डॉ राजेश श्रीवास्तव 

निदेशक रामायण केन्द्र 

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हे राम! 

महात्मा गांधी  के बारे में सोचते हुए विचार आया। बा को गुजराती गिरधर रामायण बहुत प्रिय थी।  उनके पास एक प्रति थी जिसे वे यात्रा में भी साथ रखती और कभी कभार गुनगुनाती भी थीं। बापू ने अपने राजनैतिक अथवा सामाजिक जीवन में  कभी रामायण पर खुलकर चर्चा नहीं की। किंतु रामराज्य की स्थापना में उनकी रुचि थी।  1943  में बनी फिल्म  रामराज्य  उन्होंने देखी थी । उनके धार्मिक संस्कार प्रबल थे। बस वही अंतिम सत्य था। 

भौतिक संसार से परे एक अवचेतन संसार हमारे भीतर बसा होता है। शरीर से ऊपर की यात्रा परमात्मा  का मार्ग है और आत्मा का मार्ग भीतर है। आत्मा और परमात्मा  का यह कठिन भेद कठोपनिषद में अनुप्राणित  है। गांधी के महात्मा नामकरण के पीछे यह सूत्र भी सार्थक लगता है। कवि नागार्जुन  उनकी प्रशंसा में लिखते हैं  -

धन्य अनुशासन तुम्हारी तर्जनी का  । 

मालूम हो गया जीने का तरीका।।       

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हे राम! एक शब्द मात्र नहीं,  अंतःकरण की वह ध्वनि है जो हमारी सूक्ष्म चेतना को परिभाषित करती है। यह एक ऐसी यात्रा का संकेत है जो आत्मा को परमात्मा  से जोड़ती है। यह एक ऐसा पड़ाव है जहाँ भौतिकता अपना चौला परिवर्तित कर आध्यात्मिकता के सुनहले रंग को धारण कर लेती है।  शंखध्वनि के समान स्वरलहरी मन मस्तिष्क को आह्लादित करने लगती है और प्रभु की निकटता का साक्षात्कार  भी होता है। प्रभु राम का स्मरण करना एक बाह्य प्रक्रिया है किंतु हे राम! अंतःकरण में विराजित प्रभु का आह्वान है।महात्मा गांधी इन अर्थों में भी महान है कि वे प्रभु राम की ही तरह त्याग को सर्वोपरि मानते हैं।  बेशक उनके राम दशरथनंदन राम नहीं  हैं किंतु *राम नाम का मरम है आना* को उनका चरित्र  सार्थक ही करता है। 

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चरखे से सूत कातने का कोई तो अर्थ होता है। इसे आप स्वदेशी से आरंभ कर लघुउद्योग और स्वरोजगार  तक जोड़ सकते हैं।  और चाहें तो एक कला के रूप में इसका आनंद ले सकते हैं। अहमदाबाद के गाँधी आश्रम में यह अनुभव भी रोचक था।गाँधीजी यहीं स्वचिंतन से विश्व समस्याओं का  निदान तलाशा करते थे।  मेरा जब जब साबरमती आश्रम जाना हुआ लगा- वे साक्षात उपस्थित  होकर मुझे पुकार रहे हैं। - आओ,  यहाँ बैठो। और मैं उनके चरखे  को स्पर्श करता रामतत्व के उस मर्म को आत्मसात करने का प्रयास कर रहा हूँ  जिसे केवट ने सहज भाव से ही समझ लिया था -

कहहु तुम्हार मरमु  मैं जाना।

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