-रामबाबू नीरव


विवाह के सारे विधि-विधान के निर्विघ्न सम्पन्न होने के पश्चात जब सिंदूर दान का समय आया तब मामला फंस गया. जिस इंसान को देवता समझकर पिताजी भूरि-भूरि प्रशंसा किया करते थे, यानी मेरा होने वाला श्वसुर, समाज के संभ्रांत लोगों के समक्ष चाण्डाल का रूप धारण करके बकने लगा -"देखिए राघवेन्द्र बाबू, जब तक मेरे बांकी के दो लाख रूपए नहीं मिल जाते, आगे की रस्में नहीं होंगी." उस चाण्डाल की बात सुनकर मैं सन् रह गयी.   

"समधी जी, मैं बहुत परेशानी में हूं, शादी हो जाने दीजिए, फिर एक माह के अंदर ही सारे रुपए चुकता कर दूंगा." पिताजी के गिड़गिड़ाने की आवाज मेरे कानों में पड़ी. विवाह मंडप में मेरे तथा मेरे होने वाले पति के साथ मेरी मौसी प्रो० विभारानी भी बैठी थी, क्यों कि उन्हें ही मेरा कन्यादान करना था. वे भी उस शैतान की बातें सुनकर स्तब्ध रह गयी थी. पिताजी को गिड़गिड़ाते देख मेरा कलेजा फटने लगा. जिस स्वाभिमानी पुरुष ने अपनी अबतक की जिंदगी में किसी के समक्ष अपना सर तक नहीं झुकाया वे आज अपनी बेटी की खातिर किसी मगरूर इंसान के सामने अभ्यागत की तरह खड़े होकर दया की भीख मांग रहे थे. उनकी ऑंखों से बेशुमार ऑंसू बहने लगे, मगर सब व्यर्थ ! उस संगदिल इंसान का दिल न पसीजा. वह पहले से भी अधिक ऊंची आवाज में चीख पड़ा -"यदि पूरी की पूरी रकम अभी का अभी नहीं मिला, तो बारात वापस चली जाएगी."

"नहीं.... नहीं....ऐसा जुल्म मत कीजिए समधी जी." पिताजी ने अपनी पगड़ी उतार कर उस अमानुष के कदमों में रख दी -"इतने सारे प्रतिष्ठित लोगों के समक्ष मेरी इज्जत मत उतारिए. मेरी इस पगड़ी  की लाज रख लीजिए." मगर पिताजी की हालत पर तनिक भी रहम नहीं आया उस अधर्मी को. मैंने सुना था कि एक बेटी का बाप बहुत लाचार होता है, परंतु ऐसे किसी लाचार बाप को कभी देखी न थी, उस दिन अपने ही पिताजी को एक लाचार बाप के रूप में देखकर मेरी छाती फटने लगी. उस आदमी ने इतने पर ही बस किया होता तो गनीमत थी. उसने भरी सभा में पिताजी की पगड़ी को अपने पांव की ठोकर से उछाल दिया. तार तार हो गयी पिताजी की इज्जत. अब मेरी सहन शक्ति जवाब दे गयी. मैं एक झटके में शादी की वेदी पर से उठकर खड़ी हो गयी और सारे शर्म लिहाज को छोड़कर चिल्ला पड़ी -

"धन के लोभी कुत्ते, तुमने मेरे देवता समान पिताजी की पगड़ी उछाल दी, जा अपने बेटा को लेकर दफा हो जाओ यहां से. मैं तेरे जैसे भेड़िए के बेटे से हर्गिज भी शादी न करूंगी." मेरा रौद्र रूप देखकर वहां सन्नाटा छा गया. पिताजी जी तो एकदम से सन्न ही रह गये. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी कोमलांगी और सुलक्षणा बेटी दुर्गा का रूप भी धारण कर सकती है. वे एकदम से पत्थर की मूरत बनकर रह गये. 

"अरे, तुम खड़े खड़े मुंह क्या देख रहे हो, चलो यहां से." वह चाण्डाल अपने बेटे की कलाई पकड़कर खींचने लगा. तभी विभा मौसी उसके सामने आकर विनती करने लगी -"नहीं समधी जी, ऐसा अनर्थ मत कीजिए. मैं आपको वचन देती हूं कल्ह सुबह ही मैं बैंक से निकाल कर आपको रुपए दे दूंगी"

"चुप रहिए आप.!" उस इंसान ने मौसी की प्रतिष्ठा का भी ख्याल न किया और गला फाड़कर चिल्ला पड़ा-"अब इस बदचलन लड़की से कौन बेवकूफ होगा जो अपने बेटे की शादी करेगा.?"

तभी पिताजी की चेतना लौटी और वे मेरे समक्ष आकर कातर स्वर में बोले -"कंचन बेटी, यह तुमने क्या कह दिया.?"

"बिल्कुल ठीक कह रही हूं पिताजी." पिताजी की ऑंखों से बह रहे ऑंसुओं को पोंछती हुई मैं बोली-"जो इंसान चंद रुपयों के लिए देवता समान मेरे पिताजी को बेइज्जत करे ऐसे इंसान के बेटे से मैं हर्गिज शादी नहीं करूंगी."

"नहीं बेटी, ऐसा मत कहो....यह मर्यादा के खिलाफ है."

"हुंऽऽऽ मर्यादा....!" मैं शेरनी की भांति दहाड़ने लगी. - "किस मर्यादा की बात कर रहे हैं आप पिताजी. क्या मर्यादा सिर्फ हम औरतों के लिए ही है, क्या दौलत के लोभी इन कुत्तों के लिए कोई मर्यादा नहीं है.?" मेरी इन सच्ची मगर तीखी बातों को सुनकर सारे के सारे मर्दों की गर्दन शर्म से झुक गयी मगर किसी में भी इस अन्याय का विरोध करने का साहस न‌ था. 

"चलिए आप लोग, चलिए यहां से. यह बदमिजाज लड़की हम सब को बेइज्जत कर रही है" लड़के का बाप अपने बारातियों को उकसाते हुए बोला. वह खुद अपने बेटे को खींचते हुए दरवाजे की ओर बढ़ गया. यह देखकर पिताजी उसके चरणों गिर पड़े और अपने ऑंसुओं से उसके पांव धोते हुए विनती करने  लगे-"नहीं समधी जी जी, रूक जाइए मैं अभी का अभी अपना यह घर आप के नाम लिख देता हूं. मेरे दरवाजे पर से बारात वापस लेकर मत जाइए."

"हट साला झूठा कहीं का, अब तुम्हारी बेटी से शादी कौन करेगा रे, इस छोकरी ने तो बेशर्मी की सारी सीमाएं पार कर दी....आ थू." उस नीच इंसान ने न सिर्फ मेरे पिताजी को ठोकर मारी दी, बल्कि उनके मुंह पर थूक भी दिया. अपने पिताजी का ऐसा अपमान भला मैं कैसे बर्दाश्त कर लेती.? क्रोध से कांपती हुई मैं उस नीच इंसान के सामने आ गयी और उसके गाल पर एक जोरदार तमाचा मार बैठी. एकबार फिर वहां सन्नाटा छा गया. सारे के सारे बाराती और मोहल्ले के लोग मुझे हैरानी से घूरने लगे. एक साधारण सी दिखने वाली लड़की का ऐसा दुस्साहस किसी को भी नहीं पच नहीं रहा था. पुरुष प्रधान इस समाज में स्त्रियां पांव की जूती होती हैं न! यहां तक कि मेरे पिताजी भी मेरे शौर्य को नहीं पचा पाए. वे मेरे सामने आकर भर्राई हुई आवाज में बोल पड़े  -"यह क्या किया बेटी तुमने, अपने श्वसुर को थप्पड़ मारा दिया."

"हां मारूंगी, जिस इंसान ने मेरे पिताजी के मुंह पर थूका है, उसे अब मैं अपनी जूती से मारूंगी. कहिए इसे यह मेरी नज़रों के सामने से दफा हो जाए." मैं नहीं जानती कि उस समय मुझ में इतनी हिम्मत कहां से आ गयी थी.? मेरा खौफनाक रूप देखकर दहेज का लोभी वह इंसान और उसका नपुंसक बेटा बुरी तरह से डर गया. फिर तो वे दोनों बरातियों समेत वहां ऐसे भाग खड़े हुए जैसे पूंछ पर मिट्टी का तेल पड़ जाने के बाद कोई कुत्ता "कूं...कूं" करते हुए भागता है. 

अचानक पिताजी के मुंह से दर्दनाक चीत्कार निकल पड़ी-"बेटी तूने यह कैसा अनर्थ कर डाला.?" वे अपनी छाती दबाते हुए धराम से जमीन पर गिर पड़े. जिन्दगी में पहली बार उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. उनकी हालत देखकर मैं बुरी तरह से घबरा गयी और उनके निकट बैठकर उनकी छाती सहलाती हुई बोली - 

"पिताजी , खुद को संभालिए " 

"अब संभालने के लिए बचा ही क्या है, सब खत्म हो गया. कोई लड़का अब तुमसे शादी नहीं करेगा.!" उनकी छटपटाहट बढ़ती जा रही थी. उनकी हालत देखकर मेरी स्थिति भी पागलों जैसी हो गयी. 

"नहीं करूंगी मैं शादी, मैं आजीवन कुंवारी रह कर आपकी और‌ अनुराग की देखभाल करूंगी."

"पगली है बेटी तू, ऐसा नहीं होता. बेटियां हमेशा से अपने ससुराल में जाकर सुखी रहती हैं...आ..आह...!" मैं भारी मुश्किल में फंसे चुकी थी. उनकी हालत पल प्रतिपल बिगड़ती जा रही थी. मेरी समझ में कुछ भी न आ रहा था कि पलभर में ही यह क्या हो गया.? अंकुर उस समय लड़का और‌ लड़के के बाप को मनाने के लिए बाहर निकल गया था.

-"कोई मेरे पिताजी को हॉस्पिटल पहुंचाओ." मैं गला फाड़कर चीख पड़ी. मैं रो रो कर लोगों से विनती करने लगी, मगर सारे लोगों ने ऑंखें फेर ली और एक एक कर मेरे घर से बाहर निकल जाने लगे. उनमें से किसी की कर्कश आवाज मेरे कानों में पड़ी -"लड़की को हमेशा अपनी मर्यादा में रहना चाहिए, जैसा किया है, उसका फल अब भुगतो." मैं न जानती थी कि समाज में इतने निष्ठुर लोग भी  रहते हैं. मैं पिताजी को उठाती हुई बोली- "पिताजी आप उठिए, मैं ले चलती हूं आपको हॉस्पिटल." तब तक हताश होकर अंकुर भी वहां आ गया और पिताजी को उठाने में मेरी मदद करने लगा.

"नहीं बेटी अब बहुत देर हो चुकी है, अपने भाई का ख्याल रखना." फिर पलक झपकते ही पिताजी के प्राण-पखेरू उड़ गये. 

"पिताजी, पिताजी....!" मैं उनके मृत शरीर को झकझोरने लगी -"हे भगवान, यह सब क्या हो गया ? मौसी जी, बुआ जी, देखिए न पिताजी कुछ बोलते ही नहीं, इन्हें कहिए न मैं उसी लड़के से शादी करूंगी."

"चुप कलमुंही, खा गयी मेरे भाई को " कलावती बुआ मेरे गाल पर जोर से एक तमाचा मारती हुई कर्कश स्वर में बोल पड़ी. -"एक ही मुंहबोला भाई था मेरा, इस करमजली ने उसे भी मार डाला. हे भगवान, कैसी मरदमार लड़की है यह, भरे समाज के बीच अपने होने वाले श्वसुर को तमाचा मार बैठी. इस कलंकिनी ने तो इस कुल का नाम डूबो दिया." बुआजी अपनी छाती पीटती हुई मगरमच्छी ऑंसू बहाने लगी. मैं एकदम से चेतना शून्य ही होकर पिताजी के निष्प्राण हो चुके शरीर को फटी फटी ऑंखों से निहारे जा रही थी. अनुराग उनके मृत शरीर पर सर पटक पटक कर रो रहा था. वहां खड़ी अन्य औरतें भी तरह तरह के लांक्षण  लगाती हुई मुझे ही कोस रही थी. सिर्फ औरतें ही नहीं बल्कि मर्दों की नजर में भी इस हृदय विदारक घटना की जिम्मेदार मैं ही थी. विभा मौसी समझ गयी कि इस अप्रत्याशित घटना ने मेरे दिलो-दिमाग को कूंद करके रख दिया है और मैं बदहवास हो चुकी हूं. यही कारण था कि मैं न तो चीख-चिल्ला रही थी और न ही मेरी ऑंखों से ऑंसू ही बह रहे थे. यह स्थिति मेरे लिए ख़तरनाक थी. विभा मौसी मनोविज्ञान की प्रोफेसर थी. उन्होंने सूझबूझ से काम लिया और मुझे रुलाने की चेष्टा करने लगी. काफी देर के बाद मुझे ज्ञात हुआ कि मेरी जिंदगी में वीरानी छा चुकी है. अब मैं भी अनुराग की तरह ही पिताजी के मृत शरीर पर सर पटक पटक कर रोने लगी. मेरी मुंहबोली बुआ मेरे साथ पुश्तों को ताड़ने के बाद अपनी बेटी के साथ, मुझे उसी हाल में छोड़ कर वापस चली गयी. विभा मौसी मुझे तथा अनुराग को संभालने में लग गयी और उनका पुत्र अंकुर पिताजी के दाह संस्कार की तैयारी में लग गया. विभा मौसी ने अंकुर को क्रियाकर्म के लिए दस हजार रुपए दिए. तब तक पिताजी के कुछ अभिन्न मित्र आ चुके थे और वे लोग अंतिम संस्कार में अंकुर का साथ देने लगे.

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क्रमशः........!

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