती जुलती है, इसलिए बंगाल के कुछ विद्वान उन्हें बंगाली मानते हैं, परंतु यह मात्र उनका बहम है. विद्यापति मन से शैव (शिव के उपासक), कर्म से वैष्णव (विष्णु यानि कृष्ण के भक्त) तथा व्यवहार में शाक्त (शक्ति की देवी माँ दुर्गा के पुजारी) थे.  यानि इन्हें शैव, वैष्णव तथा शाक्त मतों का सेतु माना जाता है. मिथिला वासियों को "देसिल बयना, सब जन मिट्ठा" लोक सुक्ति देकर इन्होंने समस्त मिथिला वासियों को एक सूत्र में बांधे रखने का भगीरथ प्रयास किया. ये मात्र सृजन कर्ता ही नहीं थे, बल्कि राधा कृष्ण के प्रेम की चासनी में डूबी हुई शृंगार रस से ओतप्रोत अपनी काव्यकृतियों को महाकवि जयदेव की तरह सुमधुर आवाज में गा गा कर सुनाने में भी पारंगत थे. इसलिए इनकी काव्य कृतियाँ लोगों के मनो मस्तिष्क में इस तरह से पैठ गयी कि आज भी मिथिला वासियों को उनकी कृतियाँ कंठस्थ है. खासकर मिथिला की महिलाएँ हर पावन अवसर उनके गीतों को सस्वर गाया करती हैं. 

मिथिलांचल की शायद ही ऐसी कोई महिला होगी जिसे विद्यापति रचित माँ भगवती का यह भजन स्मरण न हो -

"जय जय भैरवि असुर भयाउनि

पशुपति भामिनी माया....!"

कहा जाता है कि विद्यापति  की सुमधुर आवाज में इतनी मीठास थी कि उन्हें मैथिली कवि कोकिल की संज्ञा दी गयी. मिथिला का नाम विश्व क्षितिज पर स्थापित करने वाले महाकवि की जन्म तिथि पर काफी विवाद है. कुछ विद्वान 1352 ई० को इनका जन्म वर्ष मानते हैं, जबकि अधिकांश विद्वानों के मतानुसार उनका जन्म 1380-82 में हुआ था. मेरे समझ से यह दूसरी मान्यता ही सही लगती है. क्योंकि ओइनिवारा (सुगौना) वंश के चौथे राजा कीर्ति सिंह देव ने 1402 ई० से लेकर 1410 ई० (मात्र 8 वर्ष) तक मिथिला राज्य पर शासन किया था. और राजा कीर्ति सिंह के जीवन पर आधारित ग्रंथ कीर्तिलता और कीर्तिपताका की रचना विद्यापति ने बीस या बाईस वर्ष की उम्र में की थी. यदि उनका जन्म वर्ष 1352 ई० माना जाए तब तो सब गड़बड़ हो जाएगा, क्योंकि मिथिला में ओइनिवार राजवंश की स्थापना राजा कामेश्वर ठाकुर ने 1325 ई० में की थी और उन्होंने 29 वर्षों तक शासन किया था. यानि 1325 से लेकर 1354 तक उन्होंने शासन किया. इसतरह राजा कामेश्वर ठाकुर और राजा कीर्ति सिंह देव के शासन काल में  77 वर्षों का अंतर होता है. इसलिए महाकवि विद्यापति का जन्म वर्ष 1350 या 1352 ही मानना उचित होगा. हाँ, यह निर्विवाद सत्य है कि उनका जन्म वर्तमान दरभंगा जिला के बिस्फी डीह (विस्फी) नामक ग्राम में ही हुआ था. वर्तमान में बिस्फी प्रखंड मुख्यालय के साथ साथ विधानसभा क्षेत्र भी है. माना जाता है कि उनके पितामह देवादित्य ठाकुर तथा पिता गणपति ठाकुर भी संस्कृत तथा अवहट्ठ भाषा के प्रकांड विद्वान थे. इस तरह महाकवि विद्यापति को विद्वता तथा साहित्य साधना की भावना विरासत में मिली. इनके दोनों पूर्वज मिथिला राज्य के ओइनवार अथवा ओइनिवारा, जिसे सुगौना राज्य के नाम से भी जाना जाता है, के प्रथम राजा कामेश्वर ठाकुर के समय से ही दरबार में राजपुरोहित हुआ करते थे. वहीं इनके पिता गणपति ठाकुर राजा कीर्ति सिंह के कार्यकाल में युद्ध और शांति मंत्री थे. बाल्यकाल से ही विद्यापति अपने पितामह तथा पिता के साथ राजदरबार में जाया करते थे. बाल्यवस्था से ही वे मेधावी थे. उन्होंने ओइनिवारा राजवंश के लगभग छ: पीढ़ियों के राजाओं के कार्यकाल को देखा था और उन राजाओं की सेवा की थी. उनमें छुपी हुई कवित्व प्रतिभा को राजा कीर्ति सिंह ने उसी समय पहचान लिया था और वे  विद्यापति को प्रोत्साहित करने लगे. इस वंश के भावी (सातवें) राजा शिवसिंह देव इनके हमउम्र थे, इसलिए उनसे इनकी अच्छी घनिष्ठता हो गयी. राजा कीर्ति सिंह देव के बाद दो और राजा भवसिंह देव (भवेश) तथा देव सिंह हुए. परंतु ये दोनों अल्पकालिक राजा हुए. सातवें राजा शिवसिंह देव  जब राजागद्दी पर बैठे तब उन्होंने अपने मित्र महाकवि विद्यापति को न सिर्फ राजकवि नियुक्त किया बल्कि अपना मुख्य सलाहकार भी बनाया. माना जाता है कि विद्यापति  साहित्य साधना के साथ साथ राज प्रबंधन में भी निपुण थे. अपनी वाकपटुता तथा कवित्व

प्रतिभा के बल पर वे किसी को भी सम्मोहित कर लिया करते थे. उनकी स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर राजा शिवसिंह देव ने उनके गाँव बिस्फी का पूरा परगना उनके नाम कर दिया. आज भी बिस्फी की अधिकांश जमीनें महाकवि विद्यापति के वंशजों की मल्कियत है. बिस्फी का प्रखण्ड मुख्यालय तथा उनके नाम पर स्थापित पुस्तकालय उनकी ही भूमि पर स्थापित है. प्रखण्ड परिसर में ही उनकी प्रतिमा स्थापित है. चूंकि बिस्फी हमारे पुपरी से मात्र 32 किलोमीटर पूरब दक्षिण दिशा की ओर अवस्थित है. इसलिए मैं महाकवि विद्यापति की जन्मभूमि का  दर्शन अनेकों बार कर चुका हूँ. माना जाता है कि महाकवि विद्यापति ने कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका नामक ग्रंथों की रचना जहाँ अपने पूर्वजों के आश्रयदाता राजा कीर्तिसिंह की स्तुति गायन के रूप की थी, वहीं राधाकृष्ण के प्रेम रस में डूबी हुई काव्य कीर्ति पदावली की रचना अपने मित्र सह आश्रयदाता राजा शिवसिंह देव की प्रशंसा के रूप में की. उनके आलोचकों का मानना है कि विद्यापति ने अपनी पदावली में राजा शिवसिंह को श्रीकृष्ण तथा उनकी धर्मपत्नी लखिमा देवी को राधा मानकर ही इस महाकाव्य की रचना की. जहाँ उनकी पूर्व की दोनों कृतियाँ अवहट्ठ भाषा (मैथिली का अपरिष्कृत रूप) में है, वहीं पदावली शुद्ध मैथिली भाषा में है. मैथिली भाषा को हिन्दी भाषा का ही एक क्षेत्रीय रूप माना जाता है. जहाँ अधिकांश विद्वान ने पदावली को शृंगार रस तथा भक्ति रस का मिला जुला रूप माना है वहीं हिन्दी के पुरोधा आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे विशुद्ध रूप से शृंगार रस की कविता मानते हैं. इस काव्य ग्रंथ में महाकवि विद्यापति ने नायिका राधा के नख से लेकर शिख तक का वर्णन उन्मुक्त भाव से किया. जहाँ शृंगार रस के अन्य कवि नायिका की सुन्दरता तथा उसके नव यौवन का चित्रण नख से आरंभ करते हैं, वहीं महाकवि विद्यापति की दृष्टि नवयौवना नायिका (राधा) के पयोधरों (वक्षों) पर टिकी है -

"पीन पयोधर दूबरि गता

मेरु उपजल कतक लता....!" इसलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे विद्वान पदावली को भक्ति रस का काव्य नहीं मानते. वे इस काव्य को राजा शिवसिंह का स्तुति गायन मानते हैं. 

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़ें "महाकवि विद्यापति और उनकी कृतियाँ.)

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