भक्तिकाल के संत तथा कवि


(चतुर्थ किश्त) 

 -रामबाबू नीरव

 भ्रमरगीत में संग्रहित सूरदास के अधिकांश पदों में श्रृंगार काव्य के एक अनूठे भेद "उपालम्भ" का प्रयोग किया गया है. प्राचीन आचार्यों ने भी माना‌ है कि उपालम्भ काव्य के श्रृंगार रस का ही एक भेद है, जिसमें नायिका की विश्वस्त सखी उलाहना देती हुई नायक को नायिका के अनुरूप करती है. लेकिन सर्वत्र सखी द्वारा ही नायिका नायक को उपालम्भ संदेश प्रेषित नहीं करती है, कहीं कहीं नायिका अथवा नायक पक्षी, मेघ (बादल) अथवा पवन द्वारा भी अपने प्रियतम या प्रियतमा को उपालम्भ (उलाहना) संदेश भेजते हैं. ऐसा प्रायः वियोग श्रृंगार में ही होता है. इसका सबसे उत्तम उदाहरण संस्कृत साहित्य के प्राचीन कवि कालिदास की विश्वप्रसिद्ध काव्यकृति "मेघदूतम्" है. जिसमें नायक यक्ष मेघ (बादल) को दूत बनाकर अपनी प्रियतमा तक अपने हृदय की वेदना पहुंचाता है.

 जहाँ अन्य काव्यों में मात्र एक नायक और एक ही नायिका होती है वहीं सूरदास के भ्रमरगीत में नायक एक (श्रीकृष्ण) हैं परंतु नायिका अनेक. ये नायिकाएं (गोपियाँ) श्रीकृष्ण द्वारा भेजे गये दूत उद्धव के माध्यम से ही अपने हृदय की मर्मस्पर्शी वेदना यानि "उपालम्भ" श्रीकृष्ण को प्रेषित करती हैं. श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद जब नन्द बाबा, यशोदा मईया, राधा रानी, गोप-गपियां सभी दु:खी हैं, उसी समय श्रीकृष्ण के बाल सखा सह चचेरे भ्राता उद्धव उनके‌ दूत बनकर गोपियों को समझाने बुझाने आते हैं. श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में गोपियों द्वारा उद्धव को माध्यम बनाकर श्रीकृष्ण को उपालम्भ देने का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है. श्रीमद्भागवत में वर्णित उसी उपालम्भ (उलाहना) को सूरदास ने भ्रमरगीत के माध्यम से विस्तारित किया है. भ्रमरगीत में गोपियों की विरह-वेदना का चित्रण अत्यंत ही मनोहारी है. ऐसा सुन्दर उपालम्भ अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता. हालांकि मैथिल कवि विद्यापति, चंडीदास, नंददास आदि प्राचीन कवियों ने तथा नये युग के कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं जगन्नाथ रत्नाकर आदि ने भी उपालम्भ श्रृंखला का अपने अपने काव्यों में धरले से प्रयोग किया है. परंतु वह सौंदर्य उनके काव्यों में नहीं उभर पाया जो सौंदर्य और रमणीयता सूरदास जी के भ्रमरगीत में देखने को मिलती है.

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ब्रज धाम से जाने के बाद ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने अपनी प्रियतमा राधा और उन गोपियों को साफ साफ भुला ही दिया, जिनके संग उन्होंने प्रेम लीलाएँ की थी. जब वे अपने गुरु सांदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तब राधा और गोपियों के विरह रूपी दारुण व्यथा की धमक उनके हृदय तक भी पहुँच रही थी. उन्होंने मन ही मन में विचार किया कि उन गोपियों के तप्त हृदय पर सांत्वना रूपी शीतल जल का छिड़काव करना आवश्यक है. और वे इसके उचित संवाहक के रूप में अपने गुरुभाई उद्धव का चुनाव करते हैं. उद्धव भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है. वे योग विधा तथा निर्गुण ब्रह्म में निष्णात हो चुके हैं. श्रीकृष्ण उन्हें अपना दूत बनाकर ब्रजधाम भेजते हुए कहते हैं -"उद्धव तुम ब्रज में जाओ और वहाँ मेरे वियोग में तड़प रही राधा तथा उसकी सहेलियों को सांत्वना देते हुए योग और अपने निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देना. ताकि योग और ध्यान से वे सभी अपने मन की पीड़ा को भूल सके." उद्धव उनका संदेश लेकर ब्रजधाम पहुँचते हैं. जब गोपियों को ज्ञात होता है कि उद्धव उनके प्रियतम का संदेह लेकर आये हैं, तब वे सभी उनसे एकांत में मिलकर सर्वप्रथम अपने प्रियतम का कुशलक्षेम पूछती हैं. उद्धव अपने मित्र की सकुशलता का बखान करने के पश्चात उन्हें योग और निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देने लगते हैं. परन्तु अपने प्रियतम के वियोग में तड़प रही गोपियाँ उनके उस गूढ़ ज्ञान को नकार देती हैं और अपने सात्विक प्रेम के सगुण स्वरूप का साक्षात्कार कराती हुई कहती हैं कि हे उद्धव आपका यह ज्ञान "ठगौरी" (ठगने वाला) है. हम गोपियाँ आपके इस सांझे में नहीं आनेवाली. तभी एक गोपी को स्मरण हो आया अपने प्रियतम श्रीकृष्ण से मिलन की लीला का. उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा फूलों पर मंडराते हुए भुनभुना रहा है. तब उसके मुख से निकल पड़ा- 

"ए अलि! कहा जोग को नीको! 

तजि रसरीति नंदनंदन की सिख वन निर्गुण फीको।। 

देखत सुनत नाहि कछु, सव्रननि, ज्योति ज्योति करि ध्यावत। 

सुन्दर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौं विसरात।। 

सुनि रसाल मुरलीसुर धुनि सोइ कौतुक श्रम मूलै।

अपनी भुजा ग्रीव पर मैले गोपिन के सुख भूल । 

लोककानि कुल को भरम प्रभु, मिलि-मिलि कै घर बन खेली।। 

अब तुम सुर रखा वन आए जोग जहर की बेली।"

*भावार्थ*

गोपियाँ खिन्न होकर उद्धव से भौंरे का आड़ लेकर कहती हैं -"हे भौरें ! तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म में कौनसी ऐसी विशेषता है, कौनसी अच्छी बात है जो तुम नंदलाल की रस पद्धति को छुड़ा कर हमें निरस निर्गुण का पाठ सिखाने आये हो. हमारे श्यामसुन्दर तो बहुत दयालु हैं, दया के सागर हैं. हम भला उन्हें कैसे भुला सकती हैं. हमारे कन्हैया के मुरली की मधुर धुन सुनकर  देवता और मुनि लोग भी अपने तन-मन की सुध भुला बैठते हैं. जब कन्हैया अपनी भुजा हमारे कंधों पर रख देते थे, तब हमारा मन कमल की तरह खिल उठता था और हमलोग लोक लाज तथा कुल की मर्यादा भूलकर प्रभु के साथ वन में खेलती रहती थी. अब तुम हमें योग रूपी लता खिलाने आ गये हो । तुम्हारा यह योग हमारे लिए विष की भांति प्राणघातक है. सिर्फ कृष्ण प्रेम ही हमारे लिए मधुर और जीवन दायक होगा."

फिर दूसरी गोपी उद्धव के भाग्य से इर्ष्या करती हुई कहती है -

"उधव तुम हो अति बड़भागी! 

अपरस रहत सनेह तगातैं, नाहिन मन अनुरागी। 

पुरुष पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी। 

ज्यौं जल माह तेल की गागरि, बूंद न ताक़त लागी। 

प्रीति नदी पाउॅं न बोर्चो, दृष्टि न रूप परागी। 

सूरदास अबला हम भोरी, गुर चाॅंटी ज्यौं पागी।"

*भावार्थ*

हे उद्धव! आप सचमुच बहुत भाग्यशाली हैं. आप प्रेम की डोर से मुक्त रहे हैं. कभी प्रेम बंधन में नहीं पड़े. आपके मन में प्रेम का अनुभव ही नहीं आया. जैसे कमलीनी के पत्ते जल के भीतर रहते हुए भी उसमें नहीं भींगते, उसी तरह आप भी संसार में रहते हुए भी प्रेम के तरल स्पर्श से वंचित रहे हैं. जैसे तेल से भींगी हुई गगरी  जल के अंदर रहती हुई भी उसकी एक बूंद भी अपने ऊपर नहीं ठहरने देती, उसी तरह प्रेम जगत में रहते हुए भी आप प्रेम के तरल स्पर्श से वंचित रहे हैं.  प्रेम नदी में स्नान करना तो दूर आपने उसमें कभी अपना पैर तक नहीं डूबोया. आपकी दृष्टि कभी किसी के रूप पर मोहित नहीं हुई. ये हम ही भोली-भाली ऐसी नारियाँ हैं जो श्रीकृष्ण के प्रेम जाल में उसी प्रकार फंस गयी जैसे मीठास की लोभी चिटियां गुड़ से चिपकी रह जाती है. 

फिर एक गोपी उद्धव से विनती करती हुई कहती है -"ऊधो मन न भये दस बीस! 

इक हुतौ सो गयो स्याम संग, कौ अवराधौ ईस। 

इन्द्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं‌ दे दी बिनु सीस। आभा लागि रहति तन स्वांसा, जीवहिं कोटि वरीस। 

तुम तौं सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग में ईस। 

सुर हमारे नंदनंदन विनु, और नहीं जगदीश।"

*भावार्थ*

हे उद्धव! हमारे मन दस बीस नहीं हैं. यानि हमारे मन में छल कपट नहीं हैं. 

सभी की तरह  हमारे पास भी एक ही मन (दिल) था और वह भी हमारे प्रियतम कृष्ण के साथ चला गया. अतः, हम अपने मन के बिना बताये तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की आराधना कैसे करें.? श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो चुकी हैं. हमारी दशा बिना सिर के प्राणी जैसी हो चुकी है. हम श्रीकृष्ण के बिना मृतवत हो गयी हैं. हमारी श्वांस केवल इस आशा में चल रही है कि मथुरा से श्रीकृष्ण अवश्य लौटेंगे और हमें उनके दर्शन प्राप्त हो जाएंगे. श्रीकृष्ण के लौटने की आशा में हम‌ करोड़ों वर्ष तक जीवित रह लेंगी. गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव तुम तो कृष्ण के अभिन्न मित्र हो और सम्पूर्ण योग विधा तथा मिलन के ज्ञाता हो यदि तुम चाहो तो हमारा संयोग (मिलन) अवश्य करा सकते हो. सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से स्पष्ट शब्दों में कहती हैं कि नंदजी के पुत्र श्रीकृष्ण को छोड़कर हमारा कोई दूसरा आराध्य नहीं है. हम तो उन्हीं की परम उपासिका हैं. 

गोपियों के अपने प्रियतम के प्रति अनुराग, श्रद्धा और भक्ति पूर्ण विरह वेदना से युक्त उपालम्भ को सुनकर उद्धव स्वयं को पराभूत होता हुआ सा अनुभव करते हैं और उन्हें लगता है कि उनका सारा ज्ञान इन गोपियों के प्रेम के समक्ष शून्य है.

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क्रमशः......! 

 ( अगले अंक में पढ़े संत सूरदास और बादशाह अकबर के मिलन की कहानी.)

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