भक्तिकाल के संत कवि
- रामबाबू नीरव
भक्तिकाल के कवियों में कबीर साहेब का व्यक्तित्व के साथ साथ कृतित्व भी सबसे अलग, निराला और अनोखा था. वे रहस्यवादी और निर्गुण विचारधारा के संत कवि थे. उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वास, ढ़ोंग, पाखंड, जातिप्रथा, छुआछूत आदि का जम कर विरोध किया. उन्होंने सिर्फ हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों का ही नहीं बल्कि इसलाम धर्म की अंध भक्ति पर भी करारा प्रहार किया. वे स्पष्टवादी, निर्भीक और दूरदर्शी थे. उनके विरोधियों का आरोप है कि वे नास्तिक और अनिश्वरवादी थे. परंतु उनपर लगाया गया इस तरह का आरोप सही नहीं है. वे अनिश्वरवादी और नास्तिक नहीं बल्कि निराकार परब्रह्म में विश्वास करने वाले एकेश्वरवादी संत थे. उन पर मूर्तिभंजक होने का भी आरोप लगा था. परंतु इस आरोप को भी मैं सिरे से खारिज करता हूँ. संभवतः ऐसा आरोप लगाने वाले "मूर्तिभंजक" शब्द का शाब्दिक अर्थ ही नहीं जानते. *मूर्तिभंजक* जिसे फारसी में *बूतशिकन* कहा जाता कहा जाता है, का अर्थ होता है प्रतिमा (भगवान की मूर्ति) अथवा मंदिर तोड़ने वाला. इस लिहाज से मुस्लिम आक्रान्ताओं, जैसे मो० गजनवी, मो० गोरी, तैमूर लंग, सिकंदर लोदी, बाबर, नादिर शाह आदि को हम मूर्तिभंजक मान सकते हैं, जिन्होंने भारत में आकर अनेकों देवी देवताओं की प्रतिमाओं के साथ साथ मंदिरों का भी विध्वंस किया. परंतु संत कबीर साहेब ने ऐसा तो नहीं किया, हाॅं उन्होंने मूर्ति पूजा की आलोचना और उसका जमकर विरोध अवश्य किया. क्योंकि उनका मानना था कि मूर्ति पूजा दिखावा और ढ़ोंग है. ईश्वर, जिसने इस सुन्दर संसार की रचना की, उनका कोई स्वरूप नहीं होता है, वे निराकार हैं. ईश्वर अजन्मा हैं, यानि उनका जन्म नहीं हुआ, जिसका, जन्म नहीं हुआ तो फिर उसका कोई स्वरूप, कोई आकार कैसे हो सकता है.? ईश्वर का दूसरा नाम स्वयंभू भी है. यानि स्वयं अवतरित होने वाला. इसलाम में भी अल्लाह (ईश्वर) को खुदा कहा गया है. और खुदा का अर्थ होता है खुद से आया हुआ. इसलिए ही कबीर ने दोनों धर्मों के आचार्यों (पंडितों) तथा मुल्लाओं (मौलवियों) की आलोचना की. ऐसा दुस्साहस वही कर सकता है, जिसका तेवर इंकलाबी हो. यानि जिसके अंदर झूठ को झूठ और सच को सच कहने का मादा हो. लीक से हटकर चलने वाले तथा समाज को सच काश्र आईना दिखलाने वाले इंकलाबी को ही विद्रोही कहा जाता है. हमारे देश में ईसाई धर्म बहुत बाद में आया. यदि यहाँ ईसाई मिशनरियों की स्थापना कबीर साहेब के काल में हुई होती तब उस धर्म में व्याप्त कुरीतियों की आलोचना करने से भी वे पीछे नहीं हटते. परंतु मानवतावादी संत कबीर के यथार्थ पर आधारित विचारों का व्यापक विरोध मनुवादियों ने किया. जिसका परिणाम यह हुआ कि उच्चवर्गीय समाज ने कबीर के विचारों को सिरे से खारिज कर दिया. कबीर के विचारों को मानने वाले अधिकांश दलित तथा पिछड़े वर्ण के लोग हैं, परंतु इन कबीर पंथियों का भी दोहरा चरित्र है. कहलाने को कबीर पंथी हैं, मगर इनके सारे विधि विधान हिन्दूवादी धार्मिक अनुष्ठानों पर ही आधारित हैं, जिसका जमकर विरोध संत कबीर साहेब ने किया था. उच्चवर्ग के तथाकथित विद्वतजनों ने दलित समुदाय के संतों को समाज की मुख्य धारा से जुड़ने नहीं दिया. इस कारण ही दलित समुदाय के संत जैसे-संत रविदास (रैदास), संतश्र दादू, संत जीवन दास, संत नानदेव तथा संत पिपाजी जैसे अध्यात्मिक ज्ञानियों को हासिये पर धकेल दिया गया. इन संतों के नाम भी
समाज के पढ़े लिखे लोग तक भी नहीं जानते, फिर अनपढ़ों की तो बात ही जुदा है. अब संत कबीर साहेब के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को, समझने से पहले उनके जन्म की सच्चाई को जान लें.
माना जाता है कि संत कबीर साहेब का जन्म सन् 1440 ई० में काशी (बनारस/ वाराणसी) के जौनपुर नामक जनपद में हुआ था. दूसरे मत के अनुसार उनका जन्म जौनपुर में ही सन 1398 को हुआ था और वे 120 वर्षों की लम्बी आयु तक जीवित रहे.
उनके जन्म को लेकर तरह तरह की किंवदंतियां प्रचलित है. उन किंवदंतियों में सही कौन है, इसका आकलन कर पाना कठिन हो जाता है. एक कथा के अनुसार उनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था और लोकलाज के भय से उक्त विधवा ब्राह्मणी ने उस नवजात शिशु को एक तालाब में फेंक दिया, जहाँ से एक मुस्लिम जुलाहा दम्पति नूर अली और नीमा खानम ने उस शिशु को प्राप्त किया और उसे अपनी संतान बनाकर उसका लालन पालन करने लगे. दूसरी कथा में विधवा की जगह कुमारी कन्या को उनकी जन्मदात्री माना गया है, बाकी अन्य कथा ज्यों की त्यों है. एक तीसरी कथा हिन्दू माइथोयोलाजी पर आधारित है, जो बिलकुल ही अविश्वसनीय प्रतीत होती है. संत कबीर साहेब के गुरु स्वामी रामानंद के शिष्य स्वामी अष्टादश के अनुसार संत कबीर साहेब का जन्म नहीं हुआ था, बल्कि उनका सीधा आकाश से अवतरण हुआ था. काशी (वर्तमान बनारस अथवा वाराणसी) के लहरतारा नामक तालाब स्थित कमल के पुष्प में किसी अलौकिक चमत्कार की तरह आकाश से एक अद्भुत प्रकाशपूंज आकर गिरा और देखते देखते वह प्रकाशपूंज एक नवजात शिशु में परिणत हो गया. जहाँ से उस अलौकिक शिशु को नूर अली और नीमा खानम नामक जुलाहा दम्पति ने प्राप्त किया. अंधविश्वासी लोगों ने इस अविश्वसनीय चमत्कारी घटना को ही सत्य मान लिया. हमारी बिडम्बना यह है कि हम काल्पनिक मत चमत्कारी माइथोलॉजी से मुक्त ही नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए ही कोई भी धार्मिक सुधार आंदोलन हमारे यहाँ सफल नहीं हो पाया. परिणाम यह हुआ कि दिनोदिन धर्म व्यापार बनता चला गया. और धर्म के नाम पर आम जनता का मानसिक तथा आर्थिक शोषण होने लगा. जो कबीर साहेब चमत्कार, आडंबर, ढ़ोंग, पाखंड तथा मूर्ति पूजा के घोर विरोधी थे, परलोक गमन के बाद उनके ऊपर उन्हीं आडंबरों की चादर ओढ़ा दी गयी. पूर्व में ऐसा ही कुछ महात्मा बुद्ध के साथ भी हुआ था. शातिर लोगों ने तो उन्हें भगवान विष्णु का अवतार तक घोषित कर दिया. जबकि वे हिन्दुओं के चमत्कारी माइथोयोलाजी के कट्टर विरोधी थे.
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क्रमशः........!
(अगले अंक में पढ़ें निरक्षर संत कबीर की तेजस्विता.)
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