() निशा नंदिनी
भारत एक प्राचीन देश है, कुछ अनुमानों के अनुसार भारतीय सभ्यता लगभग 5 हजार वर्ष पुरानी है, इसलिये इसका समाज भी बहुत पुराना और जटिल प्रकृति का है। अपनी लम्बी ऐतिहासिक अवधि के दौरान, भारत बहुत से उतार-चढ़ावों और अप्रवासियों के आगमन का गवाह हैं जैसे- आर्यों का आगमन, मुस्लिमों का आगमन आदि। ये लोग अपने साथ अपनी जातिय बहुरुपता और संस्कृति को लाए साथ ही भारत की विविधता, समृद्धि व जीवन शक्ति में अपना योगदान दिया।
भारत एक प्राचीन देश है, कुछ अनुमानों के अनुसार भारतीय सभ्यता लगभग 5 हजार वर्ष पुरानी है, इसलिये इसका समाज भी बहुत पुराना और जटिल प्रकृति का है। अपनी लम्बी ऐतिहासिक अवधि के दौरान, भारत बहुत से उतार-चढ़ावों और अप्रवासियों के आगमन का गवाह हैं जैसे- आर्यों का आगमन, मुस्लिमों का आगमन आदि। ये लोग अपने साथ अपनी जातिय बहुरुपता और संस्कृति को लाए साथ ही भारत की विविधता, समृद्धि व जीवन शक्ति में अपना योगदान दिया।
इसलिये, भारतीय समाज विविध संस्कृतियों, लोगों, विश्वासों, मान्यताओं का जटिल मिश्रण हैं जो शायद कहीं से भी आया हो लेकिन अब इस विशाल देश का एक अभिन्न हिस्सा है। इस जटिलता और समृद्धि ने भारतीय समाज को एक जीवंत और रंगीन संस्कृति का अद्वितीय रुप दिया है। लेकिन यही जटिलता अपने साथ बहुत सी सामाजिक समस्याओं और मुद्दों की जटिल प्रकृति को सामने लाती हैं। वास्तव में पूरे संसार के प्रत्येक समाज में भारतीय समाज की ही तरह अपने अलग-अलग सामाजिक मुद्दे होते हैं। भारतीय समाज बहुत गहराई से धार्मिक विश्वासों से जुड़ा हुआ है। यहाँ विभिन्न धार्मिक विश्वासों को मानने वाले लोग रहते हैं जैसे- हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, पारसी आदि। ये सभी देश की सामाजिक-सांस्कृतिक किस्मों में जुड़ती हैं। भारतीय सामाजिक समस्याएं भी लोगों की धार्मिक प्रथाओं और विश्वासों में निहित हैं। लगभग सभी सामाजिक मुद्दों और समस्याओं की उत्पत्ति भारत के लोगों की धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं से होती हैं। ये सामाजिक समस्याऐं बहुत लम्बे समय से विकसित हुई हैं और अभी भी अलग रुप में जारी हैं।
इसके अलावा, भारत बड़े पैमाने पर बहुत से युद्धों का गवाह रहा हैं। बहुत से विदेशी आक्रमणकारियों ने इसके लम्बे इतिहास में भारत पर हमला किया। जिनमें से कुछ ने इस देश को अपना लिया और अपने सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं को मानने के लिये मजबूर किया जिससे सामाजिक स्थिति भी बिगड़ गयी। लम्बी अवधि के ब्रिटिश शासन ने देश को अपंग बना दिया और पिछड़ेपन की ओर फेंक दिया। इस प्रकार, बहुत से कारणों को भारत की सामाजिक समस्याओं के लिये उद्धृत किया जा सकता है लेकिन वास्तविकता ये है कि हम ये मुद्दे रखते हैं और केवल हम हीं इन्हें सुलझा सकते हैं।
अंधविश्वास व रूढ़िवादिता जैसी सामाजिक बुराई देश की प्रगति को पीछे धकेल देती है । अंधविश्वास व रूढ़िवादिता हमारे नवयुवकों को भाग्यवादिता की ओर ले जाती है फलस्वरूप वे कर्महीन हो जाते हैं । अपनी असफलताओं में अपनी कमियों को ढूँढ़ने के बजाय वे इसे भाग्य की परिणति का रूप दे देते हैं ।
भ्रष्टाचार भी हमारे देश में एक जटिल समस्या का रूप ले चुका है सामान्य कर्मचारी से लेकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन अधिकारी तक सभी भ्रष्टाचार के पर्याय बन गए हैं। यह भ्रष्टाचार का ही परिणाम है कि देश में महँगाई तथा कालाबाजारी के जहर का स्वच्छंद रूप से विस्तार हो रहा है ।
जातिवाद की जड़ें समाज में बहुत गहरी हो चुकी हैं । ये समस्याएँ आज की नहीं हैं अपितु सदियों, युगों से पनप रही हैं । इनके परिणामस्वरूप सामाजिक विषमता पनपती है जो देश के विकास में बाधक बनती है । इसके अतिरिक्त भाई-भतीजावाद व कुरसीवाद समाज में असमानता व अन्य समस्याओं को जन्म देता है ।
देश में अशिक्षा और निर्धनता हमारी प्रगति के मार्ग की सबसे बड़ी रुकावट हैं । ये दोनों ही कारक मनुष्य के संपूर्ण बौद्धिक एवं शारीरिक विकास में अवरोध उत्पन्न करते हैं। जब तक समाज में अशिक्षा और निर्धनता व्याप्त है, कोई भी देश वास्तविक रूप में विकास नहीं कर सकता है ।
भारत में सामाजिक मुद्दों में गरीबी वो स्थिति है जिसमें एक परिवार जीने के लिये अपनी आधारभूत जरुरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं होता है।जैसे- खाना, वस्त्र और घर। भारत में गरीबी विशाल स्तर पर फैली हुई स्थिति है। स्वतंत्रता के समय से, गरीबी एक प्रचलित चिंता का विषय है। ये 21वीं शताब्दी है और गरीबी आज भी देश की उन्नति में लगातार खतरा बनी हुई है। भारत ऐसा देश है जहाँ अमीर और गरीब के बीच बहुत व्यापक असमानता है। यद्यपि पिछले दो दशकों में अर्थव्यवस्था में प्रगति के कुछ लक्षण दिखाई दिए हैं। ये प्रगति विभिन्न क्षेत्रों या भागों में असमान हैं। वृद्धि दर बिहार और उत्तर प्रदेश की तुलना में गुजरात और दिल्ली में ऊँची हैं। लगभग आधी जनसंख्या के पास रहने के लिये पर्याप्त आवास नहीं हैं, सभ्य स्वच्छता प्रणाली तक पहुँच, गाँवों में पानी का स्त्रोत कोई नहीं हैं।
अशिक्षा वो स्थिति है जो राष्ट्र के विकास पर एक धब्बा बन गयी है। भारत बहुत बड़ी अशिक्षित जनसंख्या को धारण करता है। भारत में अशिक्षा वो समस्या है जो इससे जुड़े बहुत से जटिल परिणाम रखती है। भारत में अशिक्षा लगभग देश में विद्यमान असमानताओं के विभिन्न रुपों के साथ संबंधित हैं। देश में व्याप्त निरक्षरता की दर को लिंग असन्तुलन, आय असंतुलन, राज्य असंतुलन, जाति असंतुलन, तकनीकी बाधाएँ आदि आकार दे रही हैं। भारतीय सरकार ने असाक्षरता के खतरे का मुकाबला करने के लिए बहुत सी योजनाओं को लागू किया है। केवल सरकार को ही नहीं बल्कि प्रत्येक साक्षर व्यक्ति को भी निरक्षरता के उन्मूलन को व्यक्तिगत लक्ष्य के रुप में स्वीकार करना चाहिए। सभी साक्षर व्यक्तियों द्वारा किए गए सभी प्रयास इस खतरे के उन्मूलन में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत बाल विवाह की दूसरी बड़ी संख्या रखता है। शादी को दो परिपक्व व्यक्तियों की आपसी सहमति से बना पवित्र मिलन माना जाता है जो पूरे जीवनभर के लिये एक-दूसरे की सभी जिम्मेदारियों को स्वीकार करने के लिये तैयार होते हैं। इस सन्दर्भ में बाल विवाह का होना अनुचित प्रथा है। बाल-विवाह बचपन की मासूमियत की हत्या है। भारतीय संविधान में बाल-विवाह के खिलाफ कई कानूनों और अधिनियमों का निर्माण किया गया है। इसके साथ ही नाबालिग के साथ यौन संबंध भारतीय दंड संहिता की धारा अन्तर्गत एक दण्डनीय अपराध है। इस मुख्य परिवर्तन के लिये उचित मीडिया संवेदीकरण की आवश्यकता है। वहीं दूसरी तरफ, ये माना गया है कि बाल-विवाह को जड़ से खत्म करने के लिए सख्ती के कानून लागू करने के साथ ही अभी भी लगभग 50 साल लगेंगे तब जाकर कहीं परिदृश्य को बदला जा सकता है।भुखमरी कैलोरी ऊर्जा खपत में कमी की स्थिति को प्रदर्शित करती है, ये कुपोषण का एक गंभीर रुप है जिसकी यदि देखभाल नहीं की गयी तो अन्ततः मौत की ओर ले जाता है। भुखमरी किसी भी देश में बहुत से कारणों से जन्म लेती है जैसे युद्ध, अकाल, अमीर-गरीब के बीच असमानता आदि। कुपोषण की स्थिति जैसे बच्चों को होने वाली बीमारी सूखा रोग, अकाल या भुखमरी के कारण उत्पन्न गंभीर समस्या हैं। सामान्यतः सूखा रोग उन परिस्थियों में होता है जब लोग ऐसा आहार लेते हैं जिसमें पोषक तत्वों की कमी हो। भारत के संदर्भ में ये कहने की आवश्यकता ही नहीं है कि ये भोजन प्रणाली के वितरण की दोषपूर्ण व्यवस्था है।
बाल श्रम से आशय बच्चों द्वारा किसी भी काम को बिना किसी प्रकार का वेतन दिए कार्य कराना है। बाल श्रम केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर फैला हुआ है। जहाँ तक भारत का संबंध है, ये मुद्दा दोषपूर्ण है क्योंकि ऐतिहासिक काल से यहाँ बच्चें अपने माता-पिता के साथ उनकी खेतों और अन्य कार्यों में मदद कराते हैं। अधिक जनसंख्या, अशिक्षा, गरीबी, ऋण-जाल आदि सामान्य कारण इस मुद्दे के प्रमुख सहायक हैं। जिम्मेदारी से दबें तथा ऋणग्रस्त माता-पिता अपनी परेशानियों के दबाव के कारण सामान्य बचपन के महत्व को नहीं समझ पाते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी बच्चों को कपड़ों का निर्माण करने वाली कम्पनियों में काम करने के लिये रखती है और कम वेतन देती है जो बिल्कुल ही अनैतिक है। बाल श्रम वैश्विक चिन्ता का विषय है जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी व्याप्त है। बच्चों का अवैध व्यापार, गरीबी का उन्मूलन, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा और जीवन के बुनियादी मानक बहुत हद तक इस समस्या को बढ़ने से रोक सकते हैं।
सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों के और रुप भी हैं जैसे जातिवाद, अस्पृश्यता, बंधक मजदूर, लिंग असमानता, दहेज प्रथा, महिलाओं पर घरेलू हिंसा, महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा, बाल यौन शोषण, साम्यवाद, धार्मिक हिंसा, एस.सी/एस.टी से जुड़े मुद्दे, किशोर अपराध, वैवाहिक बलात्कार, कार्यक्षेत्र पर महिलाओं का यौन-शोषण आदि।
ऐसा नहीं है कि सामाजिक बुराईयों से लड़ा नहीं जा सकता; यहाँ तक कि प्राचीन काल से हमारे देश में बहुत से समाजिक-सांस्कृतिक सुधारक हुये हैं जैसे: बुद्ध, महावीर, कबीर, गुरुनानक, राजा राम मोहन राय, महात्मा गाँधी, डॉ. अम्बेडकर, विनोबा भावे आदि जिन्होंने उस समय में प्रचलित बुराईयों के खिलाफ आवाज उठायी और कुछ हद तक सफल भी हुये। लेकिन आज भी देश इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं के विभिन्न रुपों से जूझ रहा है जो 21 वीं शताब्दी के भारत का दुर्भाग्य है।
हम संसार में अपने देश को आधुनिक, आगे बढ़ते हुये राष्ट्र के रुप में प्रस्तुत करते हैं और ये सत्य है कि भारत दुनिया में, वैज्ञानिक, आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में उन्नति के साथ एक राष्ट्र के रूप में प्रगति कर रहा है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक विकास का संबंध है। उसकी गति अभी भी दुनिया के सभी देशों से कम है। इससे ये भी दिखाई देता है कि हम आज भी रुढ़िवादी मान्यताओं, विश्वासों के नकारात्मक दृष्टिकोण के समाज के रुप में हैं जो समानता और भाईचारे के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करता है।
बहुत से सरकारी और गैर-सरकारी संगठन सामाजिक क्षेत्र में इस स्थिति को सुधारने के लिये कार्यरत हैं लेकिन परिणाम उत्साहवर्धक नहीं हैं। शायद ये समस्या देश के लोगों के विश्वासों और मान्यताओं में बहुत गहराई के साथ बैठी हुई है जो बदलाव की परिस्थितियों को स्वीकर नहीं करने दे रही है। उदाहरण के लिए- कन्याभ्रूण हत्या का मुद्दा, हमारे देश में शर्मनाक प्रथाओं में से एक हैं। यद्यपि सरकार के बहुत से निषेधात्मक उपाय हैं और गैर-सरकारी संगठनों के प्रयास भी जारी हैं। इस के लिए असली कारण हमारे देश की समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था है जिसमें ये माना जाता है कि पुरुष ही श्रेष्ठ है और महिलाएं उनकी अधिनस्थ हैं। जिसके कारण, लड़की की तुलना में लड़के की बहुत ज्यादा चाह में कन्या-भ्रूण हत्या जैसे शर्मनाक कार्य को अंजाम दिया जाता है। इस प्रकार, ये विश्वास प्रणाली या सांस्कृतिक मानसिकता वाले लोग समाज में तेजी से परिवर्तन होने में बाधा हैं।
हांलाकि अब समाज में बहुत से सकारात्मक परिवर्तन भी हुये हैं, जैसे- अब लड़कियाँ बहुत बड़ी संख्या में स्कूल जा रही हैं और उनकी रोजगार दर में भी वृद्धि हुई है, सम्पूर्ण अशिक्षा की दर में कमी हुई है, अनुसूचित जाति व जन-जातियों की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन स्थिति आज भी सन्तुष्टि के स्तर से बहुत दूर है।
हम अपने घरों में ही महिलाओं के साथ हो रहे असमानता के व्यवहार के गवाह हैं, हम महिलाओं के साथ हो रही यौन हिंसा के बारे दैनिक आधार पर सुन सकते हैं, कन्या-भ्रूण हत्या लगातार जारी है, सामुदायिक-धार्मिक हिंसा अपने उत्थान पर हैं, छूआ-छूत अभी भी वास्तविकता है, बाल-श्रम बड़े पैमाने पर कराया जा रहा है।
अतः इन स्थितियों में सुधार के लिये और भी अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है और लोगों के दिमाग की गहराई में बैठे हुये गलत विश्वासों, मान्यताओं व प्रथाओं को बदले बिना इन स्थितियों को सुधारना बहुत कठिन कार्य हैं। इस उद्देश्य के लिये सबसे उपयुक्त तरीका लोगों को विभिन्न सामाजिक समस्याओं के बारे में शिक्षित करना होगा और उन्हें अपनी सोच बदलने के लिये प्रेरित करना होगा। क्योंकि लोगों को खुद को बदलने के लिये प्रेरित किये बिना, कोई भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था के प्रयास आधे-अधूरे साबित होंगे। यदि हम भारत को सही में 21वीं शताब्दी का सच्चा विश्व नेता बनाना चाहते हैं तो ये अनिवार्य है कि हमें अपने सामाजिक स्तर में सुधार करने चाहिए।
इन समस्याओं का हल ढूँढ़ना केवल सरकार का ही दायित्व नहीं है अपितु यह पूरे समाज तथा समाज के सभी नागरिकों का उत्तरदायित्व है । इसके लिए जनजागृति आवश्यक है जिससे लोग जागरूक बनें व अपने कर्तव्यों को समझें । देश के युवाओं व भावी पीढ़ी पर यह जिम्मेदारी और भी अधिक बनती है ।
आवश्यकता है कि देश के सभी युवा, समाज में व्याप्त इन बुराइयों का स्वयं विरोध करें तथा इन्हें रोकने का हर संभव प्रयास करें । यदि यह प्रयास पूरे मन से होगा तो इन सामाजिक बुराइयों को अवश्य ही जड़ से उखाड़ फेंका जा सकता है ।
आर.के.विला, बाँसबाड़ी, हिजीगुड़ी, गली- ज्ञानपीठ स्कूल
तिनसुकिया, असम- 786192, मोबाइल- 9435533394, 9954367780
ई-मेल आईडी- nishaguptavkv@gmail.com
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