दादा जी नमस्कार !
घर के छज्जे पर बैठे दादाजी ने नीचे देखा तो कुछ बच्चे खड़े थे. कोई हाफ पेंट पहने तो कोई टीशर्ट और फुलपेंट में. एक बच्चे के हाथ में कलम और रसीद कट्टा दिख रहा था.
सिर पर कुछ सफेद बाल, चेहरे पर आंखों के नीचे झुर्रियां और हाथ में लकड़ी की छड़ी. यूं तो दादाजी को जिंदगी का अच्छा-खासा अनुभव हो चला था और वे भी बचपन में ये काम खूब कर चुके थे, इसलिए उन्हें समझते देर नहीं लगी कि सड़क पर बच्चों की चंदा टोली खड़ी है, फिर भी दादाजी ने कुर्सी पर ही बैठे-बैठे पूछा- “क्या है?”
बच्चों ने कहा : “ दादाजी गणेशजी का चंदा ! ”
दादाजी को बच्चों से बहुत स्नेह था, वे इन उत्साही बच्चों को निराश भी नहीं करना चाहते थे. इसलिए हाथ का इशारा करते हुए बोले, रूको नीचे आता हूंॅ. दादाजी नीचे आए और कुर्ते में से रूपये निकालकर देने से पहले पूछा.
कहां लगा रहे हो गणेशजी की झांकी ?
बच्चों ने कहा: “दादाजी बस ये दायीं ओर सड़क के मोड़ पर.”
दादाजी मुस्कुराये बोले, “तुमसे पहले पीछे वाले मोहल्ले के बच्चे भी चंदा ले जा चुके हैं. फिर भी तुम चाहो तो चंदा ले जा सकते हो.”
बच्चे खुश हो गए, बोले: “हाॅ दादाजी एक सौ एक रूपये !!”
दादाजी ने कहा: “मेरे पास तो 21 रूपये ही हैं.”
बच्चे बोले: “दादाजी इस बार अपने मोहल्ले के गणेशजी सबसे ऊंचे रहेंगे. बहुत बड़ी झांकी लगा रहे हैं.”
तब दादाजी ने अपना चश्मा संभाला और एक-एक कर सभी बच्चों की ओर देखा, फिर पूछा : “क्या तुम सभी बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल जाते हो?”
प्रसन्नचित्त बच्चे एक स्वर में बोले: “हाॅ दादाजी.”
दादाजी: “ तो फिर मेरी बात जल्दी समझ जाओगे.”
दादाजी ने सभी बच्चों को सड़क पर एक ओर किया और कहा कि “जब मैं तुम लोगों बराबर छोटा था तब भी गणेश जी बिठाता था. पूरे मोहल्ले में एक बड़ी-सी झांकी सजाते थे, सब लोग वहीं दर्शन-पूजन करने आया करते थे. हम तब तुम्हारी तरह बड़े स्कूलों में नहीं पढ़ते थे, परंतु आजकल के बच्चे तो एक ही मोहल्ले में चार कोनों पर चार-चार झांकियां लगा रहे हैं. क्या ये ठीक है? क्या इससे बुद्धिदाता, विघ्न विनाशक पार्वतीनंदन प्रसन्न हो जाएंगे? क्या इससे आपको भगवान का आशीर्वाद मिलेगा?”
बच्चे सोच में पड़ गए, बोले: “पर दादाजी सभी मोहल्ले में तो ऐसा ही होता है.”
दादाजी मुस्कुराये, पूछा: “मालूम है गणेशोत्सव का पर्व क्यों मनाया जाता है?”
बच्चे तो जल्दी से जल्दी चंदा लेकर आगे वाले घर जाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने दादाजी से जल्दी रूपये निकालकर देने का निवेदन किया, परंतु दादाजी को भी लगा कि यदि इस बार भी बच्चे नहीं समझे तो फिर अगले साल तक के लिए बात गई.
दादाजी ने कहा: “नहीं पहले मेरी बात सुनो. गणेशोत्सव का पर्व इसलिए मनाते हैं ताकि हम सब एक स्थान पर मिलजुल त्यौहार की खुशियां मना सकें. ये पर्व परस्पर होड़ का नहीं, बल्कि पर्व-त्यौहार तो हमें हर हाल में खुश और एकजुट रहना सिखाते हंै. इसलिए मैं एक सौ एक रूपये चंदा तभी दूंगा जब मोहल्ले के सभी बच्चे मिलकर एक खुले मैदान में एक स्थान पर गणेशजी की झांकी लगायेंगे. जरा सोचो ! हमारे पास कितना सारा पैसा इकट्ठा हो जाएगा फिर हमारे मोहल्ले में सबसे बड़ी नहीं, सबसे अच्छी झांकी सजेगी और गणेशोत्सव का पर्व मनाना भी सार्थक हो जाएगा.”
ये सुनकर बच्चे जिद पर आ गए, बोले : “नहीं दादाजी ये नहीं हो सकता !!”
“आपको चंदा तो देना पड़ेगा.”
दादाजी ने जैसे बच्चों के मन को भांप लिया, चतुराई भरे अंदाज में कहा: “यदि आप बच्चे कहना नहीं मानेंगे तो गणेशजी आपसे नाराज हो जाएंगे. फिर एक साल बाद ही नया अवसर मिलेगा। सोच लो.”
बच्चे इतना सुनकर आगे जाने लगे, पर एक बच्चा रूका और बोला: “ये कैसे हो सकता है दादाजी ?”
दादाजी: “हो सकता है यदि तुम दूसरी टोली के बच्चों से बात करो या मेरे पास उन्हें भी ले आओ तो.”
बच्चे चले गए अगले दिन पीछे वाली सड़क के बच्चे टोली बना कर चंदा मांगने आए तो दादाजी ने उनसे भी यही बात कही, परंतु कोई बात नहीं बनी, बच्चे आगे चले गए.
दादाजी की बातों का बच्चों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता देख दादाजी ने सोचा कि बच्चों को सही सीख और संस्कार देना जरूरी है. वे इसी विचार में डूबे हुए थे और सोच रहे थे कि क्यों न मोहल्ले के बड़े-बुजुर्गों या इनके माता-पिता से इस बारे में बात की जाए.
दादाजी ने सुबह-शाम टहलते हुए अपनी आयु के बुजुर्गों से भी चर्चा की, पर कुछ ने यह कहकर टाल दिया कि करने दीजिए बच्चे हैं बड़े होकर स्वयं ही समझ आ जाएगी, परंतु दादाजी के मन में ये बात बैठ गई. वे कोई अच्छा उपाय सोचने लगे. वे चलते-फिरते, सोते-जागते सोचते कि वह कौन-सा तरीका है, जिससे बच्चे उनकी बात को मान जाएं. वे इसी मंथन में डूबे हुए एक समाचार-पत्र पढ़ रहे थे, जिसमें सरकार के मिल-बांचे कार्यक्रम का समाचार प्रकाशित था. उन्होंने पढ़ा तो पाया कि स्कूलों में आनंददायी वातावरण के निर्माण और कक्षा शिक्षण को रोचक तथा प्रभावी बनाने की दृष्टि से कहानी उत्सव का आयोजन उचित रहेगा।
बस फिर क्या था दादाजी को भी कहानी लिखने का उपाय सूझा. दादाजी ने बच्चों के एकजुट होकर मोहल्ले में एक ही झांकी लगाने की प्रेरक कहानी लिखी और बच्चों के स्कूलों तक पहुंचा दी. दादाजी ने सोचा कि यदि बच्चों को ये कहानी नहीं सुनाई गई तो क्या हुआ स्कूल के वार्षिकांक में प्रकाशित हो जाएगी. जैसे ही स्कूल प्राचार्यों को दादाजी की लिखित कहानी और उपाय मिला तो उन्हें ये उपाय और कहानी अच्छी लगी और उन्होंने सभी बच्चों को खेलमैदान में एकत्रित कर दादाजी की लिखी कहानी पढ़कर सुनाई. कहानी सुन रहे कुछ बच्चों को दादाजी की कही हुई बात याद आ गई. मोहल्ले में लौटे कुछ बच्चेे दादाजी से मिले और मिलकर झांकी लगाने की इच्छा प्रकट की.
दादाजी ने बताया: “बुद्धि विनायक गणेशजी, बड़ी-बड़ी प्रतिमाएं बिठाने की होड़ या सबसे सुंदर झांकी सजाने की प्रतियोगिता से प्रसन्न नहीं होते; वे तो सच्चे मन से की गई प्रार्थना से प्रसन्न होते हैं. इसलिए हम सबको अलग-अलग झांकियां लगाने की बजाय मिलकर एक स्थान पर ऐसी झांकी सजाना चाहिए, जो सभी को प्रेरक संदेश देती हो, जैसे आजकल बिगड़ते पर्यावरण को देखते हुए मिट्टी के गणेशजी की प्रतिमाओं को प्राथमिकता दी जा रही है. पर्यावरण प्रदूषण के कारण शहरों में रहने वालों की शक्ति का ह्ास होता जा रहा है. अलग-अलग झांकियां लगाने से हमारी श्रमशक्ति, अर्थशक्ति और संसाधन बंट जाते हैं.
दादाजी की बात सुनकर बच्चों ने मिलकर झांकी लगाने का निश्चय किया, और अपने संकल्प से मोहल्ले के लोगों को भी अवगत कराया. मोहल्ले के लोग भी प्रसन्न हुए और बड़े-बुजुर्ग भी इस अभियान में सम्मिलित हो गए. मोहल्ले के सभी बच्चे, बुजुर्ग, महिलाओं, पुरूष और युवाओं ने बहुत ही आकर्षक झांकी सजाई. ये देखकर बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. मोहल्ले वालों ने बच्चों के लिए तरह-तरह की सांस्कृतिक गतिविधियों का भी आयोजन झांकी स्थल पर किया, दस दिवसीय गणेशोत्सव पर प्रतिदिन नई गतिविधि आयोजित की र्गइं, एक दिन स्वरचित पारिवारिक कहानी-कविता-गीत, श्लोक, चुटकुला सुनाओ प्रतियोगिता की गई, दूसरे दिन कागज, कपड़े और कचरे से बनने वाली जीवनोपयोगी चीजों के साथ ही लेखन कार्य में सुधार के गुर सिखाये गए, तीसरे दिन कबड्डी, फुटबाल, शतरंज और बैडमिंटन, तैराकी जैसे अंतर्राष्ट्रीय खेल के नियमों की जानकारी दी गई, साथ टीमों का भी गठन किया गया.
चैIथे दिन शासकीय योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए शिविर लगाया गया. बच्चों और आसपड़ोस के हित में योजनाओं के बारे में बताया गया. आपात स्थिति जैसे आग से बचाव, चोट, मोच, खरोंच में क्या किया जाए जैसे बातें बताई गईं साथ ही बच्चों की जिज्ञासा का भी समाधान किया गया. पांचवे दिन खुशहाल जीवन कैसे जियें, और बैंकिंग प्रणाली जैसी दैनिक जीवन में उपयोगी बातों पर व्याख्यान आयोजित किया गया. इसके अलावा पोस्टर बनाओ प्रतियोगिता में गणेशजी के तरह-तरह के रूपों को उकेरने के टिप्स दिये गए.
छठवे दिन जीवन में आत्मविश्वास, लक्ष्य निर्धारण, समय का सदुपयोग और समय सारिणी के बारे में समझाया गया. सातवें दिन बुद्धिमानी और सूझबूझ, साफ-सफाई और सुरक्षा पर केन्द्रित प्रतियोगिता बूझो तो जाने आयोजित की गई. आठवें दिन संगीत, वाद्य यंत्रों का प्रशिक्षण प्रदान किया गया. इन सभी में बच्चों को बड़ा आनंद आया.
मोहल्ले के ही अनुभवी लोगांे की सेवाएं इस कार्य में ली गईं. बच्चों, महिलाओं और पुरूषों के समूह बनाये गए जो वर्षभर सेवाकार्य कर सकें। इसके लिए बच्चों को भी प्रेरित किया गया और तैयारी कराते हुए नई-नई बातें खेल-खेल में सिखाई गईं. इससे बच्चों की नई-नई प्रतिभाएं सामने आई तथा बच्चे ही नहीं बड़ों को तो व्यक्तित्व विकास में तो सहायता मिली ही, ढेर सारे उपहारों ने बच्चों को प्रोत्साहित भी किया. जब बच्चों ने पर्व की खुशियां इस तरह उत्साह, उमंग और जागरूकता से मनाने के बारे में अपने स्कूल के बच्चों को बताया तो वे भी जानने को उत्सुक हो उठे. अब तो बच्चों ने सभी पर्व-त्यौहार ऐसे ही मिलजुलकर, एकजुटता का परिचय देते हुए मनाने का निश्चय कर लिया. इन बच्चों की देखा-देखी दूसरे मोहल्ले के बच्चे-बड़े भी प्रेरित हुए और वहां भी ऐसा ही किया जाने लगा. नये-नये प्रयोगों, नवाचार और नेतृत्व कुषलता ने सभी में नई ऊर्जा और नव उत्साह का संचार किया.
-- आशीष श्रीवास्तव
पूरा नाम : आशीष सहाय श्रीवास्तव
शिक्षा : बी.एससी, एम.ए.
जनसम्पर्क स्नातक
निवासी : भोपाल मप्र 462003
मोबाइल : 8871584907
ईमेल : ashish35.srivastava@yahoo.in
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