भक्तिकाल के संत और कवि


(पांचवीं किश्त)  

-रामबाबू नीरव

हिन्दी साहित्य में भक्ति- काल के प्रथम कवि मैथिल कोकिल विद्यापति को माना जाता है. विद्यापति 15 वीं शताब्दी में हुए थे. उन्होंने राधाकृष्ण के प्रेम कथाओं पर आधारित श्रृंगार रस के काव्यों की रचना की. उनके काल तक मुस्लिम शासक भारत में अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो चुके थे और यहाँ इस्लाम धर्म के तेजी से फैलने की आशंका थी. इस आशंका को देखते हुए ही हिन्दू धर्मावलंबी साहित्यकारों (मूल रूप से कृष्ण भक्त कवियों) ने भारत में हिन्दू धर्म की बुनियाद को मजबूती प्रदान करने का बीड़ा उठाया. विद्यापति द्वारा स्थापित भक्तिकाल की बुनियाद मुगलकाल के आते आते तक इतनी मजबूत हो चुकी थी कि उसे हिला पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव हो गया. अधिकांश हिन्दू कवियों ने मुगल काल में ही भक्ति का परचम लहराया था. इसका असर ये हुआ कि कई मुस्लिम कवियों ने भी श्रीकृष्ण तथा राधा के प्रेम प्रसंगों एवं श्रीकृष्ण के बाल लीलाओं पर काव्य ग्रंथों की रचना की, जिसकी चर्चा हम आगे की शृंखलाओं में करेंगे. यहाँ हम मूल रूप से मुगल बादशाह अकबर के काल के भक्त कवि सूरदास और बादशाह अकबर के सम्बन्ध पर प्रकाश डालेंगे. वैसे यहाँ जान लेना आवश्यक है कि अकबर के काल में ही सूरदास के साथ साथ श्रीराम के अनन्य भक्त गोस्वामी तुलसीदास तथा मुस्लिम कवि रहीम खानखाना भी हुए थे. और इन तीनों के बीच जो प्रेमभाव और 

आत्मीयता थी वह आजके साहित्यकारों में नहीं हो सकती. इन महान साहित्यकारों के बीच का साम्प्रदायिक सद्भाव वर्तमान समय में अनुकरणीय माना जा सकता है. इसका एक मुख्य कारण यह है कि स्वयं मुगल बादशाह अकबर एक नेकदिल, उदारवादी तथा समन्वय वादी विचार धारा के इंसान थे.    

गोस्वामी तुलसीदास तथा रहीम खानखाना की मित्रता तो ऐसी थी जिसे हम "दांतकाटी रोटी" की संज्ञा दे सकते हैं. इन दोनों महान विभूतियों की दोस्ती के अनेकों किस्से मशहूर हैं, जिसकी चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे. चूंकि यह अध्याय संत शिरोमणि सूरदास पर आधारित है, अतः यहाँ सिर्फ सूरदास तथा बादशाह अकबर से सम्बन्धित रोचक और ज्ञानवर्धक घटना का ही उल्लेख किया जाएगा.

बादशाह अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुलफजल द्वारा रचित "आइने अकबरी (अकबरनामा) तथा  "मुतखबुत-तवारीख" के अनुसार श्रीकृष्ण के भक्त कवि सूरदास शहंशाह-ए- आजम अकबर के दरबारी कवि एवं संगीतज्ञ थे. परंतु यह सत्य नहीं है. क्योंकि सूरदास इतने स्वाभिमानी थे कि वे किसी बादशाह की दासता स्वीकार कर ही नहीं सकते थे. हाँ यह बात मानी जा सकती है कि उनके पिता पं० रामदास सारस्वत बादशाह अकबर की सेवा में रहे हों. 

*सूरदास के स्वाभिमान की एक कथा*

यह सर्वविदित है कि मुगल बादशाह अकबर कला और साहित्य प्रेमी थे. इसके साथ ही वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे. उनके दरबार में राजा विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) की तरह सभी तरह के गुणवान लोग थे. जिन्हें नवरत्न कहा जाता था. उन्हीं नवरत्नों में से एक रत्न तानसेन भी थे, जो उस समय के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञ तथा गायक थे. एकदिन की बात है, दिल्ली दरबार में तानसेन भगवान श्रीकृष्ण के बालहठ को दर्शाने वाला वात्सल्य रस का एक गीत गा रहे थे. उस गीत को सुनकर बादशाह अकबर के साथ साथ सभी दरबारी भी मंत्रमुग्ध हो गये. तालियों की गड़गड़ाहट तथा वाह वाह की आवाज से दरबार गूंज उठा. कोलाहल के थमने के बाद बादशाह ने तानसेन की प्रशंसा करते हुए पूछा - 

"तानसेन ये तो बहुत ही अच्छा गीत है, ऐसा सुमधुर गीत तो तुमने कभी नहीं सुनाया?" 

"जिल्लेइलाही, गुस्ताखी मुआफ़ हो. यह गीत मेरी रचना नहीं है....किसी और की लिखी हुई है."

"क्या....?" बादशाह अकबर हैरत से तानसेन की ओर देखने लगे. -"मेरी सल्तनत में ऐसा कौन सा फ़नकार है जिसे मैं नहीं जानता?"

"हुज़ूर वह फक्कड़ कवि सूरदास है. जो मथुरा के श्रीनाथ मंदिर रखकर अपने प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति में कविताएँ रचा करता है." तानसेन ने कहा. 

"तो आजतक आपलोगों ने मुझे ऐसे महान कवि से अनजान क्यों रखा."?बादशाह अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए बोले -" तानसेन, आप उनको दरबार में बुलवाईए, मैं उनके ही मुॅंह से यह गीत सुनना चाहता हूं."

"माफ़ी चाहता हूँ हुज़ूर, संत सूरदास अलमस्त कवि हैं, वे सिर्फ अपने प्रभु श्रीकृष्ण के लिए उनके ही श्रीचरणों में बैठकर गाते हैं. उन्हें धन दौलत का लोभ नहीं है. इसलिए मैं उन्हें यहाँ नहीं बुलवा सकता."

"अगर वे यहाँ नहीं आ सकते, तो फिर हम तो वहाँ  जा सकते हैं, जहाँ वे रहते हैं." बादशाह उतावला होते हुए बोले.

"तो हुज़ूर, एक ही रास्ता है, आप मथुरा जाएं और वहीं भगवान श्रीनाथ जी के मंदिर में वे आप को‌ मिल जाएंगे. लेकिन यहाँ भी‌ एक समस्या है."

"अब कौन सी समस्या है?" " अकबर थोड़ा कुपित हो गये.

 "वे इतने स्वाभिमानी हैं कि किसी के दवाब में आकर गीत नहीं गा सकते! "

"तो फिर कैसे होगा.?" बादशाह मायूस हो गये.

"आप फिक्र न करें हुज़ूर, मैं किसी न किसी तरह उन्हें राजी कर लूंगा."

"ठीक है, तो फिर मथुरा चलने की तैयारी की जाए."

बादशाह ने हुक्म दिया और इसके साथ ही दरबार बरखास्त हो गया.

               *****

नियत तिथि को बादशाह अकबर, संगीत सम्राट तानसेन, बीरबल, सेनापति मानसिंह, तथा अपने पूरे लावलश्कर के साथ अहले सुबह मथुरा के लिए प्रस्थान कर गये. जब वे लोग श्रीनाथ मंदिर पहुंचे तब मंदिर‌ के प्रधान पुजारी ने अन्य पुजारियों के साथ बादशाह की आवभगत की. बादशाह ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा -"मैं संत सूरदास जी से मिलना चाहता हूँ."

"जैसी हुज़ूर की इच्छा." प्रधान पुजारी ने विनम्रता पूर्वक कहा -"परंतु हुज़ूर उनके कक्ष में इतने लावलश्कर के साथ नहीं जा सकते!" 

"आप घबराएँ नहीं, मेरे साथ तानसेन, मान सिंह और बीरबल ही जाएंगे."

"तो ठीक है, मैं उनके कक्ष में ही व्यवस्था करवा देता हूँ." पुजारी जी चले गये. कुछ ही देर बाद बादशाह अकबर के साथ तानसेन, मान सिंह और बीरबल संत सूरदास के कक्ष में थे.

कहा जाता है कि जन्मान्ध सूरदास ने उन चारों को उनके पदचाप से ही पहचान लिया था. उनलोगों के लिए उस कक्ष में बैठने की समोचित व्यवस्था कर दी गयी थी. वे सभी अपने अपने आसन पर बैठ गये. कुछ देर वहाँ खामोशी रही. किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी, सूरदास जी से गीत सुनाने का आग्रह करने का. कुछ देर पश्चात तानसेन बोले -

"स्वामी जी, मैं तानसेन आपको आपका ही एक गीत सुनाने आया हूँ."

"अच्छा, तो सुनाओ." सूरदास ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा.

तानसेन अपने साथ अपना सितार भी लेकर गये थे. सितार की धुन पर वे सूरदास जी का वात्सल्य रस का एक पद आलापने लगे. लेकिन उन्होंने जानबूझ कर कुछ बारीक गलती कर दी. सूरदास जी ने उन्हें टोकते हुए कहा -

"यह क्या गा रहे हो तानसेन. इस पद की तो पूरी गरिमा ही समाप्त हो जाएगी. सुनो मैं गाकर सुनाता हूँ." फिर वे अपने एकतारा (एक वाद्ययंत्र) की धुन पर राग बेदारी में गाने लगे -

"मैया मैं तो चंद-खिलौना लैहौं। 

जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं।। 

सुरभि कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहै हौं। 

पूत नंद बाबा को, तेरो सुत न कहै हौं।। 

आगै आउ बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनै हौं। 

हॅंसि समुझावति कहति जसोमति, नई दुलहिया दै हौं।। 

तेरी सौ मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं। 

सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं।।"

*अर्थात*

बाल कृष्ण रूठने का अभिनय करते हुए यशोदा मईया से कहते हैं -"मैया मैं तो वह चन्द्रमा खिलौना ही लूंगा. यदि तुम उसे नहीं दोगी तो मैं पृथ्वी पर लेट जाऊँगा. तेरी गोद में नहीं आऊॅंगा. न तो गैया का दूध पीऊॅंगा, न सिर में चुटिया गूंथवाऊॅंगा, तेरा बेटा भी नहीं कहलाऊॅंगा. तब यशोदा मईया हॅंसती हुई कान्हा को समझाती है -"आगे आओ, मेरी बात सुनो, यह बात मैं तेरे बलराम भैया को नहीं बताऊॅंगी, तुम्हारे लिए मैं नई दुल्हन ला दूंगी. यह सुनकर श्यामसुंदर कहते हैं _"तू मेरी मईया हैं, तेरी शपथ मैं इसी समय ब्याह करने जाऊँगा।" सूरदास जी कहते हैं -"हे प्रभु मैं आपके विवाह में एक कुटिल बाराती, बारात में व्यंग्य करने वाला बनूंगा और आपके विवाह में मंगल के सुन्दर गीत गाऊँगा।') सूरदास के श्रीमुख से यह गीत सुनकर बादशाह अकबर, तानसेन, मान सिंह और बीरबल प्रसन्नता से झूम उठे. अकबर ने खुश होकर ऐलान किया -"संत सूरदास को मंदिर के आसपास की सारी जमीनें दे दी जाये."

उनके इस ऐलान को सुनकर संत शिरोमणि सूरदास कुपित होते हुए बोल पड़े -"सारी भूमि तो गोपाल (श्रीकृष्ण) की है. यह भूमि मुझे देने वाले तुम कौन होते हो." सूरदास की बात सुनकर अकबर स्तब्ध रह गये और उन्हें अपनी गलती पर दु:ख होने लगा. थोड़ी देर रूक कर वे फिर बोले -

"तो आप ही कहें कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ. "बस मुझ पर इतनी कृपा कीजिये कि मैं आजीवन यहीं पड़ा रहूँ और प्रभु श्रीनाथजी की सेवा करता रहूँ."

" जी, ऐसा ही होगा." बादशाह अकबर ने उन्हें आश्वस्त कर दिया. माना जाता है कि अपने जीवन के अंतिम क्षण तक सूरदास उसी मंदिर में रहे. 

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क्रमशः.....! 

(अगले अंक से पढ़ें भक्ति साहित्य के संरक्षक बादशाह अकबर की कथा.)

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