(प्रथम किश्त) 


             -रामबाबू नीरव

सूरदास कृष्णभक्त कवि, संगीतज्ञ एवं गायक थे. उन्हें हिन्दी साहित्याकाश का चमचमाता हुआ सितारा तथा भावुक एवं ब्रजभाषा का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है. वे वल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक वल्लभाचार्य महाप्रभु के परम प्रिय शिष्य तथा उनके पुत्र सह शिष्य स्वामी विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित आठ श्रीकृष्ण भक्त कवियों के समूह *अष्टछाप* के प्रथम कवि थे. उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से लेकर रासलीलाओं (राधा एवं गोपियों के संग रचाये जाने वाले प्रेम लीलाओं) तक का अद्भुत चित्रण अपने काव्य में इस सूक्ष्मता, सरलता तथा वात्सल्य पूर्ण भाव से किया है कि पढ़ते समय पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है जैसे भगवान श्रीकृष्ण की छवि ऑंखों के समक्ष सजीव हो उठी हो. माना जाता है कि उनका जन्म 1478 ई० के आसपास मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित "रूनकता" नामक ग्राम में हुआ था. कुछ विद्वानों का कहना है कि उनका जन्म "सीमी" नामक गाँव के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था.

*जन्म तिथि एवं जन्म स्थान को लेकर मतभेद*

सूरदास जी के जन्म तिथि एवं जन्म स्थान को लेकर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है. जहाँ कुछ विद्वानों का मत है कि इनका जन्म 1478 ई० के आसपास हुआ था, वहीं कुछ विद्वान उनकी कृति "साहित्य लहरी" का हवाला देते हुए यह सिद्ध करते हैं कि उनका जन्म 1540 वि०सं० में हुआ था. वल्लभ सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि सूरदास जी के गुरु वल्लभाचार्य महाप्रभु उनसे मात्र दस दिनों के बड़े थे. वल्लभाचार्य जी की जन्म तिथि उसी वर्ष वैशाख कृष्ण एकादशी मानी जाती है. इस हिसाब से सूरदास जी का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी यानि संवत 1535 वि० के सन्निकट ठहरता है. इस संबंध में विद्वानों का अपना अपना मत है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि सूरदास जी का जन्म 1540 वि० सं० तथा देहावसान 1620 वि० सं० में हुआ था. 

*सूरदास जी का बचपन*

संत सूरदास जी पर लिखे गये सभी महत्वपूर्ण पुस्तकों के आधार पर माना गया है कि उनके पिता का नाम पं० रामदास सारस्वत तथा माता का नाम श्रीमती यमुना दास था. उनके बचपन का नाम मदन मोहन तथा सूरध्वज था. सूरदास जी जन्मजात अंधे थे, ऐसा उनके अधिकांश भक्तों का मानना है, परंतु कुछ प्रकांड विद्वानों ने अपने अकाट्य तर्कों के आधार पर यह सिद्ध कर दिया है कि वे जन्मजात अंधे नहीं थे. इस विवाद पर मैं आगे चर्चा करूँगा. उनके जन्मजात अंधा (सूर) होने के कारण ही उन्हें सूरदास के नाम से जाना गया. चौरासी वैष्णव की वार्ता के अनुसार उनका जन्म "रुनकता" ग्राम अथवा "रेणुका" क्षेत्र (वर्तमान आगरा जिलान्तर्गत) में हुआ था. परंतु गोस्वामी हरि राय के "भावप्रकाश" में उनका जन्मस्थान दिल्ली के निकट "सीही" नामक ग्राम बताया गया है. उनके पिता पं० रामदास सारस्वत एक निर्धन ब्राह्मण थे, परंतु वे उच्च कोटि के संगीतज्ञ और संस्कृत भाषा के विद्वान थे. अपने पुत्र सूरध्वज को आरंभिक शिक्षा तथा संगीत की शिक्षा उन्होंने ही दी थी.  "निज वार्ता" के अनुसार सिरध्वज जन्मजात अंधे थे, इसलिए उनके परिजन उन्हें "सूरदास" के नाम से पुकारने लगे. अंधा होने के वाबजूद भी सूरदास अपने बाल्यकाल से ही एक अद्भुत प्रतिभा के धनी थे. वे काव्य रचना में पारंगत थे. जब वे मात्र छ: वर्ष के बालक ही थे, तभी स्वरचित काव्य पाठ से न सिर्फ अपने माता पिता बल्कि अपने ग्रामीणों को भी चकित कर दिया था. उनसे बड़े उनके तीन और भ्राता थे. वे सभी सूरदास के अंधा होने के कारण उनकी न सिर्फ अवहेलना किया करते थे, बल्कि उन्हें प्रताड़ित भी करते थे. अपने भाइयों के दुर्व्यवहार से क्षुब्ध होकर सूरदास ने मात्र छ: वर्ष की अल्पायु में ही गृह त्याग दिया और अपने पैतृक गाँव से चार कोस हटकर एक दूसरे गाँव में तालाब के तट पर रहने लगे. अल्पायु में  वात्सल्यपूर्ण पदों की रचना करके तथा अपने अनूठे वाद्ययंत्र "एकतारा" की धुन पर संगीतबद्ध करके सुमधुर स्वर में गाने के कारण दिनों दिन उनकी ख्याति बढ़ती चली गयी. यानि वे काव्य रचना के साथ-साथ गायन विधा में भी प्रवीण हो चुके थे. शीघ्र ही उनके अनेकों सेवक हो गये और वे सभी उन्हें "स्वामी" कहकर पुकारने लगे. अब वे स्वामी के रूप में भी विख्यात हो गये. जब उन्होंने युवावस्था की देहलीज़ पर कदम रखा तब उस गाँव को छोड़कर आगरा तथा मथुरा के मध्य यमुना नदी के तट पर स्थित "गऊ घाट" पर अपना बसेरा बना लिया.

                 ∆∆∆∆∆

    भक्तप्रवर श्रीनाथ रचित "संस्कृत मणि माला", श्री हरि राय कृत "भावप्रकाश" तथा श्री गोकुलनाथ की "निज वार्ता" आदि ग्रंथों के आधार पर संत शिरोमणि सूरदास जन्मजात अंधे माने गये हैं. परंतु उनके अंदर विद्यमान श्रीकृष्ण के बाल स्वरूप, हावभाव एवं राधा- कृष्ण के सौंदर्य का सजीव चित्रण जैसी अद्भुत प्रतिभा, नाना रंगों एवं प्राकृतिक सुषमा का वर्णन तथा सूक्ष्म पर्यवेक्षण शीलता जैसे अद्भुत गुणों को देखते हुए आधुनिक विद्वान उनके जन्मजात अंधा होने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं.? हिन्दी साहित्य के प्रकांड विद्वान श्यामसुंदर दास संदेह प्रकट करते हुए कहते हैं - "सूरदास वास्तव में जन्मान्ध नहीं थे. क्योंकि शृंगार रस तथा श्रीराधा और कृष्ण के सौंदर्य आदि का जो सूक्ष्म चित्र उन्होंने अपनी रचनाओं में उकेरा है, वैसा चित्र कोई जन्मान्ध व्यक्ति नहीं उकेर सकता. वहीं डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "सुरसागर के कुछ पदों में यह ध्वनि  अवश्य मिलती है कि सूरदास स्वयं को "जन्म का अंधा और कर्म का अभागा" कहते हैं, परंतु हर समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीँ मानना चाहिए."

                 ∆∆∆∆∆

*सूरदास की एकाकी प्रेमकथा*

माना जाता है कि सूरदास अपने युवावस्था तक दृष्टि हीन (अंधे) नहीं थे. इसके साथ ही वे रसिक मिज़ाज भी थे. यह पारंपरिक मान्यता है कि किसी भी प्रतिभाशाली पुरुष को महान बनाने में किसी न किसी स्त्री का महत्वपूर्ण योगदान रहा करता है. चाहे वह स्त्री उस पुरुष की अपनी अर्द्धांगिनी हो अथवा प्रेयसी. सूरदास जी को महान कवि बनाने के पीछे भी एक स्त्री की ही भूमिका रही है. भले ही वह स्त्री उनके जीवन में ऑंधी की तरह आयी और तूफान की तरह चली गयी, मगर वह उनके जीवन में ऐसी हलचल मचा गयी कि वे मदन मोहन से सूरदास बन गये. इस सम्बन्ध में सूरदास जी के जीवन से जुड़ी हुई एक बहुत ही मनोरंजक तथा रोचक कथा है. हो सकता है यह कथा किंवदंती अथवा कपोल कल्पना हो, फिर भी माना जाता है कि इस कथा के अनुसार उन्होंने अपनी एक भयंकर भूल के प्रायश्चित स्वरूप स्वयं अपने ही हाथों से अपनी ऑंखें फोड़ ली थी. यह भी माना जाता है कि यदि वह स्त्री उनके जीवन में न आयी होती तो शायद वे सूरदास न बने होते. यह घटना उन दिनों की है, जब वे यमुना नदी के "गऊघाट" पर अपनी कुटी बनाकर रहते हुए संगीत तथा साहित्य साधना में लीन थे. उन दिनों वे पूर्ण युवावस्था को प्राप्त कर चुके थे. उस समय तक वे श्री कृष्ण की लीलाओं से अनभिज्ञ थे. कथा के अनुसार एक दिन अनयास ही उनकी दृष्टि नदी के तट पर बैठी एक अद्भुत सुन्दर युवती पर पड़ी गयी, जो नदी में स्नान करने के पश्चात अपने रेशमी बालों को भगवान भास्कर के प्रकाश में सूखा रही थी. उस युवती के अलौकिक सौंदर्य ने उन्हें सम्मोहित कर लिया और उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ जैसे स्वयं राधारानी अवतरित होकर यमुना तट पर आ गयी हों. वे अपलक उसके सौंदर्य का रसपान करने लगे. कुछ देर बाद वह युवती वहाँ से चली गयी. दूसरे दिन भी वह पुनः स्नान करने आयी और पूर्व की तरह स्नान करने के पश्चात अपने रेशमी बाल सूखाने लगी. इसबार भी मदन मोहन (सूरदास) उसके सौंदर्य का रसपान करने लगे. यह खेल कई दिनों तक चलता रहा. एक दिन उस युवती की दृष्टि भी उन पर पड़ गयी और वह मदन मोहन का अपने प्रति आकर्षण को भांप गयी. युवती तत्क्षण ही अपने स्थान से उठकर  उनके निकट आ गयी और मृदुल हास्य बिखेरती हुई पूछ बैठी -

"क्या आप मदन मोहन जी हो?" युवती के मुॅंह से अपन नाम सुनकर मदन मोहन चौंक पड़े. यह युवती उनका नाम कैसे जानती है.? हामी भरते हुए वे बोले - "हाॅं, मैं ही मदन मोहन हूँ. मैं कविताएँ लिखता और गाता हूँ. आपके सौंदर्य ने मुझे इतना विह्वल कर दिया है कि मैं स्वयं को रोक नहीं पाया और....!"  

"और आप मुझसे प्रेम करने लगे......!" युवती परिहास पूर्ण स्वर में बोली और

मुस्कुराती हुई वहाँ से चली गयी. उसके इस मृदुल व्यवहार और मुस्कान को देख कर मदन मोहन मंत्र मुग्ध रह गये. वे समझ गये कि यह युवती भी उन्हें चाहने लगी है.

उस दिन के बाद युवती का फिर दर्शन तो नहीं हुआ, हाँ‌ मदनमोहन के पिता जी अचानक एक दिन वहाँ आ धमके और उनकी उस अप्रिय हरकत के लिए उन्हें खूब खड़ी खोटी सुनाई. यानि उस युवती ने उनकी धृष्टता की शिकायत उनके पिताजी से कर दी थी. अपने पिता की तीखी बातें सुनकर मदन मोहन का हृदय आहत हो गया और उन्होंने गऊघाट का भी परित्याग कर एक मंदिर में आश्रय लिया और स्वयं को काव्य रचना तथा संगीत में लीन कर उस मनमोहनी को भूलने का प्रयत्न करने लगे, परंतु भूला न पाये. एक दिन पुनः उन्हें अपनी उस प्रेयसी का दर्शन मंदिर में ही हो गया. इसबार वह रूपसी विवाहिता के रूप में सोलहो शृंगार करके उनके समक्ष अवतरित हुई थी. उनके हृदय में पुनः प्रेमांकुर होने लगा. पूजा अर्चना करके युवती अपने घर की ओर जाने‌ लगी. मदनमोहन भी उसका पीछा करते हुए उसके घर पर पहुँच गये. अपने घर के अंदर जाकर उसने द्वार बंद कर लिया. मदनमोहन बड़ी बेचैनी से उसके द्वार की कुंडी खटखटाने लगे. कुछ देर बाद एक भद्र पुरुष ने द्वार खोला और मदनमोहन का स्वागत करते हुए आदर भाव से कहा-"आईए मदन मोहन जी, पधारिये."

उक्त पुरुष के मुंह से यह संबोधन सुनकर वे चौंक पड़े और उन्हें समझते देर न लगी कि यह पुरुष उस युवती का पति है, जिसके रूप लावण्य पर  मुग्ध होकर वे चकोर की भांति खींचें हुए से उसके घर तक आ गये थे. निश्चित रूप से वह युवती उनकी धृष्टता की पूरी दास्तान अपने पति को बता चुकी है. कितना महान है उसका पति.... उन्हें दुत्कारने की वजाये आदर सहित अपने घर के अन्दर बुला रहा है.

"आप कौन हैं...श्रीमान ?" उन्होंने कंपित स्वर में पूछा. "मैं उस स्त्री का पति हूँ जिस पर आप सम्मोहित हो गये हैं." उस भद्र पुरुष की आत्मियता पूर्ण बातें सुनकर मदनमोहन आत्मग्लानि से गड़ गये और क्षोभ भरे स्वर में बोले -"मेरी धृष्टता क्षमा करें श्रीमान, मुझसे बहुत भारी अपराध हो गया." वे उल्टा पाॅंव लौटकर मंदिर पर आये और अपने पाप का प्रायश्चित करने की उक्ति पर चिंतन करने लगे. उन्होंने उन ऑंखों को ही नष्ट कल देने का बन बना लिया, जिन ऑंखों ने उनसे ऐसा महापाप करवाया था. फिर क्या था, एक पल की भी देर किये बिना उन्होंने जलती हुई लकड़ी से अपनी दोनों ऑंखें फोड़ ली. माना जाता है कि उस दिन के बाद से ही वे सूरदास के नाम से विख्यात हो गये तथा उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी. और वे भिक्षाटन करके एकाकी जीवन जीने लगे.

                   *******

क्रमशः.......!

(अगले अंक में पढ़े संत सूरदास का वल्लभाचार्य महाप्रभु का शिष्य बनने की कथा.)

0 comments:

Post a Comment

 
Top