भक्तिकाल के संत एवं कवि 


(द्वितीय किश्त) 

 -रामबाबू नीरव

अपनी धर्म-पत्नी रत्नावली से प्रताड़ित होने के पश्चात तुलसी दास के हृदय में इतनी ग्लानि उत्पन्न हुई कि उन्होंने उसी क्षण गृहत्याग करके वैराग्य ले लिया और अयोध्या चले आये. यहीं रहकर उन्होंने अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के आदर्श चरित्र पर आधारित महाकाव्य का सृजन आरंभ किया. वैसे तो उनकी प्रथम कृति "वैराग्य संदीपनी" है, परंतु अपनी पत्नी से श्रीराम के प्रति नेह लगाने  का उलाहना सुनने के पश्चात उन्होंने रामचरितमानस लिखना आरंभ किया. माना जाता है कि गोस्वामी जी ने मानस के नौ कांडों (अध्यायों) में से चार कांडों को अयोध्या में तथा शेष कांडों को काशी में लिखा.  अवधी भाषा में लिखा गया उनका यह महाकाव्य त्रेता युग के महान संत महर्षि बाल्मीकि द्वारा संस्कृत भाषा में रचित "रामायण" का ही अवधी भाषा में रूपांतरण है. परंतु अधिकांश विद्वानों का मानना है कि "रामायण" तथा "रामचरितमानस" में काफी भिन्नता है. तुलसीदास जी ने बचपन में अपने गुरु नरहरि दास के श्रीमुख से सुने गये महर्षि वाल्मीकि कृत "रामायण" तथा विभिन्न पुराणों में वर्णित रामकथा के आधार पर अपने इस महाकाव्य अथवा धार्मिक ग्रन्थ की रचना की. इस सम्बन्ध में उन्होंने स्वयं लिखा है -

"नानापुराणं निगमागमं सम्मतं यदरामायणे निगदितं क्वोधिदन्यतोपि। 

स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ भाषा निबंधमति  मंजुलमात नोति ।।"

अर्थात यह ग्रंथ नाना पुराण, निगमागम, रामायण तथा कुछ अन्य ग्रंथों से लेकर रचा गया है और तुलसी ने अपने अंत:सुख के लिए रघुनाथ की गाथा कही है.

तुलसी कृत रामचरितमानस को कई अन्य नामों से भी जाना जाता है यथा तुलसी रामायण, तुलसी कृत रामायण तथा सिर्फ मानस.

यहाँ हम पहले यह जान लें कि "रामायण" तथा "रामचरित मानस" में शाब्दिक अंतर क्या है? राम का अर्थ तो स्पष्ट है, वहीं अयण संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है घर या स्थान. इस तरह से "रामायण" का शाब्दिक अर्थ हुआ राम का घर अथवा राम का स्थान. वहीं रामचरित का अर्थ स्पष्ट है भगवान श्रीराम का चरित्र अथवा आदर्श और मानस का अर्थ है मन से उत्पन्न, मन से विचारा हुआ अथवा मनोभाव. इस तरह रामचरित मानस का अर्थ हुआ श्रीराम के आदर्श चरित्र का मनोभाव. सचमुच गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी इस अनुपम कृति "रामचरितमानस" में श्रीराम के प्रति अपनी पवित्र भावना को उड़ेल कर रख दिया है. इसे भारतीय धर्मग्रंथों में सर्वोत्तम तथा सर्वप्रिय माना गया है. यह सच भी है कि जो लोकप्रियता रामचरितमानस को मिली वह मूल  रामायण को नहीं मिल पायी. कुछ विद्वानों ने इसे भारतीय संस्कृति का जीवंत योग माना है तो कुछ ने इस महाकाव्य को मध्ययुगीन काव्य रूपी जादुई बगीचे का सबसे ऊंचा पेड़ माना है. तरह तरह के विद्वानों ने तरह तरह के विशेषणों से मानस को अलंकृत किया है. मेरी दृष्टि में तुलसी दास मध्यकाल अथवा भक्ति काल के प्रतिनिधि कवि थे, जिन्होंने अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय कृति रामचरितमानस के नायक श्रीराम के आदर्श तथा उनके प्रति अपनी असीम भक्तिभावना को घर घर तक पहुँचा दिया. जहाँ तुलसी का साहित्य लोगों में भक्तिभावना जागृत करता है वहीं सामाजिक चेतना तथा समरसता का भी संचार करता है. तुलसी दास की सामाजिक और लोक वादी दृष्टि मध्यकाल के अन्य कवियों से अधिक व्यापक और गहरी है. 

वैसे तो तुलसीदास जी संस्कृत भाषा के भी उद्भट विद्वान थे. यदि वे चाहते तो अपने इस महाकाव्य की रचना संस्कृत में भी कर सकते थे, परंतु बौद्ध काल से लेकर मध्य काल के आते आते तक संस्कृत  मात्र ब्राह्मणों की भाषा बनकर रह गयी थी. आम जनमानस में अपनी मातृभाषा जैसे अवधी, ब्रज, मैथिली आदि के प्रति झुकाव बढ़ता जा रहा था. ये भाषाएँ सहज, सुगम और सरल होने के साथ साथ लोकप्रिय भी हो चुकी थी. मध्य काल के जितने भी भक्त कवि थे सभी इन्हीं भाषाओं में भक्ति परक साहित्य का सृजन करने लगे थे. यहाँ तक की मुस्लिम साहित्यकारों ने भी अरबी और फारसी भाषाओं को छोड़कर अवधी और ब्रज भाषाओं में लिखना आरंभ कर दिया था. इसलिए तुलसीदास जी‌ ने भी जनमानस के रुझान तथा उनकी भावना को देखते हुए अपने ग्रंथों की रचना अवधी और ब्रज भाषा में की. कई भक्तों ने इसके पीछे अनेकों अतार्किक कहानियाँ जोड़ दी कि स्वयं शंकर भगवान और माता पार्वती ने प्रकट होकर उन्हें अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना करने की आज्ञा दी. इस तरह की कथाएँ अति भावुकता में आकर रची गयी कपोल कल्पनाएँ हैं. हाँ यह हो सकता है कि तुलसीदास जी ने स्वप्न में उन्हें देखा हो. इस तरह सपने में हम सभी अपने अपने इष्ट देव को देखा करते हैं और यह कोई अनहोनी बात नहीं है.

तुलसीदास जी द्वारा अवधी तथा ब्रज भाषा में ग्रंथों की रचना किये जाने को लेकर संस्कृत को देवभाषा माननेवाले ब्राह्मणों का एक वर्ग उनसे नाराज अवश्य हो गया था. और उन ब्राह्मणों ने न सिर्फ उनके रामचरितमानस का बल्कि स्वयं उनका भी वहिष्कार करना आरंभ कर दिया. ब्राह्मणों के इस रवैये से तुलसीदास जी काफी क्षुब्ध थे, स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी उनके मानस का प्रथम श्रोता उन्हें नहीं मिल पा रहा था. बहुत प्रयत्न के पश्चात उन्हें अपनी बहुमूल्य कृति रामचरितमानस का श्रोता मिथिला में मिला, जिनका नाम था संत श्री रूपारूण स्वामी. स्वामी जी चूंकि मिथिला के थे और मिथिला की बेटी माता सीता को अपनी पुत्री तथा अयोध्यापति महाराज दशरथ के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र को जमाता मानकर श्रद्धा भाव से उनकी पूजा किया करते थे. स्वामी रूपारूण को ही रामचरितमानस को सुनने तथा रसास्वादन करने का प्रथम सौभाग्य प्राप्त हुआ. कहा जाता है कि स्वामी जी ने ही गोस्वामी तुलसीदास जी को काशी जाकर भगवान श्री विश्वनाथ तथा माता अन्नपूर्णा के श्रीचरणों में बैठकर अपने मानस का सस्वर पाठ करके भक्तों को सुनाने का सुझाव दिया. उनके सुझाव पर ही वे काशी आये. एकाध बार उन्होंने काशी विश्वनाथ के मंदिर जाकर अपने मानस का पाठ करने श्रद्धालुओं को सुनाया भी, परंतु मंदिर के पुजारियों तथा ब्राह्मणों ने इसका पुरजोर विरोध करना आरंभ कर दिया. उनके विरोधियों का प्रश्न था कि इस बात का क्या प्रमाण है कि तुलसी दास का अवधी भाषा में लिखा हुआ रामायण शास्त्रीय और धार्मिक है.? काफी तर्क वितर्क के बाद यह निर्णय हुआ कि तुलसी दास के रामचरितमानस को  संस्कृत भाषा में लिखे गये अन्य ग्रंथों, वेदों तथा उपनिषदों के सबसे नीचे रखकर रात भर मंदिर में छोड़ दिया जाये, इसका निर्णय भगवान विश्वनाथ करेंगे कि यह धार्मिक ग्रंथ है या नहीं. ऐसा ही किया गया. प्रात: काल जब मंदिर का पट खुला तब तुलसी दास जी के सभी विरोधी यह देखकर स्तब्ध रह गये कि ग्रंथों के सबसे नीचे रखा हुआ रामचरितमानस सबसे ऊपर है और उस पर मोटे मोटे अक्षरों में "सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्" लिखा है. इसका यह अर्थ निकाला गया कि तुलसी दास का यह रामचरितमानस ही सत्य, शिव और जीवन को सुन्दर बनाने वाला है. कहा जाता है कि उस समय मंदिर में सैकड़ों की संख्या में भक्त उपस्थित थे. उन भक्तों ने भगवान विश्वनाथ की प्रतिमा के पीछे से आने वाली "सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम्" की संगीतमय ध्वनि को भी सुनी और वे सभी आनंदित होकर गोस्वामी जी के साथ साथ मानस की भी जयकार मनाने लगे.  हो सकता है कि इस कथा में अतिशयोक्ति हो, परंतु एक बात नर्विवाद सत्य है कि मानस की सरल, सुबोध और सहज भाषा ने ही आम जनता को आकर्षित किया और इसकी लोकप्रियता दिनों दिन बढ़ती चली गयी. इतना सब कुछ के बाद भी काशी के ब्राह्मणों का रोष कम न हुआ और वे लोग मानस की मूल प्रति को नष्ट करने का कुचक्र रचने लगे, परंतु आम लोगों की आस्था के समक्ष उनकी कुटिलता टिक नहीं पायी. अब आलम यह है कि जिस मानस की रचना अपनी भक्तिभावना से प्रेरित होकर उन्होंने स्वांत:सुखाय के लिए की थी, उसे व्यापार बनाकर मानस गायक लाखों और करोड़ों में खेल रहे हैं.

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़ें रामचरितमानस पर आलोचना और समालोचना.)

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