() डॉ0 रवीन्द्र प्रभात  
लोकसभा चुनाव-2019 से पहले आरक्षण बिल लाकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को नाराज सवर्ण समर्थकों को मनाने में काफी हद तक मदद मिली, लेकिन भारतीय जनता पार्टी को मिले फीडबैक में कहा गया कि अयोध्या मामला, यानी राम मंदिर पर भी सरकार को कुछ करना होगा, ताकि उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी गठबंधन की काट खोजी जा सके। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को कोच्चि में बूथ स्तरीय पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उनकी पार्टी के सत्ता में आने पर महिला आरक्षण विधेयक वरीयता के आधार पर पारित कराया जाएगा। 

सबसे विचित्र बात तो यह है, कि भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के योगी सरकार में काबिना मंत्री ओम प्रकाश राजभर ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिए फिट उम्मीदवार करार दिया है। दूसरी ओर महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ गठबंधन के संकेतों के बीच शिवसेना ने सोमवार को एक बार फिर साफ किया कि महाराष्ट्र में वो बड़े भाई की ही भूमिका में रहेगी और इसी के आधार पर वो देश और राज्य की राजनीति करेगी। जहां तक कर्नाटक का प्रश्न है तो यहाँ भी दोनों दलों के लिए कुछ ठीक नहीं है। अगर किसी राज्य का मुख्यमंत्री अपने ही गठबंधन के साथियों से 'आजिज' आकर मीडिया के सामने कहे कि वह इस्तीफा दे देंगे तो हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार में क्या चल रहा है। कर्नाटक में एक ओर तो जहां कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन अपने विधायकों को 'ऑपरेशन लोटस' से बचाने की जुगत में हैं तो दूसरी ओर दोनों ही पार्टियों में पटरी नहीं खा रही है। 

दूसरी ओर नरेंद्र मोदी सरकार को अयोध्या में जमीन विवाद पर सुप्रीम कोर्ट जाना और इसकी टाइमिंग को लेकर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि राम मंदिर पर आगे बढ़ने के बारे में मोदी सरकार के शीर्ष स्तर पर संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होने के बाद ही मंथन शुरू हो गया था। इसी सत्र में मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का संविधान संशोधन बिल पारित कराया था, लेकिन वह भी जानती है, कि अयोध्या मामला तुरुप का वह पत्ता है जो उसे फिर बहुमत दिलाने में कामयाब हो सकता है। 

खबर यह भी है, कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बिहार में चुनावी शंखनाद पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान से 3 मार्च 2019 को करेंगे, जहां वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए की रैली को संबोधित करेंगे। माना जा रहा है कि एनडीए की इस रैली में पीएम मोदी के साथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान भी मंच साझा करेंगे। पीएम मोदी पटना के गांधी मैदान में एनडीए की रैली के बहाने बिहार में बीजेपी के लिए अधिक से अधिक सीटों पर जीत का रास्ता प्रशस्त करेंगे। यह पहला मौक़ा होगा जब राजनीतिक मंच से बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक बार फिर प्रधानमंत्री बनाने के लिए उनके कामकाज की तारीफ़ करने के अलावा लोगों से वोट देने की अपील भी करेंगे। 

पीएम मोदी की यह रैली इसलिए भी अहम है क्योंकि 3 फरवरी को राहुल गांधी भी पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में ही रैली को संबोधित करेंगे और वह राज्य में कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन करेंगे। पीएण मोदी की रैली ऐसे वक्त में हो रही है, जब बिहार में बीजेपी को हराने के लिए कांग्रेस-राजद-हम-रालोसपा गठबंधन एक साथ है। 

 राज्यसभा सांसद अमर सिंह ने हाल ही में कहा था कि वह आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में चुनाव प्रचार करेंगे। एनडीटीवी के कार्यक्रम में 'हमलोग' में जब अमर सिंह से यह पूछा गया कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, तो उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री बनेंगे। अमर सिंह ने कहा कि नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में जब तुलना होगी तो निश्चित रूप से लोगों की पसंद नरेंद्र मोदी ही होंगे। 

लोगों का ऐसा मानना है, कि लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार वोटर्स को लुभाने के लिए अब नया दाव चल सकती है। मध्य वर्ग को राहत देते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली आयकर छूट की सीमा बढ़ाकर दोगुनी कर सकते हैं, जो वेतनभोगी कर्मचारियों के लिए 2.5 लाख रुपये से बढ़कर 5 लाख रुपये हो सकता है, जबकि मेडिकल खर्चो और परिवहन भत्ते को भी फिर से बहाल कर सकते हैं। इससे नोटबंदी के कारण बेहाल मध्य वर्ग को थोड़ी राहत मिलेगी। अंतरिम बजट में हालांकि बहुत अधिक मांगों को पूरा नहीं किया जा सकता है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सरकार चुनावों को देखते हुए मध्य वर्ग को खुश करने की कोशिश करेगी। बता दें, मई महीने में ही लोकसभा चुनाव हो सकते हैं, हालांकि, अभी चुनाव की आधिकारिक तारीख का ऐलान नहीं किया गया है। 

सरकारी सूत्रों ने बताया कि चुनाव को देखते हुए करों के स्लैब को सुव्यवस्थित करने की योजना बनाई गई है, जो किसी भी स्थिति में आगामी प्रत्यक्ष कर संहिता के अनुरूप होंगे। इसमें यह समस्या आ सकती है कि प्रत्यक्ष कर संहिता रिपोर्ट के आने से पहले अंतरिम बजट 1 फरवरी को आ जाएगा, जिससे रिपोर्ट जारी होने से पहले दरों से छेड़छाड़ इसे विवादास्पद बना देगा। नए प्रत्यक्ष कर संहिता के दायरे में ज्यादा से ज्यादा कर निर्धारती (एसेसी) को कर के दायरे में लाने की कोशिश की जाएगी, ताकि अलग-अलग वर्गो के करदाताओं के लिए अधिक न्यायसंगत प्रणाली बनाई जाए, कॉर्पोरेट कर में कमी की जाए और व्यवसायों को प्रतिस्पर्धी बनाई जाए। 

कभी नदी के दो तट मानी जाने वाली सपा और बसपा ने आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात देने के लिये 23 साल पुरानी शत्रुता को भुलाते हुए एक-दूसरे से हाथ मिलाकर उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नयी इबारत लिख दी है। सपा और बसपा 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। कांग्रेस के लिये अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ी गई हैं जबकि दो सीटें छोटे दलों के लिये आरक्षित की गई हैं। माना जा रहा है कि दो सीटें निषाद पार्टी और पीस पार्टी के लिए छोड़ी गई हैं। निषाद पार्टी का निषाद बिरादरी में प्रभुत्व माना जाता है वहीं पीस पार्टी का पूर्वांचल की मुस्लिम बिरादरी में असर माना जाता है। राजनीतिक विश्लेषक परवेज अहमद मौजूदा परिस्थितियों को सपा बसपा के गठबंधन के लिए 25 साल पहले के हालात से ज्यादा उपयुक्त मानते हैं। उनका मानना है कि पिछले चार-पांच साल में पूरे देश में जिस खास तरह का ध्रुवीकरण हुआ है उसका असर राजनीति के साथ साथ समाज और कारोबार पर भी पड़ा है। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद 'हार्ड लाइनर हिंदुत्व' का दबदबा बढ़ा है जिससे एक खास तबके में घबराहट महसूस की जा रही है। आमतौर पर ऐसे हालात में वह तबका एकजुट हो जाता है। सपा और बसपा के गठबंधन से इस तबके को एक ऐसा मंच मिल सकता है जिसके साथ वह खड़े हो सकते हैं। ऐसे में सपा और बसपा को गैर यादव ओबीसी और गैर जादव दलित को अपने साथ लाने की चुनौती होगी जो 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ चला गया था। 

भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में जारी अपने घोषणा पत्र को अपना संकल्प पत्र बताते हुए वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह अपने इस संकल्प पत्र पर अमल के जरिए देश की तकदीर और तस्वीर बदल देगी। अब जबकि केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार अपने 5वें अंतिम साल पूरा कर चुकी है तो लाजिमी है कि उसके घोषणा पत्र के बरअक्स उसके कामकाज की समीक्षा होनी चाहिए। भाजपा के घोषणापत्र का सूत्र वाक्य था- भाजपा की नीतियों और उसके क्रियान्वयन का पहला लक्ष्य होगा- 'एक भारत-श्रेष्ठ भारत' और रास्ता होगा- 'सबका साथ-सबका विकास।' इसी सूत्र वाक्य पर आधारित तमाम वादों के जरिए देश की जनता में 'अच्छे दिन' आने की उम्मीद जगाई गई थी। 

भाजपा के घोषणा पत्र में जो वादे किए गए थे उनमें हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार, किसानों को उनकी उपज का समर्थन मूल्य लागत से दोगुना, कर नीति में जनता को राहत देने वाले सुधार, विदेशों में जमा कालेधन की 100 दिनों के भीतर वापसी, भ्रष्टाचार के आरोपी सांसदों-विधायकों के मुकदमों का विशेष अदालतों के जरिए 1 साल में निबटारा, महंगाई पर प्रभावी नियंत्रण, गंगा तथा अन्य नदियों की सफाई, देश के प्रमुख शहरों के बीच बुलेट ट्रेन का परिचालन, जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 का खात्मा, कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी, आतंकवाद के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की नीति, सुरक्षा बलों को आतंकवादी और माओवादी हिंसा से निबटने के लिए पूरी तरह छूट, सेना की कार्यस्थितियों में सुधार, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता, गुलाबी क्रांति यानी गोकशी और गोमांस के निर्यात पर प्रतिबंध, देश में 100 शहरों को स्मार्टसिटी के रूप में तैयार करना आदि प्रमुख वादे थे, जो पिछले 5 साल के दौरान सिर्फ छलावा ही साबित हुए हैं। 

दूसरी तरफ आगामी लोकसभा चुनाव में सभी विपक्षी दलों को साथ लाने की पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कवायद शुरू हो चुकी है। पिछले दिनों कोलकाता में आयोजित विशाल रैली में प्रमुख विपक्षी दलों के नेता एक मंच पर नजर आए और उन्होंने केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरी। आयोजक के रूप में एक तरह से इस रैली की अगुवाई कर रही ममता ने कहा कि मोदी सरकार की ‘एक्सपायरी डेट’ खत्म हो गई है। आज जिस तरह से हमारे नेता एक दूसरे के बारे में जिस प्रकार की टिप्पणी कर रहे हैं, वह न केवल निंदनीय है, बल्कि भर्त्सना के योग्य है। विडंबना है कि हमारे ये सफेदपोश नेता भ्रष्टाचार में गले तक आकंठ डूबे हुए हैं, इसके वाबजूद एक दूसरे पर कीचड़ उछलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। 

अगर यही हाल रहा, तो अंदरुनी समस्याओं के अलावा चीन और पाकिस्तान अपने षडय़ंत्र में सफल होकर हमारे देश में अशांति फैला सकते हैं, जिन सबका परिणाम यह होगा कि देश का विकास थम जाएगा। आज हमारा रुपया डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर हो चुका है। जबकि हमारे नेता गरीबी के सच्चे-झूठे आंकड़े पेश कर रहे हैं और अल्पसंख्यकों के नाम पर राजनीति हो रही है। एक गठबंधन सत्ता बचाने में जुटा है, तो दूसरा सत्ता हासिल करने में। लेकिन किसी के पास जनता और देश के हित में कोई नीति नहीं है। 

भारत सरकार तुष्टीकरण की नीति अपनाकर लोगों को अकर्मण्य बना रही है। अक्सर अर्थ, धर्म, जाति और क्षेत्र के आधार पर किसी खास वर्ग को पिछड़ा बताकर उन्हें मुफ्त राशन, पानी, बिजली, मकान आदि देना, यह नहीं तो और क्या है? जब लोगों की निर्भरता सरकार पर बढ़ने लग जाती है, तो उनका वोट बैंक की तरह इस्तेमाल होता है। इसके बाद सरकार का एक गुट बाकी जनता को यह कहता है कि सब हाशिये पर रह रहे लोगों के चलते हो रहा है। उसके बाद जन-कल्याणकारी योजनाओं में कटौती की जाती है। यह सब समाज में गैर-बराबरी और वैमनष्य को बढ़ाने जैसा ही है।

 आज हमारे देश में सचमुच ऐसे नेताओं की जरूरत है, जो जन सामान्य के दुख-दर्द को अपना समझे और जनता में भी मताधिकार के प्रति जागरूकता की जरूरत है। सभी के स्तर पर यह प्रयास होना चाहिए कि देश में जुमलेबाजों की सरकार न बने बल्कि जनता की बास्तविक सरकार बने, जो केवल और केवल जनता के हितों की बात करे और जनता के हितों की रक्षा हेतु सजग और चौकस रहे। साथ ही, इस दिशा में स्वयं सेवी संगठनों भी आपस में मिलकर काम करने होंगे। 
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