भक्तिकाल के संत और कवि

 भक्त शिरोमणि सूरदास  (द्वितीय किश्त) 

-रामबाबू नीरव 

में सूरदास का जीवन -वृत  (कृष्ण भक्त के रूप में) गऊघाट पर वल्लभाचार्य से हुई उनकी भेंट के साथ प्रारंभ होता है. गऊघाट पर सूरदास के कई सेवक उनके साथ रहा करते थे.  सूरदास के साथ साथ उनके सेवकों की भी ख्याति दूर दूर तक फैल चुकी थी. कदाचित सूरदास तथा उनके शिष्यों की इस ख्याति को सुनकर ही एकबार अरैल से वापस जाते समय वल्लभाचार्य से सूरदास की भेंट हुई. वल्लभाचार्य ने कुछ दिनों वहाँ रूककर सूरदास को अपने पुष्टि मार्ग तथा वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित किया. "वार्ता" में वल्लभाचार्य तथा सूरदास के पहली मुलाकात का जो रोचक वर्णन किया गया है, उससे ज्ञात होता कि उस समय तक सूरदास श्रीकृष्ण

की आनंदमयी ब्रजलीला से परिचित नहीं थे और वे वैराग्य भावना से प्रेरित होकर, पतित पावन हरि  की दैन्य पूर्ण एवं दास्य भाव से  विनयपूर्ण पदों की रचना करके उसे गाया करते थे. इससे ज्ञात होता है कि वे पुष्टि मार्ग में दीक्षित होने से पूर्व निर्गुण धारा के पोषक थे और संत कबीर की तरह मूर्ति पूजा तथा ढ़ोंग और पाखंड के विरोधी थे. वल्लभाचार्य ने उनका "घिघियाना" यानि निर्गुण धारा के प्रवाह से मुक्त कराया और उन्हें श्रीकृष्ण लीला से परिचित कराते हुए सगुण मार्ग (साकार प्रभु) की आराधना की ओर उन्मुख किया. इस कथन के आधार पर कभी कभी कुछ लोग यह कहते हैं कि सूरदास ने विनय पदों की रचना वल्लभाचार्य से पुष्टि मार्ग में दीक्षित होने से पहले ही कर ली थी, वे लोग शायद भ्रम में हैं. 

सत्य यह है कि वल्लभाचार्य द्वारा श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण लीला का ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत ही सूरदास ने अपने पदों में उसका उल्लेख करना आरंभ किया. वार्ता में कहा गया है कि उन्होंने भागवत के द्वादश स्कंधों के आधार पर अपने पदों की रचना की. उन्होंने जिन पदों की रचना की वे "सागर" कहलाए.  तत्पश्चात वल्लभाचार्य‌ ने गोकुल के श्रीनाथ मंदिर में उन्हें कीर्तनकार के रूप में उनके सेवकों के साथ नियुक्त कर दिया. 

इस तरह सूरदास जी वल्लभाचार्य‌ जी के परमप्रिय शिष्य बन गये. उनके काव्य में वल्लभाचार्य‌ जी द्वारा प्रतिपादित कृष्ण स्वरूप की प्रतिष्ठा को सहजता से देखा जा सकता है. सूरदास की भक्ति में उनके अन्त:करण की प्रेरणा तथा अनुभूति की प्रधानता है. 

उनके काव्य में अभिव्यक्त भक्ति भाव को दो चरणों में देखा जा सकता है. प्रथम चरण की यदि हम बात करें तो उस समय वे काफी दीन हीन अवस्था में थे और सांसारिक जीवन से विरक्त होने से पूर्व अपने परिवार के साथ कष्टमय जीवन जी रहे थे. उन दिनों वे दैन्य भाव पर आधारित जीवन के कष्टमय अनुभवों को अपने काव्य में व्यक्त कर रहे थे.

 द्वितीय चरण अर्थात वल्लभाचार्य‌ से दीक्षित होने के पश्चात उनके काव्य सृजन की दिशा ही बदल गयी. अब वे निर्गुण की जगह सगुण भक्तिपरक काव्य की रचना करने लगे.  अर्थात उनके सृजन में भगवान श्रीकृष्णा के प्रति प्रेम, श्रद्धा और भक्ति का समावेश होता चला गया.  उनकी भक्ति तथा प्रेम से ओतप्रोत रचनाओं में जहाँ एक ओर ब्रज के प्रतिक सौन्दर्य और छटा का चित्रण है, वहीं दूसरी ओर श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं, बाल चेष्टाओं के प्रति माॅं यशोदा का वात्सल्य से ओतप्रोत प्रेम है, पाल्य पिता नन्द बाबा का अनुपम अनुराग है तथा ब्रज की गोपियों का निश्छल प्रेम है. बालक कृष्ण की मनोहर छवि का जो मनमोहक चित्रण स्वामी सूरदास ने अपने पदों में किया है वैसा चित्रण न तो उनके समकालीन किसी कवि ने किया और न आगे कोई कवि कर पाएगा. सूर के इन अद्भुत पदों में वात्सल्य प्रेम का सागर उमड़ पड़ा है. वहीं उनके प्रेमभाव से ओतप्रोत शृंगार रस की चासनी में डूबे हुए पदों पर दृष्टिपात करें तो वहाँ भी हमें आनंद की ऐसी अनुभूति होती है, जो हमें प्रेमसागर में डूबकी लगाने को विवश कर देती है. तो आईए अवलोकन करते हैं उनके कुछ चुने हुए पदों का. इसमें से एक पद निर्गुण भाव को तथा दूसरा पद सगुण भाव को व्यक्त करता है. और तीसरे पद में शृंगार रस के प्रेमभाव के दूसरे पक्ष यानि विरह वेदना में छुपी विरहिणी (गोपियों) की करूणा किस तरह मुखर होकर पाठकों के हृदय को बिंद्ध देता है, देखिए

*प्रथम पद (निर्गुण)*

'अब कै नाम मोहि उधारि । 

मगन हौं अब अम्बुनिधि में, 

कृपा सिन्धु मुरारि।। 

नीर अति गम्भीर माया, लोभ लहरि तरंग। 

लिए जात अगाध जल गहे, 

ग्राह अनंग।। 

मीन इन्द्रिय अतिहि काटति, मोट अध सिर भार। 

पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार।। 

काम क्रोध समेत तृष्ना, पवन अति झकझोर। 

नाहिं चितबत देत तियसुत, नाम नौका ओर।। 

थलमौ बीच बेहाल विह्वल, सुनहु करूणा मूल।

स्याम, भुज गहि की डारहु,

सुर ब्रज के कूल।

*अर्थात*: सागर में माया अगाध जल है, लोभ की लहरें हैं, काम वासना रूपी मगरमच्छ हैं, इन्द्रियाँ  मछलियाँ है और इस जीवन में सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है. इस समुद्र में मोह सवार है. काम क्रोधादि रूपी वायु झकझोर रही है. तब एक हरि (निराकार प्रभु) नाम की नौका ही पार लग़ा सकती है. स्त्री तथा पुत्र का माया मोह उधर देखने ही नहीं देता. बस सिर्फ भगवान (अन्तर्यामी) ही पार लग़ा सकते हैं.

(इस पद में सूरदास जी ने स्त्री तथा पुत्र शब्द का व्यवहार किया है. जिससे प्रतीत होता है कि वे शादीशुदा थे. कई विद्वानों ने भी माना है कि वे विवाहित थे और उनकी पत्नी का नाम रत्नावली था. परंतु अधिकांश विद्वान इसका खंडन करते हैं और उन्हें बाल ब्रह्मचारी मानते हैं. यह भी सत्य है कि उनकी पत्नी तथ पुत्र का उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं हुआ है. यह विवादित विषय है अत: इस पर चर्चा करना व्यर्थ है.) आइए उनके वात्सल्य प्रेम पर चर्चा कर लें. इस पद का अवलोकन करें. अति वात्सल्य रूपी प्रेम से ओतप्रोत पद का इससे उत्तम उदाहरण मेरी दृष्टि में दूसरा नहीं हो सकता. इस पद में वात्सल्य भी है, ममता भी, करूणा भी है और परिहास भी.

*द्वितीय पद (सगुण)*

"यशोदा हरि पालने झुलावै। 

हलरावै दुलाई मल्हावै जोइ-जोई कछु गावै।। 

मोरे लाल को आउ निंदरिया काहै न आनि सुलावै।

तू काहैं न बेगहिं आवै, तोकौं  कान्ह बुलावै।।

कवहू पलक हरि मूंद लेत हैं, कवहू अधर फरकावैं। 

सोबत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै।। 

जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नंद भामिनि पावै ।।"

*भावार्थ*

श्री यशोदा जी गोपियों के संग अपने लल्ला श्याम को पालने पर झुला रही हैं. और गाती हुई कह रही है- "निंदिया तू मेरे लाल के पास आ. तू क्यों नहीं इसके पास आकर इसे सुलाती है? तू झटपट क्यों नहीं आती है? तूझे मेरा कन्हैया बुला रहा है. " और श्याम सुन्दर इतने चतुर हैं कि कभी अपनी पलकें मूंद लेते हैं और कभी ओठ फड़काते हैं. भोलीभाली यशोदा मईया उनकी चतुराई समझ नहीं पाती और चुप होकर दूसरी गोपियों को संकेत से बताती है कि मेरा लाल सो रहा है, तुम सब चुप हो जाओ. इसी बीच में श्याम सुंदर आकुल होकर जग जाते हैं, यशोदा मईया पुनः मधुर स्वर में गाने लगती है. इस आह्लदकारी दृश्य को देखकर सूरदास जी कहते हैं - जो सुख देवताओं तथा ऋषि मुनियों को भी दुर्लभ है वही सुख श्याम सुंदर को बालरूप में पाकर श्री नन्द जी की पत्नी यशोदा जी प्राप्त कर रही हैं.

*तृतीय पद (शृंगार रस का विरह भाव'*

"निसिदिन बरसत नैन हमारे। 

सदा रहती पावस ऋतु हम पर, जबते श्याम सितारे।। 

अंजन थिर रहत ॶॅंखियन में, कर-कपोल भये कारे।

कंचुकी_पट सुखत नहीं कबहूँ, उर बीच वहत पनारे।। 

ऑंसू सलिल भये पग थामे, बहे जात सित तारे। 

सूरदास अब डूबत है ब्रज, 

काहे न लेत उबारे ।। 

*भावार्थ*

सूरदास के इस पद में श्रृंगार रस के वियोग भाव का अद्भुत दिग्दर्शन होता है. इस रस को विप्रलंभ श्रृंगार रस भी कहा गया है. वियोग श्रृंगार की अवस्था वहाँ होती है, जहाँ नायक-नायिका अथवा पति-पत्नी का वियोग होता है. प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियाँ श्रीकृष्ण के वियोग में तड़पती हुई कहती है कि हे प्रभु जब से आप हमें छोड़कर गये हैं, तबसे हमारी ऑंखें प्रत्येक दिन बरसती रहती हैं. यानि आपके जाने के बाद से हमारी ऑंखों में सदैव वर्षा ऋति ही रहती है. ऑंखों के काजल बहते हुए हमारे रक्तिम गालों को काला कर देते हैं. हमारी कंचुकी इस तरह से भींग जाती है कि कभी सूखते ही नहीं. हमारी छाती के बीच से ऑंसू रूपी जल की धारा बहती रहती है. ऑंसू जल का रूप धारण करके लगातार बहते जा रहे हैं. ब्रज्रबालाओं की इस व्यथा को देखकर सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु गोपियों की ऑंसुओं की धारा से अब सम्पूर्ण बज्र डूबता जा रहा है, आप क्यों नहीं आकर इसको उबार लेते हैं. "                   *****"

क्रमशः.....! 

(अगले अंक में पढ़े सूरदास द्वारा रचित "भ्रमरगीत" )

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