मैं अमेरिका में पिछले 38 वर्षों से हूँ। 15 सितम्बर 1986 के दिन जब मैं पहली बार हवाई जहाज़ में बैठा था, तब सब जगह अंग्रेज़ी का वर्चस्व था। हिन्दी/देवनागरी का नाम-ओ-निशान नहीं था। विदेशी परिवेश में हिन्दी कहीं थी तो सिर्फ बी-बी-सी की हिन्दी सेवा में। 

आज जब भारत जाता हूँ तो हवाई जहाज़ में टीवी स्क्रीन पर हिन्दी भाषा की फ़िल्मों के अलावा हिन्दी भाषा में निर्देश, सूचनाएँ, गन्तव्य स्थान, वर्तमान तापमान, समय आदि की जानकारी मन को बहुत सुकून दिलाती हैं।

लगता है हमारी हिन्दी को वह स्थान मिल गया है जिसकी हमें कभी आशा भी नहीं थी। 

यह कैसे हो गया? क्या संसद में बहस हुई और बिल पारित हो गया? क्या कहीं कोई दंगा नहीं हुआ? लाठियाँ नहीं बरसाई गईं? टीवी पर चीख़ना-चिल्लाना नहीं हुआ कि हम पर हिन्दी थोपी जा रही है?

बिना किसी आंदोलनकारी के, बिना किसी नेता के यह कैसे सम्भव हुआ? कोई चमत्कार है?

इन सबका एक ही जवाब है: उपभोक्ता।  

जैसी उपभोक्ता की रूचि होती है, वैसा ही बाज़ार का रूख चलता है। हिन्दी फ़िल्में, हिन्दी में विज्ञापन सब इस बात के प्रमाण हैं। 

यही कारण है कि गुगल, माइक्रोसॉफ़्ट, फ़ेसबुक, ट्विटर आदि पर हिन्दी एवं अन्य भाषाओं का प्रादुर्भाव है। और यह विकास सकारात्मक है। यह सबके हित में हैं। विश्व का हर विकास इसी प्रकार होता आया है। 

आज चिन्ता का विषय है तो सिर्फ यह कि जो सृजन कर रहे हैं हिन्दी में, उनके लिए हिन्दी सिर्फ सृजन तक ही सीमित हैं। आमतौर पर, दैनिक गतिविधियों में, अनौपचारिक सम्वाद में उन्हें हिन्दी एक बोझ लगती है। एक बाधा। एक ऐसी भाषा जो मेहनत माँगती है। मेहनत इंसान तभी करता है जब उसे इसमें कोई लाभ दिखे। कविता लिखे, कहानी लिखे, कोई भी रचना लिखे - दो-चार व्यक्ति वाह-वाह तो करेंगे। भले ही पारितोषिक न मिले। तब मेहनत जायज़ है। वरना किसी को बधाई देनी हो, यात्रा का विवरण देना हो, परचूनी सामान ख़रीदने की सूची बनानी हो -तो हिन्दी एक अनावश्यक रोड़ा बन जाती है। 

यह तो रही सृजनकर्ता की बात। जो पढ़ रहे हैं, वे हिन्दी को देवनागरी में पढ़ने तक ही सीमित रखते हैं। लिखते सिर्फ रोमन में हैं। उन्हें लगता है कि वे अंग्रेज़ी सीख रहे हैं, विकसित हो रहे हैं। गाँव वाले गँवार नहीं रह गए हैं। कोई देवनागरी में लिखने की ग़लती भी कर दे तो पढ़ने वाले हँसी उड़ाते हैं कि गँवार ही ठहरे। 

देवनागरी को औपचारिक रूप तक ही सीमित रखने का दुष्परिणाम यह है कि जितना तकनीकि दृष्टि से विकास होना चाहिए उतना नहीं हो रहा है। जब किसी का उपयोग बढ़ता है तभी समृद्धि होती है। 

विश्व रंग के आयोजनकर्ताओं ने भी जब निमन्त्रण भेजे तो अंग्रेज़ी में भेजे। जबकि यह औपचारिक पत्राचार था। क्या विवशता रही, समझ नहीं पाया। अंतरराष्ट्रीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के निमन्त्रण भी अंग्रेज़ी में थे। भारत का कोई भी दूतावास आज तक अपने अधिकारिक लैटरपैड पर देवनागरी में कुछ भी लिख नहीं पाया। 

साधन-संसाधन बहुत हैं। इच्छाशक्ति की कमी है। दूतावास, विश्व हिन्दी सम्मेलन, विश्व रंग - इनका प्रयोजन धन कमाना नहीं है। हिन्दी में निमन्त्रण भेजने या न भेजने से कोई लाभ-हानि नहीं है। 

जहाँ धन नहीं वहाँ विकास नहीं। 

इसीलिए हिन्दी मात्र सृजन तक सीमित रह गई है। फ़िल्में भी हिन्दी में केवल बनती हैं। उनकी समीक्षा, उनका विश्लेषण सब अंग्रेज़ी में होता है। सारे साक्षात्कार, इनाम - सब अंग्रेज़ी में। 

जब तक हिन्दी सिर्फ सृजनकर्ताओं तक सीमित रहेगी, इसका विकास भी सीमित रहेगा। गुगल ने कई सुविधाएँ मुहैया करवाई हैं, जिनसे देवनागरी में लिखा जा सकता है। लेकिन उनका उपयोग अभी भी किंचित कष्टदायक है। उन्हें और आसान बनाना होगा। लेकिन जब तक आम जनता उन्हें काम में नहीं लाएगी, कठिनाइयाँ उजागर नहीं होगी, और लिहाज़ा हल भी नहीं इजाद होंगे। 

भारतीय सरकार चाहती है कि हिन्दी का प्रादुर्भाव बढ़े। वह हर साल कई अनुदान प्रदान करती हैं सैंकड़ों संस्थानों को। हर संस्थान उच्चस्तरीय योजनाएँ बनाता है। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। वे अपने गिने चुने मित्रों से विमर्ष तक ही सीमित रह जाते हैं। यहाँ भी वही समस्या है। जहाँ उपभोक्ताओं से धन कमाने की कोई प्रक्रिया नहीं, वह योजना कुछ साल चल तो जाती है पर परिणाम के नाम पर विफलता ही हाथ लगती है। 

सरकार का भी दोष नहीं। वे अनुदान के अलावा कुछ नहीं कर सकती। संस्थानों का भी कोई दोष नहीं। उनकी भी अपनी सीमाएँ हैं। 

बचे बस हम और हमारे उपकरण। 

भारतीय केन्द्र सरकार हिन्दी के प्रति कितनी कटिबद्ध है यह जानना हो तो आप आकाशवाणी सुनने लें। सिर्फ दो ही भाषा में हर घंटे समाचार प्रसारित होते हैं। अंग्रेज़ी और हिन्दी। 

मैं बहुत से दक्षिण भारतीयों से मिला हूँ, जिन्होंने स्वीकार किया है कि आकाशवाणी के समाचार सुनकर जाने-अनजाने वे हिन्दी समझने लग गए। 

सो बहरहाल हिन्दी/देवनागरी फल-फूल रही है सुनने-सुनाने वाले क्षेत्र में - रेडियो और यूट्यूब पर। रेडियो पर आर-जे छाए हुए हैं। यूट्यूब पर तमाम वीडियों हैं - मुशायरों के, कवि सम्मेलनों के, फ़िल्मों गीतों के, भजनों के, चुटकुलों के, समाचारों के, साक्षात्कारों के। 

इन्टरनेट पर पढ़ने की भी बहुत सामग्री हैं। तुलसीदास से लेकर प्रेमचन्द तक, जैनेन्द्र से लेकर राजेन्द्र यादव तक। निराला से लेकर नीरज तक। जिन्हें पढ़ना हर कोई चाहता है, पर पढ़ता नहीं है। मानो जैसे घर में कोई चीज़ पड़ी हो तो सुकून रहता है कि हम एक मूल्यवान वस्तु के मालिक हैं, लेकिन उसे तिजोरी में बन्द रखते हैं। निकालते हुए डरते हैं कि कहीं ख़राब न हो जाए या कोई चुरा न ले। 

वीकिपीडिया, जो कि अधिकांश ज्ञान का अधिकृत स्रोत माना जाता है, वहाँ भी हिन्दी में सामग्री बढ़ रही है। लेकिन बहुत कम मात्रा में। पाठकों में हिन्दी के प्रति उदासीनता है। आज का पाठक दोनों भाषाओं में पारंगत है। इसलिए जब अंग्रेज़ी में सामग्री मिल जाती है तो हिन्दी की तरफ़ फूटी आँख से भी नहीं देखता है। 

ज़रूरत है उन पाठकों की जो कि अपनी मिट्टी से जुड़े हो, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में काम न कर रहे हो, अंग्रेज़ी से सुपरिचित न हो। 

इस दिशा में गुगल सराहनीय काम कर रही है। उसने अपने तमाम इंटरफ़ेस हिन्दी में परिवर्तित कर लिए है ताकि शुरू से लेकर अंत तक सब सवाल/जवाब/मेन्यू हिन्दी में हो। जितना ज़्यादा इनका उपयोग होगा उतना ज़्यादा सुधार होगा। 

अनुवाद की सेवा भी काफ़ी सराहनीय है। इससे जब भी कोई सामग्री सामने आती है उसे सहज भाव से हिन्दी में पढ़ा-समझा जाता है। और पाठक जुड़ा रहता है, हताश नहीं होता और उसका ज्ञानवर्धन भी होता है। 

यह सब उपभोक्ताओं की रूचि को देखकर सम्भव हुआ है। लेकिन चूँकि सुविधाएँ प्रदान की जा रही है एक मशीन द्वारा इसलिए यह सेवाएँ सिर्फ हिन्दी तक सीमित न रहकर अन्य भाषाओं में भी की जा रही हैं। जो काम एक भाषा में हो सकता है वह अन्य भाषाओं में करना आसान होता जाता है। पहले क़दम, पहले प्रयास, पहली भाषा में जो चुनौतियाँ सामने आती हैं  वे अगले पड़ाव, अगली भाषा में कम होती जाती हैं। जैसे कि कैलकुलेटर को हर गुणा-भाग नहीं सीखाना पड़ता है। एक अलगोरिदम है जो हर गुणा-भाग के लिए लागू होता है। यह बात भाषाई सेवाओं पर भी लागू होती है। एक बार देवनागरी का कीबोर्ड तैयार हो गया, सारी सहोदरी भाषाओं के कीबोर्ड बनाने में आसानी हो जाती है। 

यहाँ एक और बात विचारणीय है कि भारत के हिन्दी बाहुल्य प्रदेशों में विज्ञान की शिक्षा हिन्दी में सहज सुलभ है। लेकिन कम्प्यूटर की शिक्षा के लिए आज भी अंग्रेज़ी आवश्यक है। हिन्दी में शिक्षक चाहे कितना ही समझा दे कि जावा, सी# आदि भाषाएँ किस काम की है, उनकी क्या ख़ूबियाँ हैं, वे एक-दूसरे से कैसे भिन्न हैं, आदि। लेकिन अन्ततः कम्प्यूटर प्रोग्राम लिखने के लिए अंग्रेज़ी/रोमन का ज्ञान आवश्यक है। यह एक बाधा है उन तमाम युवाओं के लिए जो इस क्षेत्र में योगदान देना चाहते हैं, लेकिन अंग्रेज़ी से कोसो दूर हैं। इस कारण वे अभावग्रस्त होकर केवल सोशियल मीडिया तक ही सीमित रह पाते हैं। 

यह समस्या सिर्फ हिन्दी की ही नहीं है। विश्व की तमाम भाषाएँ इस समस्या से जूझ रही हैं। थक हार कर सबको अंग्रेज़ी के सामने घुटने टेकने पड़ते हैं। यही कारण है कि सिर्फ ऊँचे तबके के और अत्यंत मेधावी छात्र ही इस क्षेत्र में आगे बढ़ पाते हैं। बाक़ी सब हीन भाव के शिकार हो जाते हैं। 

क्या कोई भारतीय ऐसा पैदा होगा जो इस सूरत को बदल सकेगा?  

यह कार्य भी कोई इतना जटिल नहीं है। ज़रूरत है तो सिर्फ एक अनुवादक की जो हिन्दी में लिखे निर्देशों को सी# या किसी ओर कम्प्यूटर भाषा के मूल निर्देशों में परिवर्तित कर दे। 

कोई लिनस टोर्वाल्ड्स ही ऐसा कर सकता है। 

राहुलजैसी उपभोक्ता की रूचि होती है, वैसा ही बाज़ार का रूख चलता है ।

- राहुल उपाध्याय, सिएटल, अमेरिका 

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