-रामबाबू नीरव



सारे क्रियाकर्म के समाप्त होने में लगभग पंद्रह दिन लग गये. विपदा की इस घड़ी में विभा मौसी देवी और उनका पुत्र अंकुर देवता बनकर मेरे घर आये थे. मेरे हाथों  में तो फूटी कौड़ी भी न थी, पिताजी के दाह संस्कार से लेकर श्राद्ध कर्म तक का सारा खर्च मौसी और अंकुर ने ही किया था. चूंकि ये दोनों सरकारी सेवा में थे इसलिए अधिक दिनों तक रूक नहीं सकते थे. जाते समय अंकुर मेरे हाथ में ‌दस हजार रूपये थमाते हुए बोला -"देखो कंचन इंकार मत करना, यदि तुम मुझे अपना बड़ा भाई मानती हो तो इसे मेरा आशीर्वाद समझ कर रख लो और कभी तुम खुद को अकेली मत समझना." मैं रोती हुई अंकुर से लिपट गयी.

मौसी मुझे अंकुर से अलग करके मेरे ऑंसू पोंछती हुई बोली -"देखो बेटी दुःख की घड़ी में अपने लोग ही काम आते हैं. तुम इस विषम परिस्थिति में अपना धैर्य मत खोना. आज दु:ख है तो कल्ह सुख भी होगा. हर काली रात के बाद एक सुनहरा सवेरा आता है. इस मासूम अनुराग के लिए अब तुम सिर्फ दीदी नहीं हो, बल्कि इसके पिता भी तुम हो और मां भी तुम ही हो." विभा मौसी की एक एक बात गांठ की तरह मेरे दिल में पड़ती चली गयी. अंतिम बार मैं विभा मौसी से लिपट कर खूब रोयी.

    मौसी और अंकुर के जाने के बाद मैं बिल्कुल अकेली हो गयी. अपना ही घर मुझे भूतों का डेरा लगने लगा. वैसे तो  मुझे नींद आती ही न थी, यदि आ भी जाती तो आधी रात को कोई भयानक सपना देखकर डर जाती और अनुराग को अपनी बाहों में भर कर फूट फूटकर रोने लग जाती. अनुराग भी मेरे साथ साथ रोने लगता. जब मैं चैतन्य होती तब अनुराग के भविष्य की चिंता मुझे सताने लगती. उस विषम परिस्थिति में भी मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अनुराग को पढ़ा लिखा कर इतना बड़ा आदमी बना दूंगी कि समाज के लोग देखते रह जाएंगे. इसके लिए चाहे मुझे आजीवन कुंवारी ही क्यों न रहना पड़े. जिस कलावती बुआ ने मुझे कुलक्षिणी कहा था उसे एक दिन मैं सुलक्षणा बन कर दिखा दूंगी. लेकिन मेरा सारा संकल्प धूल-धूसरित हो कर रह गया. मेरे मुहल्ले का एक बदनाम सूदखोर हजारीलाल सोनी एक दिन यमदूत की भांति मेरे समक्ष आकर खड़ा हो गया और उसकी कसैली बातें पिघले हुए शीशे की भांति मेरे कानों में पड़ने लगी -" तेरे बाप ने मुझसे छ: लाख रुपए कर्ज लिया था, वह अब ब्याज सहित सात लाख हो चुका है. तुम्हारा बाप तो मर गया, अब मेरा कर्ज़ा कौन चुकाएगा.?" उस राक्षस की बातें सुनकर मैं एकदम से सन्न रह गयी. पिताजी ने मुझे बताया ही नहीं था कि उन्होंने  हजारीलाल जैसे सूदखोर से भी कर्जा लिया है. मुझे चुप देख कर हजारीलाल गला फाड़कर कर चिल्ला पड़ा -"तू चुप क्यों है बोलती क्यों नहीं?" 

"मुझे मालूम नहीं कि पिताजी ने आप से कर्जा लिया था.?" मेरे मुंह से मद्धिम सा स्वर निकला. अब तो हजारीलाल और भी भड़क गया -"हम त जनबे करते थे, तुम्हारे बाप के मरने ‌के बाद ऐसा ही होगा."

"देखिए चाचा आप चिल्लाइए मत." अपने स्वर्गीय पिता का अपमान मुझसे बर्दाश्त न हुआ, मगर चूंकि पिताजी कर्जदार थे इसलिए मैं मजबूर थी. तभी मेरे दिमाग में एक बात बिजली की भांति कौंध गयी-"पिताजी के भविष्य निधि में कुछ न कुछ रुपए तो होंगे ही, वही निकाल कर इस चाण्डाल से पीछा छुड़ा लूंगी." प्रत्यक्ष में मैं विनीत भाव से बोली -"देखिए चाचा मुझे दो महीने की मोहलत ओर दीजिए मैं किसी न किसी तरह आप का कर्ज चुका दूंगी."

"ठीक है, तुम्हारी बात मान लेता हूं, मगर दो महीने से एक दिन भी फाजिल नहीं होना चाहिए." उसे तो मैंने टाल दिया, मगर खुद नहीं जान रही थी कि पिताजी के भविष्य निधि में कितने रुपए हैं.?

     दूसरे दिन मैं नगर निगम कार्यालय में पहुंची. मेरे पिताजी की सीट पर उनके ही एक सहकर्मी सहकर्मी बैठे थे. जब उन्हें मैंने सारी बातें बताई तब वे अफसोस जाहिर करते हुए बोले -"बेटी तुम्हारे पिताजी के भविष्य निधि का खाता तो शून्य है, वे पूरा का पूरा पैसा निकाल चुके हैं." मुझे ऐसा लगा जैसे आकाश टूटकर मेरे सर पर गिर पड़ा हो. ऑंखों के समक्ष अंधेरा छाने लगा. अब मैं क्या करूं? उस चाण्डाल से कैसे मुक्ति मिलेगी मुझे.? जैसे तैसे मैं वापस घर आयी और निढाल सी बिस्तर पर गिर पड़ी. मुझे  स्वयं का और अनुराग का भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा. मैंने उच्च शिक्षा भी प्राप्त नहीं की थी जो अनुकंपा के आधार पर मुझे नौकरी मिल जाती. 

अब मेरे समक्ष एक ही विकल्प बचा था.अपनी घरारी बेचकर हजारीलाल के कर्ज़ से मुक्ति पा लूं. चूंकि मेरा घर शहर के बीचोबीच एक में था, इसलिए अच्छी-खासी रकम मिलने की उम्मीद थी. यदि मैं हजारीलाल के हाथों बेचती तब वह कौड़ियों के भाव में ‌मेरी जमीन और घरारी हड़प लेता, इसलिए मैंने अपने बगल बाले शिवनाथ गुप्ता जी से बात की. वे धनधान्य से परिपूर्ण थे और स्वभाव के भी अच्छे थे. मेरी विवशता  को देखते हुए वे ‌घरारी लेने के लिए सहर्ष तैयार हो गये. कुल बीस लाख में सौदा तय हुआ. यह जानकर कि मैंने ‌शिवनाथ बाबू के हाथों अपनी जमीन और‌ घरारी बेच दी है, हजारीलाल आग बबूला हो उठा. उस शैतान के कोप से शिवनाथ बाबू ने ही मुझे बचाया. उस सूदखोर ने छः लाख के कर्ज के बदले दो महीने में ही मुझ पर सात लाख का दावा ठोंका था, जो सरासर बेईमानी थी. शिवनाथ बाबू ने उसकी बेईमानी का भी पर्दाफाश किया और छः लाख में ही मुझे उस चाण्डाल से मुक्ति दिला दी. मैंने शिवनाथ बाबू से कहकर घर खाली करने की छः महीने की मोहलत मांगी ली थी. मेरे पास अब चौदह लाख रुपए थे, उसमें से दस लाख फिक्स डिपॉजिट कर दिया और अनुराग का दाखिला पटना के एक अज़ीम अच्छे आवासीय स्कूल में करवा दी. उस स्कूल का एक वर्ष का फीस भी जमा करवा दी. यह सब कुछ तो हो गया लेकिन अब मैं क्या करूं, यही मेरी समझ में न आ रहा था. कई जगह नौकरी पाने का प्रयास भी की परंतु सफलता न मिली. मेरे महल्ले का एक लड़का था. वह भी मेरी तरह गीत गाने का शौकीन था और रफी साहब की आवाज में गाया करता था. वैसे उसका नाम तो अतुल कुमार था, लेकिन सभी उसे रफी बाबू कहकर पुकारा करते थे. उसे मेरे बारे में जानकारी थी कि मैं भी शौकिया तौर पर लता जी का गाना गाती हूं. एक दिन वह मेरे घर पर आया और बोला -"कंचन दीदी, मैं एक आर्केस्ट्रा में गीत गाता हूं, यदि तुम चाहो तो तुम भी वहां गा सकती हो, तुम्हारी आवाज़ अच्छी है. तुम्हारा समय‌ भी निकल जाएगा और अच्छे खासे पैसे भी मिलेंगे?"

मैं उसके प्रस्ताव को सुनकर खुशी से उछल पड़ी. और बिना कुछ सोचे समझे हां कर दी. मगर उस आर्केस्ट्रा का मालिक बहुत ही घटिया इंसान था. ऊपर से तो वह बड़ी बड़ी बातें किया करता था, मगर अंदर से महा शैतान था वह. खैर मुझे उसके स्वभाव से क्या लेना-देना. उस आर्केस्ट्रा में मुझे म्यूजिक के साथ गाने का अवसर मिला, मेरी आवाज तो अच्छी थी ही एक ही प्रोग्राम में मैं छा गयी. रफी बाबू  (अतुल कुमार) के साथ भी मेरी अच्छी ट्यूनिंग बन गयी थी. उसी ने पहली बार मुझे लता दीदी कहकर संबोधित किया और मैं कंचन से कंचन लता बन गयी. एक वर्ष तक सबकुछ  ठीक ठाक रहा. एक बार पटना के एक मंत्री के बेटे ने प्रोग्राम करवाया था. उस हरामजादे की नजर मेरी सुन्दरता पर टिक गयी. मैं नहीं जानती थी कि आर्केस्ट्रा का मालिक नृत्य गीत और संगीत की आड़ में "सेक्स रैकेट" चला रहा था. इस बात से अतुल  भी अंजान था. उस हरामखोर ने मंत्री के बेटे के साथ मेरा सौदा कर दिया. जिस होटल में हमलोग टिके थे वहां मेरे लिए अलग कमरा था. अचानक मंत्री का बेटा मेरे कमरे में आ गया और मेरे साथ जोर-जबरदस्ती करने लगा. वह शराब के नशे में था, इसलिए मैं उसे धक्का देकर होटल से भाग खड़ी हुई. मैं भागती रही भागती रही. भागते भागते अचानक किसी से टकरा कर गिर पड़ी. जिससे मैं टकराई थी वे सज्जन पुरुष थे कल्पना थियेटर के मालिक मोहन कुमार मेहता. तब से ही मैं इसी कल्पना थियेटर में हूं. मोहन बाबू हम बदनसीब औरतों के लिए देवता स्वरूप हैं. मेरा तो कोई घर द्वार है नहीं, सच पूछिए तो कल्पना थियेटर ही हम 

लोगों का घर है. मुझे जब भी मौका मिल जाता है पटना जाकर अनुराग से मिल लेती हूं."

अपनी कहानी सुनाकर कंचन खामोश हो गयी. उसकी ऑंखों से ऑंसू बह रहे थे. रो तो सभी रहे थे, मगर कंचन का क्रंदन बहुत ही मार्मिक था. अनुपमा उसे चुप कराती हुई बोली -

"चुप हो जाइए कंचन जी, हर किसी की जिंदगी में परीक्षा की घड़ी आती है."

"जी आप ठीक कह रही हैं." कंचन खुद को संभालती हुई सहज हो गयी. उसके चेहरे पर पहले वाली रौनक फिर से लौट आयी. 

"और आपकी कहानी क्या है शहनाज़ जी.?" शहनाज़ की ओर देखते हुए रीतेश ने पूछा.

"ठीक कंचन की तरह मेरी भी कहानी है, फर्क सिर्फ इतना है कि मेरे शराबी शौहर ने खुद ही मुझे लखनऊ के एक कोठे पर बेच दिया था, उस समय मेरी बेटी दो साल की थी, अपनी बेटी को कोठे की गलीज जिन्दगी से बचाने के लिए मैं मौका पाकर वहां से भाग गयी और फिर मुझे मोहन बाबू के थियेटर में पनाह मिली."

"ओह.....!" रीतेश के साथ साथ अभय के मुंह से भी एक सर्द आह निकल पड़ी.

"कंचन हुस्नबानो जी का कोई दूसरा नाम भी है क्या...?" बड़े आदर भाव से पूछा अभय ने.

"उनका कोई दूसरा नाम भी है, ये हमलोग नहीं जानती. मगर मोहन बाबू के साथ साथ थियेटर के सभी कलाकार उन्हें बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. मगर अभय हुस्नबानो जी को लेकर तुम इतने नर्वस क्यों हो गये थे."

"मैं नहीं जानता कि ऐसा क्यों हुआ, मुझे लगता है कि उनके साथ मेरा किसी न किसी तरह का कोई रिश्ता है जरूर. खैर  आज की रात मैं रीतेश के साथ थियेटर में आऊंगा और उनसे मिलकर अपनी जिज्ञासा शांत कर लूंगा."

"क्या रीतेश बाबू आएंगे थियेटर में.?" कंचन के साथ साथ शहनाज़ भी प्रसन्नता से उछल पड़ी.

"हां आऊंगा.... आप लोगों की अदाकारी देखने का मेरा भी मन कर रहा है." रीतेश ने‌ हंसते हुए कहा.

"आपका हार्दिक स्वागत है कल्पना थियेटर है रीतेश बाबू." कंचन उठकर खड़ी हो गयी और समीर की ओर देखती हुई बोली -"समीर अब हमें चलना चाहिए." कंचन की बात सुनकर सभी कलाकार  खड़े हो गये. जब वे सभी द्वार पर आए तब अभय कंचन की ओर देखते हुए बोला-

"कंचन कल्ह मेरे दादाजी आ रहे हैं."

"आं.......!" कंचन चौंक पड़ी और चकित भाव से अभय की ओर देखने लगी. उसकी समझ में न आया कि अभय कहना क्या चाहता है.?

"दादा जी तुम से मिलेंगे."

कंचन कुछ न बोली, इस खुशखबरी को सुनकर कंचन को खुशी नहीं हुई थी. वह एक झटके में द्वार से बाहर निकल गयी.  उसकी इस उदासीनता को देखकर अभय का दिल कसक उठा. और किसी ने समझा हो या न समझा हो लेकिन उसके दिल के दर्द को अनुपमा बखूबी समझ गयी.

             ∆∆∆∆∆∆

क्रमशः.......!

Next
This is the most recent post.
Previous
Older Post

0 comments:

Post a Comment

 
Top