भक्तिकाल के संत और कवि


(तृतीय किश्त)

 -रामबाबू नीरव

सबसे पहले हम यह जान लें कि संत सूरदास ने "भ्रमरगीत" के नाम से कोई भी ग्रंथ नहीं लिखा. नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की विवरण तालिका में उनके द्वारा रचित 16 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है जिनमें   सूरसागर, सूरसरावली, साहित्य लहरी, नल-दमयंती, व्याहलो, दशम स्कंध टीका, नाग लीला, भागवत् गोवर्धन लीला, सूरपचीसी, सूरसागर सार तथा प्राण-प्यारी आदि ग्रंथ सम्मिलित हैं. परंतु इन ग्रंथों में से "भ्रमरगीत" नाम से कोई ग्रंथ नहीं है.

तो फिर आखिर भ्रमरगीत आया कहाँ से? असल में हिन्दी साहित्य के उद्भट्ट विद्वान एवं आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने  "सूरसागर" नामक उनकी पदावली के महाग्रंथ में से 400 पदों को चुनकर भावार्थ सहित एक संकलन का संपादन किया और उसी संकलन का उन्होंने नाम रखा "भ्रमरगीत"! लोग समझने लगे कि यह भ्रमरगीत भी सूरदास की ही रचना है. वैसे देखा जाए तो यह सही भी है, क्योंकि इसमें संकलित सभी विरह के पद सूरदास रचित ही हैं. सिर्फ इन पदों का संपादन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया है.

"भ्रमरगीत" में संकलित जितने भी पद हैं वे सब श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा तथा उसकी सहेलियों यानि श्रीकृष्ण की अन्य प्रेमिकाओं (ब्रज की गोपियों) के हृदय की वेदना है. इस विरह वेदना में उलाहना का भाव छुपा है, जिसे साहित्य में उपालम्भ काव्य माना गया है, और भ्रमरगीत उसी उपालम्भ काव्य का रूप है. (इस उपालम्भ काव्य पर आगे चर्चा की जाएगी.) 

संत सूरदास ने अपने महाग्रंथ "सूरसागर" में भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के सबसे उज्ज्वल पक्ष प्रेम के अनुपम सौंदर्य को अभिव्यक्त किया है. श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं में जहाँ उन्होंने उनके और मईया यशोदा के वात्सल्य भाव रूपी प्रेम को दर्शाया है, वहीं उनके किशोरावस्था में वृषभानु की पुत्री राधा तथा ब्रज की अन्य गोपबालाओं के साथ रचाये जाने वाले रासलीला के अद्भुत प्रसंगों का चित्रण कर उनके अनुपम सात्विक तथा निश्छल प्रेम को पूरे मनोयोग से जीवंतता प्रदान कर दिया है. साहित्य में शृंगार रस को सभी रसों का राजा माना गया है. इस रस में मूल रूप से नायक-नायिका, प्रेमी-प्रेमिका अथवा पति-पत्नी के प्रेम भाव का वर्णन होता है. इस श्रृंगार रस के भी दो भेद हैं. संयोग अर्थात मिलन तथा वियोग अर्थात बिछड़ना. भ्रमरगीत में श्रृंगार रस के दूसरे भाव यानि वियोग अथवा बिछड़ने की व्यथा को उभारा गया है. 

भगवान श्री कृष्ण के जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आये, विघ्न-बाधाएं आयी, मगर वे  हंसते हंसते सभी बाधाओं को झेलते चले गये. वे जन्मजात दुस्साहसी थे. उनका जन्म मथुरा के कारागार में हुआ, लालन- पालन गोकुल के यादव सरदार नन्द बाबा के घर में और यशोदा मईया की गोद में हुआ. जितने ही वे चंचल थे, उतने ही दुस्साहसी भी. बालावस्था में दुर्दांत राक्षसों और राक्षसियों को मार गिराया. अब जरा उनके किशोरावस्था की लीलाओं पर दृष्टिपात करें - सारी दुश्चिंता से मुक्त होकर वे ब्रज के मधुवन में अपनी प्रियतमा राधा और अन्य गोपियों के साथ गईया चराते हुए रासलीला भी रचाते नजर आते हैं. रास रचाते तथा वेणु गीत गाते गाते राधा तथा अन्य गोपियों के साथ उनका ऐसा आत्मीय सम्बन्ध बन जाता है जो सात्विक प्रेम का अद्भुत उदाहरण है. ऐसा अनुपम प्रेम विश्व के किसी भी साहित्य में देखने को नहीं मिलेगा. इस अनुपम प्रेम का तो प्रथम सृजन महामुनि वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत में किया है. उसी प्रेम को विस्तृत कर संत सूरदास ने अपनी ब्रजभाषा के पदों में किया, जो "सूरसागर" में संकलित हैं. मधुवन में रचाये जाने वाले रासलीला के बाद श्रीकृष्ण के जीवन की दिशा बदल जाती है. इस बात से सभी परिचित थे कि श्रीकृष्ण का जन्म मात्र रास रचाने के लिए नहीं हुआ था. उन्हें उन दुष्टों के संहार करने के लिए अपनी बांसुरी का त्याग कर सुदर्शन चक्र भी धारण करना था, जिनके कुकृत्यों से मानवता कराह रही थी. सर्वप्रथम अपने अग्रज बलरामपुर के साथ मथुरा जा कर उन्हें अपने दुष्ट मामा कंस का संहार करना था. जब वे अपने चाचा अक्रूर के साथ मथुरा जाने लगते हैं तब उनकी पाल्य माता यशोदा जी, पाल्य पिता  नन्द बाबा तथा उनके बाल सखाओं के साथ साथ गोपबालाओं के हृदय की वेदना मुखर हो उठती है. कृष्ण तो उन सबको रोता-बिलखता छोड़कर चले जाते हैं, परंतु अपने पीछे राधा तथा अन्य गोपियों के हृदय में जो विरह वेदना छोड़ जाते हैं उसकी कसक की ध्वनि गुरु सांदीपनी ऋषि के आश्रम तक उनका पीछा नहीं छोड़ती. गोपबालाओं के संग बिताये गये मधुर क्षणों की स्मृतियाँ उन्हें भी सताने लगती है और विवश होकर वे अपने बाल सखा सह चचेरे भ्राता उद्धव को ब्रजधाम, विरहा की अग्नि में जल रही गोपियों को सांत्वना देने हेतु भेजते हैं. ब्रज धाम में पहुँच कर गोपियों तथा उद्धव के बीच जो संवाद होते हैं और गोपियाँ उद्धव को भ्रमर (भौंरा, मधुकर) मानकर अपने हृदय की जो वेदना प्रकट करती है, वही वेदना है भ्रमरगीत. भ्रमरगीत के कारुणिक पदों को उधृत करने से पूर्व आईए विरहा की अग्नि में जल रही राधा तथा अन्य गोपियों की व्यथा को सूरदास जी के इस पद में ढूंढ़ते हैं -

"मधुवन, तुम कत रहत हरे? 

विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे। 

मोहन वेनु बजावत तुम-तर, 

साखा टेकि खरे।। 

मोहे थावर अरु जड़-जंगम, मुनि जन ध्यान टरे। 

वह चितवनि तू मन न धरत है, पुहुप खरे। 

सूरदास प्रभु विरह दनलत, नख-सिख लौ नजरे."

*भावार्थ*

श्रीकृष्ण की विरहाग्नि में जल रही गोपियाँ मधुवन को हरा भरा देखकर उलाहना देती हुई कहती है कि अरे मधुवन तुम हमारे कृष्ण की अनुपस्थिति में भी इतने हरे भरे कैसे हो.?  जिस पल हमारे कृष्ण तुम्हें छोड़कर यहाँ से चले गये उसी पल तुम्हें भी जलकर राख हो जाना चाहिए था. तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती, तुम्हें वह पल भी याद नहीं है, जब हमारे कृष्ण पेड़ के तना के सहारे खड़े होकर अपनी बांसुरी बजाया करते थे, जिसकी धुन पर सभी पशु पक्षी, जड़ चेतन से लेकर धरती का कण कण मुग्ध हो जाया करता था. इतना ही नहीं ऋषिमुनियों तक की तपस्या भंग हो जाया करती थी, उन्हीं कृष्ण की स्मृति को भूलकर बार बार हरे क्यों हो जाते हो.? क्या तुम्हें वह पल भी याद नहीं? " 

कितनी वेदना छुपी हुई है गोपियों के इस विरह गीत में. साधारण जन हृदय भी तड़प उठता है.

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़ें श्रीकृष्ण के दूत उद्धव तथा गोपियों के संवाद. अर्थात गोपियों का उपालम्भ यानि उलाहना)

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