भक्तिकाल के कवि और संत

-रामबाबू नीरव


भारत में भक्तिकाल के प्रणेता महाकवि जयदेव को माना जाता है और उस भक्ति काल की बुनियाद (नींब) को मजबूती प्रदान करने में कवि कोकिल विद्यापति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, वहीं भक्ति आंदोलन के सूत्रधार के रूप में चैतन्य महाप्रभु का नाम लिया जाता है. जयदेव और विद्यापति भगवान श्रीकृष्ण के साथ साथ उनकी प्रेयसी राधारानी के भी भक्त थे और उनकी भक्ति में अनेकों काव्य ग्रंथों की रचना की. परंतु चैतन्य महाप्रभु की आस्था एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण में थी. और उनकी भक्ति में ही उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया. वैष्णव धर्म के भक्ति योग को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी. चैतन्य महाप्रभु के विषय में जानने से पूर्व जानते हैं बांग्ला भाषा के भक्त कवि चण्डीदास के बारे में, जिन्होंने जयदेव और विद्यापति की तरह राधा और कृष्ण के प्रेम की भक्ति परंपरा को आगे बढ़ाया. माना जाता है कि बंगाल में वैष्णव संप्रदाय के कवि के रूप में दो चण्डीदास हो चुके हैं, एक चण्डीदास मिथिला के विद्यापति के समकालीन तथा चैतन्य महाप्रभु से पूर्व हुए थे और दूसरे चैतन्य महाप्रभु के समकालीन थे. 

इन दोनों के विषय में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती. हाँ, चैतन्य महाप्रभु के कुछ शिष्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथों में इनके बारे जानकारी मिलती है. उन ग्रंथों में विख्यात है - कृष्णदास कविराज द्वारा रचित चैतन्य चरितामृत तथा लोचन दास द्वारा रचित - चैतन्य मंगल. इन दोनों ग्रंथों के अनुसार प्रथम चण्डीदास ने जहाँ राधा कृष्ण की भक्ति में बांग्ला भाषा में वैष्णव पदावली की रचना की, वहीं दूसरे चण्डीदास ने बांग्ला भाषा में ही भगवान श्रीकृष्ण के कीर्तन के रूप में महाजन पदावली की रचना की. कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु कवि कोकिल विद्यापति तथा दोनों चण्डीदास की पदावलियों को सुन सुनकर प्रसन्न हुआ करते थे.

चैतन्य महाप्रभु का जन्म कवि कोकिल विद्यापति तथा प्रथम चण्डीदास के जन्म से एक शताब्दी बाद पश्चिम बंगाल के नादिया जिलान्तर्गत नवद्वीप गाँव, (जो वर्तमान में मायापुर के नामक से जाना जाता है) में फाल्गुन पूर्णिमा (होलिका दहन) के दिन यानि 18 फरबरी 1486 ई० को हुआ था. इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ मिश्र तथा माता का नाम श्रीमती शचि देवी था. इनके माता पिता भी वैष्णव मतावलंबी थे. माना जाता है कि मात्र पंद्रह वर्ष की अवस्था में ही इनका विवाह लक्ष्मी देवी के साथ हो गया. परंतु विवाह के कुछ ही दिनों पश्चात सर्पदंश के कारण उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया. फिर इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के संग हुआ. और विष्णु प्रिया जीवन पर्यंत उनके साथ रही.

चैतन्य महाप्रभु के समय का वह दौर था जब भारत में तत्कालीन मुस्लिम शासक लोदी वंश के पतन के बाद मुगल साम्राज्य तेजी से अपना वर्चस्व कायम करने को व्यग्र था. हिन्दुओं के मन में मुस्लिम शासकों के प्रति न सिर्फ असंतोष तथा भय का भाव था. बल्कि हालात ऐसे बन गये थे कि भारत की बहुसंख्यक हिन्दू प्रजा किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ चुकी थी. ऐसे समय में हिन्दुओं को एकजुट करने तथा उनके मन से असहिष्णुता एवं असंतोष के भाव को दूर करने के लिए एक ऐसे हिन्दूवादी सम्प्रदाय की आवश्यकता थी, जिसमें प्रेम, एकता और भाईचारे का संदेश छुपा हो और जिस भक्ति को सहज रूप में प्रजा आत्मसात कर सके. उस प्रेम रूपी भक्ति का मार्ग महाकवि जयदेव ने अपने महाकाव्य "गीतगोविन्द" के माध्यम से दिया. इसी परंपरा को आगे बढ़ाया कवि कोकिल विद्यापति तथा बांग्ला भाषा के कवि चण्डीदास ने. इन महान विभूतियों ने वैष्णव सम्प्रदाय को राधा कृष्ण के रूप में ऐसा भक्ति सूत्र दे दिया जो पूरे जनमानस में अमिट छाप छोड़ गया. श्रीकृष्ण की भक्ति का यह मार्ग इतना सहज, सरल और संगीतमय था कि हिन्दू धर्मावलंबी जात पात से ऊपर उठकर एक सूत्र में बंधते चले गये. यदि हम गहनता पूर्वक भक्तिकाल के साहित्य का अध्ययन करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि उस काल में सर्वाधिक राधाकृष्ण के प्रेम कथा पर आधारित ग्रंथों की ही रचना हुई. साथ ही श्रीकृष्ण भगवान की भक्ति पर अधिक जोर दिया गया. बाद में (बादशाह अकबर के समय में) गोस्वामी तुलसीदास जी ने बाल्मीकि कृत रामायण के आधार पर अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना की तब श्रीराम के भक्तों की एक शृंखला बनती चली गयी. बावजूद इसके भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं ने जन मानस पर ऐसा प्रभाव डाला कि अनेकों मुस्लिम साहित्यकारों ने भी उनकी भक्ति में लीन होकर राधा कृष्ण के प्रेम प्रसंग पर आधारित महाकाव्यों की रचना कर डाली. उन कृष्ण भक्त कवियों में प्रमुख थे - रसखान (सैयद इब्राहिम, इन्होंने श्रीमद् भागवत का फारसी में अनुवाद किया था.) आलम शेख, उमर अली, नशीर मामूद, मल्लिक मुहम्मद जायसी आदि. (इन मुस्लिम कृष्ण भक्त कवियों पर अलग से आलेख दिया जाएगा.) 

माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु ने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की, हाँ उन्होंने आठ भक्ति प्रार्थनाएं अवश्य लिखी थी, जिन्हें "शिक्षष्टकम" के नाम से जाना जाता है. इसके साथ ही भक्ति का एक ऐसा सूत्र दिया जिसमें श्रीकृष्ण के साथ साथ श्रीराम की भक्ति भी समाहित थी, वह सूत्र यह है-

"हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण  कृष्ण हरे हरे! 

हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे !!" (यही सूत्र आगे चलकर "हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे

हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे." में परिणत हो गया.

चैतन्य महाप्रभु के अनेकों नाम थे. उनके बचपन का नाम था - विश्वम्भर मिश्र. चूंकि उनका जन्म एक नीम के पेड़ के नीचे हुआ था. इसलिए उनका दूसरा नाम निमाई पंडित पड़ा. उनका रंग काफी गोरा था इसलिए  उन्हें गोरांग के नाम से भी लोग पुकारते थे. माना जाता है कि जब वे किशोरावस्था में ही‌ थे तब ही उनके पिताजी का देहांत हो गया. पिताजी के श्राद्ध कर्म के दौरान वे पिंडदान हेतु बिहार राज्य के गया शहर में आये थे. यहीं पर ईश्वरपुरी (माधवेन्द्रपुरी के शिष्य) नामक संत से उनकी मुलाकात हुई. उसी संत ने उन्हें आत्मा की शान्ति हेतु "कृष्ण.... कृष्ण" का जाप करने का सुझाव दिया. और ईश्वरपुरी ने उन्हें अपने गुरु माधवेन्द्रपुरी से मिलने को कहा. माधवेन्द्र पुरी ने ही उन्हें दीक्षा दी और 24 वर्ष की अवस्था में वे संन्यासी बन गये. परंतु कवि कर्णपुर ने इसका खंडन करते हुए स्वयं द्वारा रचित "चैतन्य चन्द्रोदय" में केशव भारती को विशम्भर मिश्र उर्फ निमाई मिश्र का प्रथम गुरु माना है. उन्होंने ही उनका नाम कृष्ण चैन्य रखा, जो बाद में चैतन्य महाप्रभु बन गये. संन्यास लेने के पश्चात चैतन्य महाप्रभु जब गृहत्याग करने लगे तब उनकी माता जी ने कहा -"पुत्र तुम पुरी चले जाओ, वहीं भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर में रहकर अपने आराध्य भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करना. इस तरह तुम हमलोगों के निकट रहोगे." उन्होंने अपनी माँ की आज्ञा का पालन किया और संन्यासी के रूप में अपनी कृष्ण भक्ति का शुभारंभ पुरी के भगवान जगन्नाथ मन्दिर से किया. अपने गुरु केशव भारती की प्रेरणा से ही उन्होंने गौरांग वैष्णव सम्प्रदाय की आधारशिला रखी. उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्य देव मान लिया और उनकी भक्ति में लीन हो गये. चैतन्य महाप्रभु ने राधा की पूजा अर्चना की थी अथवा नहीं, यह सही सही ज्ञात नहीं होता. फिर भी वृंदावन के उनके शिष्यों ने राधा को कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति (आनंद की उर्जा) के रूप स्वीकार किया तथा उन्हें आदि दिव्य माॅं के साथ जोड़ कर उनकी आराधना आरंभ की. माना जाता है कि सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभु, अद्वैताचार्य तथा सनातन गोस्वामी इनके शिष्य बनें. फिर इनके शिष्यों की संख्या बढ़ती चली गयी. 

पुरी में उन्होंने भजन, कीर्तन और नृत्य के साथ भगवान कृष्ण-आराधना की एक अद्भुत शैली की रचना की. इस कीर्तन में मृदंग, झांझ, मजीरा, ढ़ोल तासा आदि वाद्ययंत्रों की धुन पर अपने स्वरचित मंत्र -"हरेकृष्ण, हरेकृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ! हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे !! को अपनी कीर्तनिया मंडली के साथ गाते हुए वे स्वयं पिताम्बर धारण करके मनमोहक नृत्य किया करते थे. कृष्ण भक्ति की इस शैली ने सर्फ बंगाल मैं ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक में वैष्णव संप्रदाय का गहरा प्रभाव डाला.

माना जाता है कि चैतन्य महाप्रभु अचित्य भेद, अभेद तत्व के वेदान्तिक दर्शन के भी मुख्य प्रवर्तक थे. इनके द्वारा स्थापित गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय बाद में ब्रह्म माधव गौड़ीय सम्प्रदाय के नाम से भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली वृंदावन में प्रचलित हुआ.

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़ें श्री राधावल्लभ सम्प्रदाय एवं हित महाप्रभु की गाथा.)

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