-रामबाबू नीरव
आज कल्ह से अधिक ठंड थी और कुहासा भी घना था. कंपकंपा देने वाली इस ठंड में बाहर निकलना मुश्किल था. राजनगर के उत्तरी छोर पर स्थित एक मुहल्ले में मास्टर दीनदयाल जी अपने खपरैल मकान के दरवाजे पर बैठे अंगीठी की आग सेक रहे थे. ठंड के कारण चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था. अचानक वे चौंक पड़े. उनके घर के सामने दो साइकिल रिक्शा आकर रूका था. आगे वाले रिक्शा से दो महिलाएं उतर रही थी और पीछे वाले से एक हट्टा-कट्टा नौजवान उतरा. दोनों महिलाओं ने हल्का घूंघट काढ़ रखा था और ठंड से बचने के लिए काडीगन के ऊपर कीमती कश्मिरी साल ओढ़ रखा था. चूंकि मास्टर साहब उनका चेहरा स्पष्ट देख नहीं पा रहे थे, इसलिए वे उन्हें पहचान पाने में असमर्थ थे, लेकिन उनके ओठों पर थिरक रहे मोहक मुस्कान ने उन्हें उनकी ओर आकर्षित किया. वे समझ नहीं पाए कि ये दोनों अपरिचित महिलाएं उनके यहां क्यों आयीं है. सबसे अधिक आश्चर्य उन्हें उस युवक को देखकर हुआ था. उस युवक के हाव-भाव से उन्हें लगा कि वह उन दोनों महिलाओं का बॉडीगार्ड होगा. चकित भाव से उन्हें देखते हुए वे उठकर खड़े हो गये. तब तक रिक्शा का किराया चुकता कर दोनों महिलाओं के साथ साथ वह उनका बॉडीगार्ड भी बारामदे पर चढ़ चुका था. सबसे आगे जो महिला थी वह दीनदयाल जी की ओर देखती हुई पूछ बैठी -"क्या मास्टर दीनदयाल जी का घर यही है ?"
"जी हां यही है और मैं ही दीनदयाल हूं. आप लोग कौन हैं.?" विनम्रता पूर्वक उत्तर देते हुए उन्होंने भी जिज्ञासा पूर्वक प्रति प्रश्न किया. परंतु उनकी जिज्ञासा पर महिलाओं ने ध्यान नहीं दिया और शिष्टाचार निभाती हुई दोनों हाथ जोड़कर उनका अभिवादन किया - "नमस्ते."
"नमस्ते....!" औपचारिकता निभाते हुए दीनदयाल जी ने भी अपने हाथ जोड़ दिये. और कौतूहल पूर्ण नेत्रों से उन दोनों को निहारने लगे. मगर उनके कौतूहल को शांत करने की वजाए वह महिला अजीब सा प्रश्न पूछ बैठी -
"आपका एक लड़का है, क्या नाम है उसका?" उस महिला के मुंह से अपने पुत्र के बारे में सुनकर दीनदयाल जी बुरी तरह से घबरा गये और वे मन ही मन सोचने लगे - "मेरे बेटे से ऐसी कौन सी ख़ता हो गयी जो ये दोनों महिलाएं उसे ढ़ूंढ़ती हुई उनके घर तक आ गयी है.?" उनके चेहरे पर उभर आयी घबराहट को देखकर महिला उन्हें सांत्वना देती हुई बोली -"आप घबराई नहीं, मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर दीजिए. आप के पुत्र का नाम क्या है?"
"जी मुकुल." मास्टर साहब के मुंह से मरियल सा स्वर निकला.
"इस समय मुकुल कहां है?"
"घर के अंदर है."
"क्या हमलोग घर के अंदर आ सकती हैं.?"
"हां हां क्यों नहीं, आईए." दीनदयाल जी अंदर जाने के लिए मुड़ गये. उक्त महिला युवक की ओर देखती हुई बोली -"जग्गू, तुम यहीं रूको, यदि मुकुल भागने की कोशिश करे, तब तुम उसे पकड़ लेना."
"ठीक है दीदी." जग्गू दरवाजे पर रखे चौकीपर बैठ गया और वे दोनों महिलाएं अंदर दाखिल हो गयी.
घर के अंदर एक बरामदे पर दीनदयाल जी की पत्नी शोभा देवी, पुत्री वंदना, जिसकी उम्र लगभग उन्नीस वर्ष की रही होगी तथा पुत्र मुकुल बैठा आग सेक रहा था. वे तीनों मास्टर साहब के साथ दो महिलाओं को अंदर आते देख बुरी तरह से चौंक पड़े. शोभा देवी और वंदना तो अचंभित थी, मगर मुकुल को किसी अनहोनी की आशंका हो गयी और वह एक झटके में उठकर खड़ा हो गया. उसे खड़ा होते देख कर वही महिला गला फाड़ कर चिल्ला पड़ी -"मास्टर साहब इसे पकड़िए, यह भाग जाएगा." मास्टर साहब जैसे ही उसे पकड़ने के लिए लपके कि वह एक ही छलांग में दरवाजे पर पहुंच गया. वहां जग्गू मुस्तैद था, उसने उसे दबोच लिया और घसीटते हुए अंदर ले आया. दीनदयाल जी, शोभा देवी और वंदना भौंचक सी इस अनहोनी को देख रही थी. उन लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह सब हो क्या रहा है.? जग्गू ने मुकुल को दोनों महिलाओं के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया.
"तुम हमलोगों को पहचानते हो?" पहली वाली महिला ने ही प्रश्न किया.
"न..... नहीं....." मुकुल इतना नर्वस हो चुका था कि हकलाने लगा. तभी उसके गाल पर एक जोरदार तमाचा पड़ा और वह लड़खड़ा कर गिरने ही वाला था कि दीनदयाल जी ने उसे थाम लिया और इसके साथ ही दोनों महिलाओं ने अपना-अपना घूंघट उलट दिया. जहां शोभा देवी और वंदना उन दोनों की इस हरकत से बौखला रही थी, वहीं दीनदयाल जी उन दोनों के अप्रतिम सौंदर्य को देखकर भौंचक रह गये. उनकी समझ में न आया कि इतनी खूबसूरत ये दोनों महिलाएं आखिर है कौन और मेरे बेटे के साथ ऐसी बदसलूकी क्यों कर रही है? उन दोनों महिलाओं में से एक की उम्र लगभग पैंतालीस वर्ष की रही होगी, जबकि दूसरे की लगभग पच्चीस वर्ष. घूंघट उलटने के बाद बड़ी वाली महिला ने पूछा -"अब बताओ हम लोग कौन हैं."
"मैं नहीं जानता, मुझे छोड़ दीजिए." मुकुल जोर जोर से रोने लगा.
"आप लोग आखिर हैं कौन जो मेरे बेटे को इस तरह से परेशान कर रही हैं." शोभा देवी से अपने बेटे का क्रंदन देखा न गया और वे उस महिला पर बरस पड़ी.
"हमलोग कौन है यह आपका बेटा ही बतलाएगा." शोभा देवी को झिड़कने के बाद वह पुनः मुकुल की ओर देखती हुई ऑंखें तरेरने लगी -"बताते हो या जग्गू से पिटाई करवाऊं."
"नहीं.... नहीं बताता हूं. आप कल्पना थियेटर की बाईं जी हैं."
"चुप....!" इतनी कसकर डपटा उस महिला ने कि मुकुल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी. -"हमलोग बाजी नहीं, कलाकार हैं, आदर के साथ नाम लो हमारा. बोलो क्या नाम है हमारा."
"हुस्नबानो.....!"
"और इसका?"
"मीनाक्षी.!" ऐसा लगने लगा जैसे मुकुल हुस्नबानो के वश में हो चुका हो. वह तोता की तरह बकने लगा.
"मास्टर साहब क्या हमलोगों को बैठने के लिए नहीं कहिएगा.?" हुस्नबानो दीनदयाल जी की ओर देखती हुई बोली.
"चलिए उस कमरे में." दीनदयाल जी अपने शयनकक्ष की ओर बढ़ गये. हुस्नबानो मुकुल की कलाई थामे हुई उनके पीछे थी और मीनाक्षी उसके साथ चल रही थी. जग्गू बाहर चला गया. शोभा देवी और वंदना किंकर्तव्यविमूढ़ सी उनके साथ चलती हुई कमरे में आ गयी. वैसे तो दीनदयाल जी का कमरा साधारण था, मगर साफ-सुथरा और आकर्षक दिख रहा था. दीवारों पर महापुरुषों की तस्वीरें लगी थी.
कमरे में लकड़ी की कुर्सियां रखी थी.
दीनदयाल जी मुकुल के साथ बिछावन पर बैठ गये. हुस्नबानो तथा मीनाक्षी कुर्सियों पर बैठ गयी और शोभा देवी अपनी बेटी के साथ खड़ी रही. अबतक उन लोगों के समक्ष रहस्य खुल नहीं पाया था. शोभा देवी और वंदना अभी भी हैरत से उन दोनों को देख रही थी. वहां तल्ख़ खामोशी छाई हुई थी. इस खामोशी को भंग करती हुई हुस्नबानो की आवाज उभरी - "मास्टर साहब अब तो आप समझ गये होंगे कि हमलोग कौन हैं?"
"हां, वह तो मैं समझ गया कि आप लोग कल्पना थियेटर की कलाकार हैं, लेकिन मेरे बेटे ने किया क्या है?"
"डाका डाला है."
"क्या.....?" दीनदयाल जी के साथ साथ शोभा देवी भी हैरान रह गयी.
"आपलोगों ने यह जानने की कभी कोशिश की कि आप का बेटा सारी सारी रात कहां रहता है?"
"यह तो सात बजे शाम में ही खाना खाकर घर से यह कहकर चला जाता है कि अपने दोस्त के यहां पढ़ने जा रहा हूं."
"झांसा देता है आपका बेटा आप लोगों को. यह पूरी पूरी रात थियेटर में रहता है और हम नर्तकियों की अदाओं पर रुपए लूटाया करता है."
"रुपए.....!" ऐसा लगा जैसे मास्टर साहब को चक्कर आने लगा हो. वे विस्फारित ऑंखों से अपने बेटे को घूरते रहने के बाद शोभा देवी की ओर देखते हुए व्याकुल स्वर में बोले -" शोभा जरा आलमीरा में देखो रुपए है कि नहीं.?" शोभा देवी भी पागल हो गई और तेजी से कमरे से बाहर निकल गयी. मुकुल तो जैसे बर्फ की तरह जम कर रह गया था. कुछ देर के लिए वहां पूर्णरूपेण सन्नाटा छाया रहा, फिर कुछ ही देर में शोभा देवी अपनी छाती पीटती हुई वहां आ गई और बेशुमार ऑंसू बहाती हुई बोली -"हम लूट गये जी, बर्बाद हो गये. आलमीरा में एक लाख रुपया ही है."
"क्या.....?" अब छाती पीटने की बारी मास्टर दीनदयाल की थी. वे मुकुल पर टूट पड़े.
"बर्बाद कर दिया इस नालायक ने, अब कैसे होगी मेरी बेटी की शादी."
"रूक जाइए मास्टर साहब." हुस्नबानो उनको रोकती हुई बोल पड़ी. -"इस दुर्घटना में सिर्फ यह लड़का ही दोषी नहीं है, आप लोग भी दोषी हैं और हमलोग भी दोषी हैं. आपलोगों का दोष यह है कि आप लोग अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते और हमारा दोष यह है कि हम लोग अपनी मनमोहक अदाओं से मुकुल जैसे मासूम बच्चों को अपने रूप-जाल में फंसा देती हैं. लेकिन यह हमारी मजबूरी है क्योंकि यह हमारा पेशा है. खैर छोड़िए इन बातों को यह बताइए कि आपके बेटे ने कितना रुपया चुराया है."
"दो लाख रुपए थे, मगर उसमें अब मात्र एक लाख ही है. वंदना की शादी के लिए रखा था हमने, अब क्या होगा?" अपना मुंह ढांप कर रोने लगे मास्टर दीनदयाल. उनके साथ साथ शोभा देवी और वंदना भी रो रही थी. जबकि मुकुल करुणा पूर्ण नेत्रों से उन लोगों को एकटक देखे जा रहा था. उसने तो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि हुस्नबानो और मीनाक्षी उसके घर पर भी आ सकती है. हुस्नबानो ने कुछ देर उन लोगों को रोने दिया फिर वह दीनदयाल जी को सांत्वना देती हुई बोल पड़ी। -"देखिए मास्टर साहब अब रोने-धोने से तो कुछ होनेवाला है नहीं, आपके बेटा ने एक लाख चुराया था, उसमें से इसने हम नर्तकियों पर मात्र पचास हजार ही लुटाया था, बाकी का पचास हजार इसने क्या किया, इससे पूछिए."
"बोल रे कुकर्मी पचास हजार का क्या किया.?"
"चालीस हजार मेरे पास है."
"और दस हजार क्या हुआ." हुस्नबानो ने पूछा.
"मेरे दोस्तों ने खर्च करवा दिया, नाश्ता और शराब में."
"यानी तुमलोग थियेटर में शराब पीकर आते थे?"
"हां....!" मुकुल की इस स्वीकारोक्ति को सुनकर मास्टर साहब पर जैसे बज्रपात हो गया.
"जा रे कुकर्मी, मेरे बाप-दादा का नाम डूबो दिया. किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा हमें आज तक मेरे खानदान में किसी ने भी नशापान तो क्या ध्रुमपान तक नहीं किया था, मगर तुमने....ओह हे भगवान यह दिन दिखाने से पहले मुझे मौत क्यों नहीं दे दिया?"
"मीनाक्षी....!" हुस्नबानो मीनाक्षी की ओर देखती हुई बोली -"बैग में से रूपये निकालो." मीनाक्षी ने बैग में से रूपयों की गड्डी निकाल कर हुस्नबानो को थमा दिया. फिर हुस्नबानो रुपए दीनदयाल जी की ओर बढ़ाती हुई बोली -"मास्टर साहब, ये पचास हजार रुपए हैं, जो आपके बेटे ने मुझपर लुटाए थे. चालीस हजार आपके बेटे के पास है. बाकी जो दस हजार इसने खर्च कर दिए हैं, वह मैं नहीं लौटा सकती. फिर भी कोशिश करुंगी कि वह भी आपको लौटा दूं."
"मैं ये रुपए नहीं ले सकता, इसने आपको उपहार दिया है." दीनदयाल जी ने इंकार करते हुए कहा.
"यह उपहार नहीं पाप है हमारे लिए." हुस्नबानो थोड़ा तैश में आकर बोल पड़ी -"एक मासूम की जिंदगी तबाह करके ये रुपए रख लूं ऐसा पाप नहीं कर सकती मैं. एक पाप तो यह हो चुका है कि मेरे बेटे के उम्र यह लड़का मेरी अदाओं पर मोहित हो गया और इसने इतना बड़ा अधर्म किया, दूसरा पाप आपका घर उजाड़ कर करूं.....न, ऐसा हर्गिज ने होगा." हुस्नबानो जबर्दस्ती रुपए मास्टर साहब को थमा कर उठ कर खड़ी हो गयी. हुस्नबानो की इस दरियादिली को देखकर सिर्फ दीनदयाल जी ही नहीं बल्कि शोभा देवी और वंदना भी भौंचक रह गयी. सभी सोच रही थीं कि क्या नर्तकियां ऐसी होती हैं.? शोभा देवी उससे बेतहाशा लिपटती हुई बोल पड़ी -"बहन तुम देवी हो."
"नहीं दीदी, मुझे एक औरत ही रहने दीजिए वरना आप लोगों से दूर हो जाऊंगी." फिर हुस्नबानो वंदना की ठुढ़ी उठाती हुई बोली -"बड़ी प्यारी बेटी है आपकी. देखो बेटी मैं जो कुछ भी तुम्हें दे रही हूं, उसे मेरा आशीर्वाद समझकर स्वीकार कर लेना. हमलोग खानाबदोश हैं, आज यहां कल कहीं और.? तुम्हारी शादी में तो आ न सकूंगी इसलिए यह उपहार दे रही हूं." हुस्नबानो ने अपने गले में से चंद्रहार निकाल कर वंदना के गले में डाल दिया. चमत्कृत रह गयी वंदना. वह उनके कदमों में झुक गई. हुस्नबानो ने उसे उठाकर सीने से लगा लिया. दीनदयाल जी बोल पड़े- "आपको मेरी पत्नी ने कहा कि आप देवी हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि आप महादेवी हैं."
"क्या जीजू आप भी मुझे अपने से अलग कर देना चाहते हैं." इस गमगीन माहौल में भी हुस्नबानो हंस पड़ी.
"जीजू..... आपने मुझे जीजू कहा." चमत्कृत रह गये मास्टर साहब.
"हां, आपकी पत्नी को मैंने दीदी कहा है, तो आप मेरे जीजू हुए कि नहीं.?" हुस्नबानो की बात सुनकर सभी हंस पड़े. तभी मुकुल हुस्नबानो के चरणों में गिर पड़ा और रोते हुए बोला -"मुझे माफ़ कर दीजिए मौसी मुझसे बहुत भारी पाप हो गया."
"उठो बेटा, अब तुम सुधर गये हो, मुझे इस बात की खुशी है. ठीक है जीजू अब हमें इजाजत दीजि."
"अरे ऐसा कैसे होगा, चाय-नाश्ता तो करके....!" दीनदयाल जी ने आग्रह किया.
"नहीं.... रहने दीजिए देर हो गयी, फिर कभी." हुस्नबानो के साथ साथ मीनाक्षी भी कमरे से बाहर निकल गयी. सभी प्रफुल्लित भाव से उन दोनों को देखते रह गए.
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क्रमशः..........!
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