- रामबाबू नीरव 

कल्पना थियेटर के कलाकारों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि इस जन्म में उन्हें किसी सभ्रांत परिवार में आने का सौभाग्य प्राप्त होगा और उनका इतना बड़ा सम्मान होगा. जब उन लोगों को भोजन के लिए डायनिंग टेबल पर बैठाया गया, तब टेबल पर सजे छप्पन भोग को देखकर उनकी ऑंखें चौंधिया गयी. रग्घू काका ने बताया कि यह सारा आयोजन बड़े मालिक सेठ धनराज जी के हुक्म से किया गया है. अभय के अनुरोध पर भोजनोपरान्त वे सभी ऊपर वाली मंजिल पर स्थित अभय के निजी कक्ष में आ गये. अभय की दृष्टि राजीव उपाध्याय की ओर चली गयी. थियेटर में राजीव के साथ की गयी बदसलूकी के कारण उसके मन में जो आत्मग्लानि उत्पन्न  हुई थी उससे वह उबर नहीं पाया था, इसलिए  राजीव से क्षमा याचना करते हुए बोला - "राजीव, थियेटर में मैं तुम्हारे साथ बहुत अभद्रता से पेश आया था, मुझे क्षमा कर दो"

"कैसी बातें करते हैं सर आप, वह सब कुछ तो हमलोग भूल चुके हैं."

"नहीं, नहीं भूले हो तुम यदि भूले होते तो मुझे सर कहकर नहीं बुलाते?" अभय की इस बात में छुपे आत्मीयता के बोध ने राजीव को मुग्ध कर दिया.

"जी......" उसके मुंह से हर्ष भरी सिसकारी निकल पड़ी. 

"अब हमलोग दोस्त हैं, इस तरह सर....सर कहकर मेरा मजाक मत उड़ाओ." अब समीर बदायुनी और विकास आनंद भी हैरत से अभय की ओर देखने लगे. 

"अभय ठीक कह रहा है हमलोगों के बीच अब इस तरह की‌ औपचारिकता नहीं होनी चाहिए." रीतेश ने अभय की ओर से कहा. 

"ठीक है,अबसे इस बात का ख्याल रखेंगे हमलोग." समीर बोला.

"अरे हां, कंचन हुस्नबानो जी की तबीयत अब कैसी है." अचानक अभय को थियेटर में घटी उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की याद आ गयी.

"वे तो ठीक हैं, शायद कहीं जानेवाली भी हैं."

"कहीं जाने वाली हैं, इतनी बड़ी घटना के बाद भी......!" 

"कौन सी घटना.....?" सिर्फ कंचन ही नहीं बल्कि शहनाज़, समीर, विकास और राजीव भी अभय की बात सुनकर हैरानी रह गया. रीतेश भी चौंक पड़ा था.

"क्या तुम लोगों को कुछ भी मालूम नहीं है?" अभय ने चकराते हुए पूछा.

"नहीं तो.... क्या हुआ था." थियेटर के सभी कलाकार आश्चर्यचकित थे, ऐसी कौन सी घटना घटी थी, जिसकी जानकारी अभय को है, मगर उन लोगों को नहीं है.? और अभय को हैरानी इस बात की हो रही थी कि मोहन बाबू और हुस्नबानो ने उस पापी जीतन बाबू की काली करतूतों को छुपाया क्यों. निश्चित रूप से उन लोगों ने कुछ सोचकर ही ऐसा किया होगा. अब अभय धर्म संकट में पड़ गया. उस घटना के बारे में इन लोगों को बताए या न बताएं. उसके दिल ने कहा -"अभी कुछ न बताओ, यही उचित  होगा."

"आप चुप क्यों हो गये, बताईए न क्या हुआ था.?"

"शहनाज़ व्याकुल भाव से पूछ बैठी.

"कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ था, वो उनको मामूली सी चोट आयी थी." बड़ी सफाई से अभय ने खुद को बचा लिया. उसके कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि सबों को विश्वास हो गया और उन लोगों ने राहत की सांस ली. कुछ देर के लिए वहां सन्नाटा पसरा गया. उस खामोशी को रीतेश ने भंग किया और कंचन की ओर  देखते हुए बोला -

"कंचन जी, यदि आप बुरा न मानें तो एक बात  पूछूं."

"हां हां, अवश्य पूछिए, मैं बुरा क्यों मानूंगी.?" कंचन के अधरों पर मृदुल मुस्कान थिरकने लगी.

"मुझे आश्चर्य हो रहा है कि आप जैसी विचारवान, विदूषी, निश्छल और सर्वगुण सम्पन्न युवती थियेटर की दुनिया में कैसे आ गयी?"

"सब नसीब का खेल है रीतेश बाबू -"कंचन के चेहरे की कांति लुप्त हो गयी. -"हम थियेटर के कलाकार बाहर से जितने खुश नजर आते हैं, अंदर से उतने ही दु:खी हैं. हमारी जिन्दगी तूफान में फंसी हुई उस कश्ती के समान है जो थपेड़े खाने को मजबूर रहा करती है. यदि आप सुनना चाहते  हैं तो मैं अपनी दर्द भरी दास्तान सुना देती हूं, मगर शर्त यह है कि आप लोग रोइएगा नहीं."

"क्या इतनी दर्दनाक कहानी है आपकी.?"

"जी, दर्दनाक तो है, यदि.....!"

"नहीं.... नहीं रूकिए मत, आप सुनाइए."

रीतेश व्यग्र भाव से बोला. उसके साथ साथ अभय और अनुपमा की भी उत्सुकता बढ़ गयी. वे सभी कंचन की ओर देखने लगे. 

"तो सुनिए...." कंचन सोफा पर संभल कर बैठती हुई अपनी कहानी सुनाने लगी- "मेरा जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था. मेरे पिताजी श्री राघवेन्द्र सिन्हा नगर निगम कार्यालय में बड़ा बाबू थे. वे इतने इमानदार थे कि लोग उनकी इमानदारी की कसमें खाया करते थे.  मैं उनकी प्रथम संतान थी. मुझसे लगभग 8  वर्षों का छोटा मेरा एकमात्र भाई अनुराग था. काफी मान-मनौव्वल के बाद उसका जन्म हुआ था इसलिए वह हम सबों के लिए राजदुलारा था. बचपन से ही मुझे लता जी का गीत गाने का शौक था. मेरी आवाज़ भी बहुत अच्छी थी. जब भी मैं लता जी का गाया हुआ कोई गीत गुनगुनाने लगती तब पिताजी मेरा उत्साह बढ़ाते हुए कहते -"तुम बहुत अच्छा गाती हो बेटी, इसी तरह गाती रहो, कभी न कभी यह कला तुम्हारे काम आएगी." उनका प्रोत्साहन पाकर मेरा उत्साह बढ़ जाता और‌ मैं खुलकर गाने लगती. परंतु  मेरी मां को मेरा गाना-बजाना पसंद न था. उनकी टोका-टोकी पर न तो मैं ध्यान देती और‌ न ही पिताजी देते. 

उन दिनों  मैं  स्नातक प्रथम वर्ष की छात्रा थी. मेरी इच्छा थी कि मैं हिन्दी साहित्य में पीएचडी करूं और किसी कालेज में लेक्चरर बन जाऊं. मगर मेरे सारे सपने बिखर गये. हमलोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन हमारे ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ेगा. एक दिन मेरी मां अचानक चक्कर खाकर गिर गई. उन्हें एक बड़े‌ नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया. तरह तरह के जांच-पड़ताल के बाद ज्ञात हुआ कि उनको ब्लड कैंसर है. आप सोच सकते  हैं,  इस जान लेवा बीमारी के बारे  में जानकर एक इमानदार बड़ा बाबू के ऊपर क्या बीती होगी.?

अनुराग उस समय लगभग लगभग छः वर्ष का रहा होगा और मेरी उम्र बीस वर्ष की थी. मां की इस जानलेवा बीमारी ने पिताजी के साथ साथ मुझे भी तोड़ कर रख दिया. पिताजी मां के इलाज में पानी की तरह पैसा बहाने लगे. मैं नहीं जान रही थी कि पिताजी पैसा कहां से ला रहे हैं? मां की बीमारी के कारण हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति काफी जर्जर हो‌ चुकी थी. परंतु लाख कोशिशों के बाद भी पिताजी मां को नहीं बचा पाये. मां की मौत ने पिताजी को इस तरह से तोड़ डाला कि उनके लिए यह दुनिया ही वीरान हो गयी. यदि उनके दिल में मेरे ‌और अनुराग के प्रति मोह-माया न रहा होता, तो शायद वे भी जिंदा न रहते. मेरी और अनुराग की जो हालत हुई उसे मैं बयान नहीं कर सकती." कंचन की ऑंखों से ऑंसू बहने लगे. रो तो सभी रहे थे, मगर अभय के साथ साथ रीतेश हिचकियां ले लेकर रो रहा था. अनुपमा अपने ऑंचल से कंचन के ऑंसू पोंछती हुई बोली -"कंचन जी, यदि बहुत तकलीफ़ हो रही हो तो....!" 

"नहीं.... नहीं, बस मां की याद आ गयी थी."

"सुनाने दो अनु, अपनी व्यथा सुनाने से दिल का दर्द कुछ कम हो जाता है." रीतेश बोल पड़ा.

"शायद आप ठीक कहते हैं." कंचन तब तक संभव चुंकी थी. फिर वह आगे की कहानी सुनाने लगी -"लगातार केई महीनों तक हम तीनों प्राणी मां की मृत्यु का शोक मनाते रहे. मगर ऐसा कब तक चलता? मैं पिताजी को जबरन ऑफिस भेजने के बाद अनुराग को स्कूल पहुंचा देती. अब मेरी जिम्मेदारियां काफी बढ़ गयी थी. पिताजी  की आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं थी कि वे मुझे उच्च शिक्षा दिला पाते. इसलिए मैंने अपनी पढ़ाई ‌रोक दी. यह जानकर कि मैंने पढ़ाई रोक दी है पिताजी मुझे पर विफर पड़े - "कंचन तुमने पढ़ाई क्यों रोक दी.?"

"पिताजी, मेरी पढ़ाई से ज्यादा जरूरी है अनुराग को पढ़ाना, और फिर हमारी आर्थिक स्थिति....?"

"उसकी चिंता तुम क्यों करती हो.?"

"मैं न करूंगी तो कौन करेगा? मां तो है नहीं....जो.....!"

"बस बस करो." पिताजी समझ गये कि मां को याद करके मैं रो पड़ूंगी." इसलिए उन्होंने उस विवाद को वहीं समाप्त कर दिया. मैंने मन ही मन दृढ़ निश्चय ले चुकी थी कि जबतक अनुराग अपने पांव पर खड़ा नहीं हो जाता, मैं विवाह नहीं करूंगी. मगर पिताजी को यह मंजूर न था. जब मैं इक्कीस वर्ष की हुई तब उन्हें मेरी शादी की चिंता सताने लगी. उनकी इस चिंता से मैं बेखबर थी. कभी उन्होंने ‌मेरे समक्ष इसकी चर्चा भी ‌नहीं की. वे चुपचाप मेरे लिए वर की तलाश कर रहे थे. जब उनकी तलाश पूरी हो गई तब उन्होंने एक दिन मुझे बताया -

"बेटी कंचन, मैंने तुम्हारी शादी पक्की कर दी है."

"क्या.....?" उनकी बात सुनकर मैं हैरान रह गयी और फटी फटी ऑंखों से उनकी ओर देखने लगी.

"हां बेटी, तुम्हारी मां तो है नहीं इसलिए मैंने सोचा जितनी जल्द हो सके तुम्हारे हाथ पीले कर दूं."

"बहुत ग़लत किया पिताजी आपने, मुझसे पूछे बिना इतना बड़ा निर्णय आपने कैसे ले लिया.?" मैं क्षुब्ध स्वर में बोली.

"क्या एक पिता को इतना भी हक नहीं कि वह अपनी जवान बेटी के भविष्य का फैसला कर सके?" पिताजी की करुणा पूर्ण बातें सुनकर मैं तड़प उठी. फिर भी मैं अपना रोष प्रकट करती हुई बोली -"आपने यह भी नहीं सोचा कि इस घर से मेरे जाने के बाद अनुराग का क्या होगा और आपका क्या होगा.?"

"जो भी होगा ‌अच्छा ही होगा बेटी. मैं सब संभाल लूंगा." 

"क्या संभाल लेंगे आप....कैसे संभाल लेंगे.? आप खुद ऑफिस जाने की तैयारी करेंगे याकि अनुराग को स्कूल भेजेंगे.?" मैं जमीन पर बैठकर फूट फूटकर रोने लगी. 

"बेटी....!" पिताजी मेरे सामने बैठ गये और मेरे ऑंसू पोंछते हुए विनीत भाव से बोले-"बेटी एक पिता का फर्ज मुझे निभाने दो. नहीं तो यह बेरहम समाज ताने दे देकर मुझे जीते-जी मार डालेगा. मैं तुम्हारी शादी जिस परिवार में कर रहा हूं वे लोग बहुत अच्छे हैं. तुम जब चाहो अपने पिता के पास आकर रह सकती हो." उनकी  विवशता के समक्ष पराभूत हो गयी मैं. उनकी पीड़ा को महसूस कर मैंने मौन स्वीकृति दे दी.

                      ******

मैं नहीं जानती कि उन्होंने मेरे लिए दुल्हा ‌कितने में खरीदा और दहेज तथा शादी के अन्य खर्च के लिए रुपए कहां से लाए? हां मैं इतना अवश्य जानती थी कि मां के उपचार के लिए उन्होंने प्रोविडेंट फंड तथा एक साहुकार से ऋण लिया था. अब मेरी शादी के लिए रुपए कहां से लाए यह मुझे ज्ञात न हो सका. खैर शादी का दिन मुकर्रर हो चुका था. मेरी  शादी होने की सबसे अधिक खुशी अनुराग को हुई थी. घर में मेहमान आने लगे थे. पिताजी के बहुत ही सीमित रिश्तेदार थे. बल्कि यूं कहा जाए कि रिश्तेदार थे ही नहीं, एक उनके दूर के रिश्ते की बहन थी - कलावती बुआ. वे अपनी पुत्री के साथ एक सप्ताह पूर्व ही आ धमकी. वे कर्कशा स्वभाव की थी. पहले भी यहां आती रही हैं और जाते जाते जबतक मेरी मां से एकबार झगड़ न लेती उनके पेट का दाना हजम न होता. ठीक उनके ही स्वभाव की उनकी पुत्री भी थी. मेरी एक चचेरी मौसी थी. डा० विभा रानी. वे पटना विमेंस कालेज में प्रोफेसर थी. चूंकि वे सुशिक्षित थी, इसलिए उनका स्वभाव और आचरण भी उसी अनुरूप था. वे मुझे काफी मानती थी. जब उन्हें पता चला कि मैंने पढ़ाई छोड़ दी है, तब उन्हें अतिशय दु:ख हुआ था. उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा था कि मेरी पढ़ाई का पूरा खर्च मैं वहन करूंगी, तुम पढ़ाई मत छोड़ो, मगर मैंने उनकी एक न सुनी. उनका एक पुत्र था, अंकुर. मेरा हमउम्र था वह. उसका स्वभाव बिल्कुल अपनी मां के अनुरूप था. वह भी मुझसे काफी स्नेह रखा करता था. बस ले देकर यही दो रिश्तेदार थे हमारे. हां मेरी शादी धूमधाम से हो, इसके लिए पिता जी के मित्रगण उनका भरपूर सहयोग कर रहे थे. चूंकि पिताजी खांटी इमानदार थे इसलिए उनके दोस्तों की संख्या भी सीमित ही थी.

 नियत तिथि को बारात आयी. निर्विघ्न सारे मांगलिक कार्य सम्पन्न होते जा रहे थे.  द्वार लगा, जय माला हुआ, बारातियों का स्वागत सत्कार भी ढ़ंग से हुआ. बारातियों से लेकर हमारे मोहल्ले के लोगों ने भी पिताजी की उदारता की भूरि भूरि प्रशंसा की....... मगर विवाह मंडप पर ऐसा तमाशा हो गया, जिससे  मेरी और अनुराग की जिंदगी ही तबाह हो गयी.

                  ∆∆∆∆∆


क्रमशः........!

0 comments:

Post a Comment

 
Top