

जिस रुट पर पांच मिनट गाड़ी खड़ी हो जाने से पीछे ट्रेनों की लंबी कतार लग जाती है और एक ट्रेन के रद रहने पर दूसरी मे तिल धरने की जगह नहीं रहती, वहां लगातार छह घंटों तक ट्रेनों के खड़ी रहने से हजारों यात्रियों पर क्या बीती होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। लेकिन आंदोलनकारियों के लिए यह सब बेमानी था। छात्र जीवन में पढ़ाई और इसके बाद नौकरी सिलसिले में दैनिक रेल यात्रा का मुझे खासा अनुभव है। अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि रेलगाड़ियों खास कर उपनगरीय ट्रेनों में सारे मुसाफिर सैर - सपाटे वाले नहीं होते। अधिकांश के लिए यह कई कारणों से बेहद महत्वपूर्ण होता है।
मंजिल पर पहुंचने में हुई जरा सी देरी उनके मेहनत पर पानी फेर सकती है। तनाव और फजीहत का सामना अलग करना पड़ता है। बेशक आंदोलन लोकतांत्रिक राष्ट्र में नागरिकों का अधिकार है। लेकिन एक गैर रेलवे मुद्दे पर रेल यात्रियों को परेशान करने का भला क्या औचित्य । उधर बड़ी संख्या में खाकीधारी , चैनलों के कैमरे और सूटेड - बुटेड अधिकारियों को अपने पीछे देख प्रदर्शनकारियों का हौसला आसमान पर जा पहुंचा। उन्हें शायद पहली बार अपनी ताकत का अंदाजा हुआ था।
लिहाजा दुष्र्कमियों को कड़ी सजा देने की मांग पर वे रेलवे ट्रैक पर जमे रहे। भूख - प्यास और भीषण गर्मी से बेहाल हैरान - परेशान रेल यात्रियों का उन्हें जरा भी ख्याल नहीं आया। घंटों बाद किसी तरह हटे तो राजमार्ग जाम कर दिया। इस तरह सड़क और रेल दोनों ओर के यात्री घंटों सताए परेशान किए जाते रहे । आंदोलन के नाम पर यह सब देख मैं सोच में पड़ गया। बचपन में आंदोलन का अर्थ मैं सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन ही समझता था। लेकिन समय के साथ इसके मायने बदलते गए। आंदोलन करके सत्ता पाने वाले राजनेता सत्ता में टिके रहने के लिए लगातार आंदोलन करते देखे गए। कल तक केंद्र में मंत्री रहने के दौरान जो राजनेता हर मुख्यमंत्री और सांसद को उसके क्षेत्र की उपेक्षा न होने देने का आश्वासन देते फिरते थे, संयोग से वही राज्य के मुख्यमंत्री बन गए तो अपने सूबे को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की मांग पर आंदोलन करने लगे।
परिस्थितियां बदलते ही राजनेता तो पहले ही अपने आंदोलनों की दशा - दिशा बदल लेते थे। लेकिन कम से कम दूसरों से तो यह उम्मीद की ही जा सकती है कि वे निरीह लोगों को हैरान -
परेशान करने वाले कथित आंदोलनों से दूर ही रहे तो बेहतर। रेल या सड़क मार्ग से यात्रा के दौरान किसी वजह से बीच में फंसने वालों की पीड़ा भुक्तभोगी ही समझ सकते हैं। अभी हाल में मेरे शहर में एक और वाकया हुआ। राजमार्ग पर हुए हादसे में राहगीर की मौत के बाद जनाक्रोश भड़क उठा और गुस्साए लोगों ने हमला कर कई पुलिस वाहनों को तोड़ दिया जबकि एक वाहन में आग लगा दी । इससे मैं गहरे सोच में पड़ गया कि रोज के अखबारों में तो सड़क हादसों की अनेक खबरें छपी मिलती है। लेकिन इसी मामले में ऐसा बवाल क्यों हुआ। बाद में पता चला कि इस कथित आंदोलन के पीछे भी राजनीति काम रही थी। क्या देशवासियों का पीछा ऐसे कथित आंदोलनों से कभी छूट पाएगा।
(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनका पता है- तारकेश कुमार ओझा, भगवानपुर, जनता विद्यालय के पास वार्ड नंबरः09 (नया) खड़गपुर ( पशिचम बंगाल) पिन-721301
जिला पशिचम मेदिनीपुर)
0 comments:
Post a Comment