() डॉ0 रवीन्द्र प्रभात
इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दी ब्लॉग की दुनिया ने किसी भी माध्यम की तुलना में बेहतर ढंग से नोटिस लेने की पूरी कोशिश की है। ब्लॉग की खुलती अनंत खिड़कियाँ ये साबित करती हैं कि अब पेशेवर लोग ही नहीं आम लोग भी अपने समय की हलचलों और मुद्दों पर अपने मन की कच्ची-पक्की बातों को कहने के लिए बेचैन हैं और इस ब्लॉग की दुनिया ने उनकी अभिव्यक्ति के लिए बेहतर माध्यम मुहैया कराया है। यह ब्लॉग की ही ताकत है कि आज पत्र-पत्रिकाओं में कई अच्छे ब्लॉगों की बातें हो रही हैं। अच्छे ब्लॉगों की समीक्षाएँ हो रही हैं। 

साहित्यिक लघुपत्रिका में अविनाश इंटरनेट का मोहल्ला कॉलम में चुने ब्लॉगों पर मासिक टिप्पणी करते हैं और उनकी संतुलित समीक्षा भी करते हैं। कस्बा के रवीश कुमार दैनिक हिन्दुस्तान में अपने साप्ताहिक कॉलम ब्लॉग वार्ता में ब्लॉगों पर लिखते रहे हैं। यह ब्लॉग की ही ताकत है कि अमिताभ बच्चन से लेकर मनोज वाजपेई तक ब्लॉगर बन गए हैं। 

अनुराग वत्स के ब्लॉग ने एक सुविचारित पत्रिका के रूप में अपने ब्लॉग को आगे बढ़ाया और उन्हें नए-पुराने साहित्यकारों का खासा सहयोग मिला। इस ब्लॉग ने अपने कुछ अच्छे स्तम्भों के जरिये हिन्दी-गैर हिन्दी और विदेशी साहित्य पर अच्छी पोस्टें पढ़वाईं। इनमें ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता कुँवर नारायण पर पाँच नए-पुराने साहित्यकारों की टिप्पणियाँ, हेराल्ड पिंटर और अर्नेस्तो कार्देनाल की मर्लिन मुनरो पर कविताएँ खासतौर पर रेखांकित की जाना चाहिए। 

फिर नए कवियों को भी उन्होंने प्रस्तुत किया जिनमें निशांत से लेकर गीत चतुर्वैदी, तुषार धवल जैसे कवि शामिल हैं। इसी तरह युवा कवि और अनुवादक शिरीष कुमार मौर्य ने येहूदा अमीखाई से लेकर नाजिम हिकमत तक की कविताओं के अनुवाद पढ़वाए। अनहद नाद तो पिछले तीन सालों से बेहतरीन कविताएँ पढ़वा रहा है।
गीत चतुर्वेदी के ब्लॉग वैतागवाड़ी ने बेहतरीन पोस्ट से अपनी अलग पहचान बनाई। इसके साथ ही प्रत्यक्षा ने अपने रचनात्मक गद्य से अपने ब्लॉग को पहचान दी। शायदा ने अपने ब्लॉग मातिल्दा में छू लेने वाले गद्य से लोगों को प्रभावित किया। 

इधर फिल्मों को लेकर प्रमोद सिंह के ब्लॉग सिलेमा सिलेमा पर सारगर्भित टिप्पणियाँ पढ़ने को मिलीं। उन्होंने हिन्दी के साथ ही यूरोपीय सिनेमा पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ दीं और अच्छे सिनेमा को देखने की इच्छा पैदा की। इसी तरह दिनेश श्रीनेत ने इंडियन बाइस्कोप के जरिये निहायत ही निजी कोनों से और भावपूर्ण अंदाज से सिनेमा को देखने की एक बेहतर कोशिश की। महेन के चित्रपट ब्लॉग पर सिनेमा को लेकर अच्छी सामग्री पढ़ने को मिल रही है। 

जहाँ तक राजनीति को लेकर ब्लॉग का सवाल है तो अफलातून के ब्लॉग समाजवादी जनपरिषद, नसीरुद्दीन के ढाई आखर, अनिल रघुराज के एक हिन्दुस्तानी की डायरी, अनिल यादव के हारमोनियम, प्रमोदसिंह के अजदक और हाशिया का जिक्र किया जाना चाहिए। 

समकालीन हिन्दी ब्लॉग पर नज़र डालें तो एक ऐसे ब्लॉग का नाम हमारे जेहन में आता है, जो भारतीय चुनाव आयोग से पंजीकृत है और गंभीर मुद्दों पर बहस करता है। बनारस हिन्दू विश्वविदलय में अध्यापक अफलातून इसके ब्लॉगर हैं और ब्लॉग का नाम है समाजवादी जनपरिषद। 

अपने एक सारगर्भित पोस्ट में अफलातून मध्य प्रदेश के आदिवासी और दलितों के सवाल में आदिवासी के शोषण और उनके जंगल-जमीन से बेदखली पर सवाल खड़े करते हैं और कहते हैं कि आदिवासी के हितों में कानूनी बदलाव की जरूरत है और प्रदेश को छुआछूत की समस्या से मुक्त करना भी जरूरी है। इसी तरह वे सांप्रदायिक हालातों पर चिंता जताते हैं और समाजवादी जनपरिषद के नजरिए से कहते हैं कि प्रशासनिक और कानूनी सुधार करना होगा। उनका मानना है, कि दंगे के समय तमाशबीन बनने वाले अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई हो। हमारा प्रशासन और पुलिस सांप्रदायिकता से मुक्त हो। सबसे बड़ी बात उनके राजनीतिक उपभोग पर रोकथाम लगे। हमारी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव आए। हम शिक्षा के जरिए धर्म के उदार पक्ष और सूफी संतों की वाणियों को बढ़ावा दें। 

इसके अलावा इस ब्लॉग पर स्त्री शिक्षा, हिंसा, राष्ट्रवाद, पर्यावरण, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों आदि पर बातचीत के साथ ही उदयप्रकाश और राजेंद्र रंजन की कविताएँ दी गई हैं। इन कविताओं को देने का मकसद भी साफ है क्योंकि ये कविताएँ देश के हालातों के मद्देनजर सवाल पैदा करती हैं और विमर्श के लिए नई खिड़कियाँ खोलती हैं। यही नहीं, अफलातून इस ब्लॉग पर महात्मा गाँधी के विचारों को स्थान देकर बहस के मौके मुहैया कराते हैं। एक ऐसी ही पोस्ट है -अबला कहना अपराध है-महात्मा गाँधी। इस पोस्ट में वे गाँधीजी के उन विचारों को रखते हैं जो उन्होंने समय-समय पर यंग इंडिया में प्रकाशित किए थे। कहने की जरूरत नहीं कि उनके ये विचार देश के वर्तमान हालातों के मद्देनजर कितने प्रासंगिक हैं। इनसे निकलती रोशनी में हम हमारे समकालीन अँधेरों से लड़ने की ताकत हासिल कर सकते हैं। 

इसी तरह वे एक हिटलरी प्रेमी गुरुजी पोस्ट में इस बात को रेखांकित करते हैं जो निर्विवाद इस लोकतंत्र के लिए बहुत ही मानीखेज है कि दुनिया के कई धर्म आधारित राष्ट्रों में जनता का उत्पीड़न और रुदन हमसे छिपा नहीं है। धर्म आधारित राष्ट्र के रूप में हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के बारे में हम जानते हैं कि इस्लामियत के नाम पर कैसे कठमुल्लों, सामन्तों, फौजी अफसरों , भ्रष्ट नेताओं और असामाजिक तत्वों का वह चरागाह बन गया है। 

क्या हम भारत में भी उसी दुष्चक्र को स्थापित करना चाहते हैं ? धर्म आधारित राष्ट्र लोकतंत्र विरोधी अवधारणा है। किसी धर्म आधारित राष्ट्र में लोकतंत्र कभी पनप नहीं सकता। वे चरखे को लेकर मायावती की राजनीति का नोटिस भी लेते हैं तो किशन पटनायक जैसे समाजवादी नेता के विचारों को देश के वर्तमान हालातों के संदर्भों में देखने-समझने का आग्रह करते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह ब्लॉग हमारे देश के हाहाकारी समय में महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करता-कराता है। 

चलिये अब कबाड़खाने के कबाड़ के बारे में कुछ बातें करते हैं। वैसे तो कहने को है यह ब्लॉग कबाड़खाना, लेकिन ऐसा कबाड़ कि वहाँ घंटों रहने को जी चाहे। पेप्‍पोर, रद्दी पेप्‍पोर की गुहार लगाते ढेरों कबाड़ी हैं, इस कबाड़खाने में, और कबाड़ भी इतना उम्‍दा कि क्‍या कहने। इस कबाड़ के बीच कहीं ट्रेसी चैपमैन‍ हैं, तो कहीं विन्‍सेंट वैन गॉग। कहीं फर्नांदो पैसोआ की कविताएँ हैं तो कहीं शुन्‍तारो तानिकावा की बूढ़ी स्‍त्री की डायरी। बहुत कमाल का संगीत है, कविताएँ हैं, संस्‍मरण हैं, अद्भुत रेखाचित्र और तस्‍वीरें हैं और कुछ वीडियो भी। 

अशोक पांडे और उनके साथियों का ब्‍लॉग है कबाड़खाना। लस्‍ट फॉर लाइफ और जैसे चॉकलेट के लिए पानी के शानदार अनुवाद का काम करने वाले अशोक पांडे लेखक, कवि और अनुवादक हैं। पाब्‍लो नेरुदा, यहूदा अमीखाई और फर्नांदो पैसोआ समेत विश्‍व के तमाम महत्‍वपूर्ण कवियों की कविताओं का अनुवाद उन्‍होंने किया है। अपनी तारीफ में अशोक कहते हैं कि वे पैदाइशी कबाड़ी हैं। उन्‍होंने अपने कुछ और कबाड़ी साथियों के साथ मिलकर कबाड़खाना की शुरुआत की, जहाँ उनकी अब तक की इकट्ठा की गई कबाड़ सामग्री से पाठकों के विचार और मन समृद्ध हो रहे हैं। 

जुलाई, 2007 में कुछ दोस्तों के कहने पर अशोक ने ब्‍लॉग शुरू किया, लेकिन शुरू-शुरू में उसे लेकर बहुत गंभीर नहीं थे। सोचा तो था कि गप्‍पबाजी का अड्डा भर होगा ब्‍लॉग, लेकिन यह उससे भी बढ़कर एक महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेज बनता जा रहा है, कला, साहित्‍य और संगीत का। कबाड़खाना एक सामूहिक ब्‍लॉग है, जिस पर प्रसिद्ध लेखक इरफान और कवि वीरेन डंगवाल समेत कई सारे लेखक और ब्‍लॉगर, जो कि मूलत: कबाड़ी हैं, अपना योगदान देते हैं। 

जब बात समकालीनता की हो रही है तो क्यों न कुछ नुक्‍ताचीनी हो जाए ? देबाशीष के ब्‍लॉग पर तकनीक की दुनिया से जुड़ी नई खबरों को देखा जा सकता है। आसपास के मुद्दों पर भी वे सवाल खड़े करते हैं। यदि आप हिंदी ब्‍लॉग की दुनिया के बारे में अपडेट रहना चाहते हैं तो नुक्‍ताचीनी से बेहतर ठिकाना शायद दूसरा नहीं हो सकता है। ब्‍लॉग और तकनीक की दुनिया में वे नए-नए सवाल भी खड़े करते रहते हैं। समसामयिक विषयों, राजनीति इत्‍यादि के बारे में टिप्‍पणियाँ भी नुक्‍ताचीनी में देखी जा सकती हैं। देबाशीष कहते हैं कि साहित्‍य मेरा इलाका नहीं है। फिर भी उन्होंने हिंदी ब्‍लॉग के लेखन और जिन विषयों और सवालों को यहाँ प्रमुखता दी जा रही है, उसके बारे में काफी बात की। 

देबाशीष कहते हैं कि हिंदी साहित्‍य की तरह ब्‍लॉग की दुनिया में भी एक किस्‍म का ध्रुवीकरण और दलवाद दिखने लगा है। सब अपने-अपने दल बनाकर उसके भीतर काम कर रहे हैं। किसी विमर्श की शुरुआत करते हुए वह स्‍वस्‍थ तरीके से नहीं चल पाती और व्‍यक्तिगत आलोचना और ‍छिछालेदर पर उतर आती है। बहसों का अंत हमेशा बहुत बुरा होता है। समकालीन हिन्दी ब्लॉग की पड़ताल के क्रम में बरबस एक ऐसे ब्लॉग पर नज़र जाती है वह है एक हिंदुस्‍तानी की डायरी। शुक्र मनाइए कि भूपत कोळी संज्ञाशून्य है। उसे न तो अपने गुनाह की संजीदगी का एहसास है और न ही सज़ा की तकलीफ का। लेकिन हम तो संज्ञाशून्य नहीं हैं। और, प्रजावत्सल नरेंद्र मोदी तो कतई संज्ञाशून्य नहीं हो सकते क्योंकि यह उन्हीं के गुजरात की एक हिंदू प्रजा का मामला है।'
डायरी का एक और पन्‍ना, 'न कोई मुस्लिम दोस्‍त है न पड़ोसी' में अनिल सिंह लिखते हैं, 'बँटवारे की राजनीति और दंगों ने हमारे शहरों में धार्मिक आधार पर मोहल्लों और बस्तियों का ध्रुवीकरण कर दिया है। इसने हम से विविधता का वो चटख रंग छीन लिया है, बचपन से ही हम जिसके आदी हो चुके थे। मैं राम जन्मभूमि और अवध के उस इलाके से आता हूँ जहाँ हमारे चाचा, ताऊ और पिताजी आजी सलाम, बड़की माई सलाम और बुआ सलाम कहा करते थे। ताजिया के मौके पर आजी हम बच्चों को धुनिया (जुलाहों की) बस्ती में भेजती थी, मन्नत माँगती थी। बकरीद पर मुसलमानों के घर से हमारे यहाँ भी खस्सी का गोश्त आता था।' 

ऐसी ढेरों बेहतरीन चीजें हैं, उनके ब्‍लॉग पर। 'एक हिंदुस्‍तानी की डायरी' लगातार अपडेट होती रहती है। प्रतिदिन आपको वहाँ कुछ नया, कुछ बेहतरीन पढ़ने को मिलेगा। 

हिंदी ब्‍लॉगिंग के बढ़ते संसार से अनिल काफी उत्‍साहित हैं और इसे बहुत सकारात्‍मक नजरिए से देखते हैं। उनका मानना है कि ब्‍लॉग के माध्‍यम से बहुत सारी चीजें बहुत बड़े पैमाने पर लोगों तक पहुँच रही हैं। विश्‍व साहित्‍य से लेकर क्‍लासिक किताबें तक ब्‍लॉग के माध्‍यम से आ रही हैं। ब्‍लॉग प्रिंट मीडिया की तुलना में अधिक सशक्‍त माध्‍यम है। 

उनका मानना है कि ब्‍लॉगिंग के माध्‍यम से हिंदी भाषा और साहित्यिक लेखन का भी निश्चित ही विकास होगा। नए लेखकों की पौध तैयार होगी। हिंदी लेखन की दुनिया वैसे ही बहुत संकुचित और बहुत सारी घटिया राजनीति का शिकार रही है। ब्‍लॉग जरूर उस दलवाद को तोड़ने का काम करेंगे और इस दुनिया का विस्‍तार होगा। हिंदी साहित्‍य की वर्तमान दशा ऐसी है कि उसमें एक किस्‍म का ठहराव आ गया है। जीवन के साथ उसका संबंध टूटा है। हिंदी ब्‍लॉग साहित्‍य और जीवन के बीच इस ठहराव को खत्‍म करने और तोड़ने का काम करेंगे।
अनिल सिंह कहते हैं कि वैसे तो बहुत से विषयों पर लिखा जा रहा है, लेकिन बहुत-सी बातें अब भी छूटी हुई हैं। उनके अनुसार हिंदी में मनोविज्ञान, दर्शन, इतिहास और राजनीतिक विषयों पर कुछ गंभीर किस्‍म के ब्‍लॉग होने चाहिए। विज्ञान और अर्थशास्‍त्र पर गंभीर, वैचारिक लेखन होना चाहिए। नारे या जुमलेबाजी नहीं, बल्कि एक चिंतनपरक लेखन। ब्‍लॉग के माध्‍यम से नए विचारों को स्‍थान मिले। नए विश्‍वास और नई आस्‍थाएँ पैदा हों। 

हिन्दी ब्लॉग की दुनिया मेँ एक ब्लॉग है अरण्य, जहां स्मृतियों का कोहरा भी है और धुँध भी। यहाँ यादों के मीठे झरने हैं तो कुछ बेहद रचनात्मक कर दिखाने की चीख भी है। यहाँ कविता के फूल भी हैं तो सुंदर छवियाँ भी। यहाँ जीवन की बातें हैं, अपने से भी और दूसरों से भी। यहाँ कहानी है, नाटक है, उपन्यास है, लेकिन नाटकीयता नहीं है, जो है सरल है, सहज है। 

अरण्य युवा नाटककार-कवि मानव कौल का ब्लॉग है। वे मुंबई में रहते हैं। रंगकर्म से जुड़े हैं। उनके सपने हैं, कुछ बेहतर करने का जज्बा है। अपने को भिन्न माध्यमों में अभिव्यक्त करने की बेचैनी है। यही कारण है उनके अरण्य में आपको कविता-कहानी-उपन्यास-संस्मरण सब मिल जाएँगे। 

इस ब्लॉग को देखने पर पता लगता है कि यह युवा पढ़ाकू है। उसने दुनिया के तमाम बेहतरीन राइटर्स को पढ़ रखा है। उनमें से कुछ की बातों को इस युवा ने यहाँ चस्पा किया हुआ है। इसमें काफ्का से लेकर सिमोन वेल और हिंदी कविता के श्रेष्ठ कवि विजयदेव नारायण साही शामिल हैं। वे अपनी कुछ पोस्ट में अपने प्रिय लेखकों को याद भी करते हैं। इनमें नाटककार भी शामिल हैं। इनमें उनकी तारीफ है, उनसे सीखी बातें, सम्मान है और कहीं-कहीं दुःख भी कि इन लेखकों को जितना सम्मान मिलना था उतना मिला नहीं। जाहिर है ये अपने लेखकों के प्रति प्रेम औऱ सम्मान की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। 

मानव अपनी एक पोस्ट शुद्ध कला में लिखते हैं- कला को बाज़ार ही चलाता है, शायद यही कला की त्रासदी है... कला को सामान्य जीवन के बाहर के शौक के रूप में हमेशा रखा गया है। शुद्ध कला की जगह इस बाज़ार में कितनी है? यह मानने को हमेशा जी चाहता है कि मैं वही लिखूँगा या रचूँगा जो बहुत भीतर से मैं सोचता हूँ या कहना चाहता हूँ। पर हमारी इस सारी व्यवस्था में उस शुद्ध कला की असल में कितनी ज़रूरत है... इस बात पर जब भी ग़ौर करता हूँ तो, वह जगह कहीं नज़र नहीं आती...। 

कहने की जरूरत नहीं, इस युवा में बाजार में घुटती कला को लेकर गहरी चिंता है। वह कला की वर्तमान स्थिति को लेकर आहत है। लेकिन उसका मन प्रकृति में रमता है। वह इसे रचनात्मक स्तर पर दर्ज भी करता है। प्रकृति हमें अच्छी लगती है पोस्ट में वह कहता है- 'हमें सुखी रहना चाहिए'- की हँसी, लोगों को बाहर तक सुनाई देती है। 

यह गद्य का टुकड़ा सुंदर है लेकिन इसमें उनके प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल के लेखन की अनुगूँजें हैं। नकल नहीं, झलक है। वह जानता है कि लेखक होना और लेखन करना क्या है। इसीलिए शीर्षक ‘लेखक’ से एक पोस्ट में वह लिखता है- यह काफ़ी अजीब है कि मैं अपनी पूरी ईमानदारी से जब भी किसी बहुत गहरे अनुभव/एहसास को जी रहा होता हूँ, चाहे वह दु:ख हो सुख हो... या अकेलापन हो... मैं अचानक अपने ही आप को, दूर जाकर देखने लगता हूँ... एक तरीके का अभिनय वहाँ शुरू हो जाता है जहाँ सच में क्षोभ था, करुणा थी, पीड़ा थी। और फिर मेरे सारे एहसास एकदम मुझे किसी लिखी हुई कहानी का हिस्सा लगने लगते हैं, या अगर सही कहूँ तो किसी लिखी जाने वाली कहानी का हिस्सा। यह कौन लिख रहा है... या यह कौन सा लेखक है जो ठीक उस ईमानदारी के बीच में चला आता है.... और अपनी कहानी का सामान बटोरने लगता है। 

मानव ने कई शख्सियतों को याद किया। यहाँ वे निर्मल वर्मा, विनोदकुमार शुक्ल को याद करते हैं और सवाल करते हैं कि क्यों इन श्रेष्ठ लेखकों को वाजिब सम्मान नहीं मिला। वे भारतीय रंगकर्म के दिग्गज हबीब तनवीर को आत्मीय ढंग से याद करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे हबीब साहब ने अपने लिखे की एक झलक प्रस्तुत की थी और कैसे इसी बीच वे अपनी माँ के तखत को याद करते हैं। 

इसी क्रम मे अब हम एक ऐसे ब्‍लॉग की ओर रुख करते हैं, जो जीवन की मुख्‍य धुरी पर बात करता है। वाह मनी ! आपको मनी के महत्‍व और उसे ठीक तरीके से सुनियोजित करना सिखाता है। अर्थात जीवन के यथार्थ को रेखांकित करता एक ब्लॉग है वाह मनी । 

कुछ बातें किताबों में लिखी जाती हैं और कुछ जीवन का यथार्थ होता है। जीवन का यथार्थ, जो आदर्श से नहीं, मनी से संचालित है। पेशे से पत्रकार और मुंबई निवासी कमल शर्मा पिछले 18-19 सालों से पत्रकारिता की दुनिया में सक्रिय हैं। वे आर्थिक मसलों के जानकार हैं, और अर्थ से जुड़े सवालों पर लिखते रहे हैं। कमल शर्मा को हमेशा ये लगता रहा कि शेयर बाजार और अर्थ संबंधी मामलों के नितांत व्‍यावहारिक और रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े पहलुओं पर हिंदी में विशेष सामग्री नहीं है। पहले अँग्रेजी में शुरू हुआ यह ब्‍लॉग वाह मनी बाद में हिंदी में लिखा जाने लगा, क्‍योंकि हिंदी में इन विषयों पर सरल भाषा में रोचक जानकारी की आवश्‍यकता को वे महसूस कर रहे थे। 

वाह मनी, पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय है। लोग आर्थिक मसलों पर सलाह और जानकारी के लिए वाह मनी के दरवाजे खटखटाते हैं। चाहे वह शेयर बाजार में इन्‍वेस्‍टमेंट का सवाल हो, व्‍यवसाय में निवेश के लाभ और खतरों की जानकारी हो, कहाँ पैसा लगाया जाना चाहिए और कहाँ नहीं, जैसे जरूरी मुद्दे हों, वाह मनी पर आपको सबकुछ मिलेगा, बहुत सहज-सरल हिंदी में। इसके अलावा पूँजी और व्‍यवसाय की दुनिया की सभी ताजातरीन घटनाएँ, सुर्खियाँ और समाचार भी वाह मनी पर देखे जा सकते हैं। 

अर्थ से जुड़े ऐसे तमाम पेचीदे मसले, जो आमतौर पर लोगों की समझ से परे होते हैं, उसे आम लोगों की भाषा में आम लोगों को समझाना ही इस ब्‍लॉग का मकसद है, और नि:संदेह ब्‍लॉग अपने इस मकसद में कामयाब भी है। वह लोगों की आर्थिक समस्‍याओं को सुलझा रहा है और उनके सवालों और जिज्ञासाओं का जवाब भी दे रहा है। हिंदी में यह अपनी तरह का एक अनूठा ब्‍लॉग है। यह एक अच्‍छी शुरुआत है।

इसके अलावा समकालीन हिन्दी ब्लॉग की सूची में कुछ और महत्वपूर्ण नाम है, जैसे हर्षवर्द्धन त्रिपाठी का बतंगड़, विवेक कुमार बड़ोला का हरिहर, गिरिजेश राव का एक आलसी का चिट्ठा, मोनिका शर्मा का परवाज़: शब्दों के पंख, अभिषेक ओझा का ओझा उवाच, राहुल सिंह का सिंहावलोकन, सिद्दार्थ शंकर त्रिपाठी का सत्यार्थ मित्र, दुर्गा प्रसाद अग्रवाल का जोग लिखी, समीर लाल का उड़न तस्तरी, श्वेता तिवारी का ishweta, जितेंद्र चौधरी का मेरा पन्ना, हिमांशु कुमार पांडे का सच्चा शरणम, खुशदीप सहगल का देशनामा, इष्ट देव सांकृत्यायन का इयत्ता, मनजीत ठाकुर का गुस्ताख़, शचीन्द्र आर्य का करनी चापरकरन, प्रवीण पाण्डेय का न दैन्यं न पलायनम्, प्रमोद सिंह का अज़दक, ज्ञानदत्त पाण्डेय का मेरी मानसिक हलचल, रवीश कुमार का कस्‍बा, अभय तिवारी का निर्मल-आनन्द, संजय का मो सम कौन कुटिल खल?, सुनील दीपक का जो न कह सके, विष्णु बैरागी का एकोऽहम्, ललित कुमार का दशमलव, प्रवीण चोपड़ा का मीडिया डाक्टर, दर्शन बवेजा का रोज़ एक प्रश्न, विनीत कुमार का हुंकार, निशांत मिश्र का हिन्दी जेन और नसीरुद्दीन हैदर का ढाई आखर आदि।
आज हिंदी ब्लॉगों की संख्या 30,000 के आसपास है, जिसमें से महज 3,000 ही नियमित लिखे जाते हैं। वहीं देश में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या तकरीबन 10 करोड़ है, जिसमें से 3.4 करोड़ सक्रिय फेसबुक यूजर हैं। इनमें से अगर देश के बड़े शहरों को निकाल दें तो भी राजधानी समेत हिंदी राज्यों के बड़े-मझेले और छोटे शहरों में हिंदी ब्लॉगिंग के आंकड़े काफी हैं। हिंदी के सबसे ज्यादा चर्चित और पढ़े जाने वाले ब्लॉगों पर प्रतिदिन 200 से 300 हिट्स होती हैं। हालांकि ऐसे ब्लॉग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, जबकि अन्य ब्लॉगों पर हिट्स का आंकड़ा प्रतिदिन 25 से लेकर 100 तक है। 

यहाँ यह बात गांठ बांधने की है, कि ब्लॉग एक किस्म की सार्वजनिक डायरी है। कुछ लोग डायरी में कौड़ी-पाई का हिसाब रखते हैं, कुछ मन की गांठें टटोलते हैं तो कुछ अपनी पसंद की चिंता पर विचार प्रवाह खोलते हैं। बेशक हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां हर दिन एक नई चीज बाजार में आ रही है और पुरानी को अप्रासंगिक किए दे रही है। अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि सबसे ज्यादा पॉपुलर वही ब्लॉग हैं, जो रोजमर्रा की जिंदगी की छोटी-छोटी बातें और रोचक किस्से मस्त किस्सागोर्ई वाले अंदाज में बयां करते हैं। 

ब्लॉग पर महिलाओं के साझा मंच चोखेर बाली अपने आप में एक महत्वपूर्ण ब्लॉग है, जिसे पढ़ने और टिप्पणियां करने वाले पाठकों की संख्या सर्वाधिक हैं। हिन्दी ब्लॉग संसार पर नज़र डाली जाये तो दिखाई देता है कि आलोक पुराणिक नित्य प्रति अपनी व्यंग्य रचनाओं को अपने ब्लॉग में प्रकाशित करते हैं तो दूसरी ओर भारतीय प्रसाशनिक सेवा की लीना महेंदले सामाजिक सरोकारों से संबंधित अपने अनुभवों को लिखती हैं। इरफान का ब्लॉग सस्ता शेर प्रारंभ होते ही लोकप्रियता की ऊँचाइयाँ छूने लगा। इसमें उन आम प्रचलित शेरों, दोहों, और तुकबंदियों को प्रकाशित किया जाता है, जो हम आप दोस्त आपस में मिल बैठकर एक दूसरे को सुनाते और मज़े लेते हैं। ऐसे शेर किसी स्थापित प्रिंट मीडिया की पत्रिका में कभी प्रकाशित हो जाएँ, ये अकल्पनीय है। सस्ता शेर में शामिल शेर फूहड़ व अश्लील कतई नहीं हैं, बस, वे अलग तरह की, अलग मिज़ाज में, अल्हड़पन और लड़कपन में लिखे, बोले बताए और परिवर्धित किए गए शेर होते हैं, जो आपको बरबस ठहाका लगाने को मजबूर करते हैं। 

कुछ हिंदी ब्लॉग सामग्री की दृष्टि से अत्यंत उन्नत, परिष्कृत और उपयोगी भी हैं, जैसे, अजित वडनेकर का शब्दों का सफर। अपने इस ब्लॉग में अजित हिंदी शब्दों की उत्पत्ति के बारे में शोधपरक, चित्रमय, रोचक जानकारियाँ देते हैं जिसकी हर ब्लॉग प्रविष्टि गुणवत्ता और प्रस्तुतिकरण में लाजवाब होती हैं। इस ब्लॉग की हर प्रविष्टि हिंदी जगत के लिए एक घरोहर के रूप में होती हैं। मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर के पत्रकार रमाशंकर अपने ब्लॉग सेक्स क्या में यौन जीवन के बारे में बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारियाँ देते हैं।
समकालीनता की पकड़ रखने वाले ब्लॉग को देखा जाये तो भड़ास, कबाड़खाना, अखाड़े का उदास मुदगर, नुक्ताचीनी, नौ-दौ-ग्यारह, विस्फोट, आरंभ, उधेड़-बुन, बतंगड़, चवन्नी चैप, खंभा इत्यादि अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण ब्लॉग है। 

मद्रासी बाबू वर्डप्रेस डॉट कॉम यू आर एल पर एक तमिल का हिन्दी ब्लॉग है विचार, चिंतन और विश्लेषण, जिसमें ब्लॉगर कहता है कि "कई सालों की ख्वाइश थी में भी अपना ब्लॉग लिखूं। मगर डर और चिंता यह था की क्या मेरे पास लिखने की क्षमता है या नहीं। अंग्रेजी में तो लिखना आसान रहा है मगर मेरी चाहत थी की में अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी में लिखूं ! हालाँकि हिंदी मेरी मातृ भाषा नहीं पर तमिल है, मैंने अपनी शिक्षा हिंदी के माध्यम से ही की थी। भारत के कई शहरों में रहने के बाद आज कल में चेन्नई में रहता हूँ। यहाँ हिंदी की बोलचाल अन्य शहरों की विपरित कम हो ने के कारण मुझे कुछ समय न तो हन्दी के पुस्तोकों का पड़ने का मोका मिलता था और न ही दूसरों से बात चीत करने का! मगर पिछले कुछ सालों से चेन्नई में अधिक मात्रा में हिंदी भाषीय लोगों की आने के कारण काफी परिवर्तन दिखने में आ रही है। कुछ साल पहले हिंदी विरोध द्रमुख पार्टी का एक अहम् मुध्धा हुआ करता था पर अब नहीं। कई द्रमुख की नेताओं ने भी अपने बच्चों को हिंदी सीखने दुसरे प्रान्तों को भेजना शुरू कर दिया है ! अपनी इस ब्लॉग में मैं मेरी सोच, विचार और विश्लेषण आगे रखूँगा और आशा है की यह आपको पसंद आएगी. जो मुध्धे रखूँगा वह राजनीती और अन्य विषयों पर होगी जिस पर मेरा लगाव रहा है।" इस ब्लॉगर का हिन्दी प्रेम वाकई प्रशंसनीय है। 

पुलवामा आतंकी घटना के बाद बदलते परिवेश में हिन्दी का लगभग हर ब्लॉगर यथासामर्थ्य अपने शहीदों को विदाई दे रहा है, श्रद्धांजलि दे रहा है वहीं वेब दुनिया हिन्दी पर पंडित हेमंत रीछारिया ने इसे विमर्श का रूप देते हुये कहा है, कि क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया है कि इस प्रकार सुलभ श्रद्धांजलि व्यक्त कर हम उन शहीदों को ही नहीं अपितु स्वयं को भी धोखा दे रहे हैं। इस प्रकार की श्रद्धांजलि एक आत्मवंचना है। यदि ऐसा नहीं है तो सामान्य दिनों में हमारी दिनचर्या व आचरण अपने देश के प्रति श्रद्धा व प्रेम से परिपूर्ण क्यों नहीं होता? आख़िर हम उन शहीदों को ही तो श्रद्धांजलि देकर अपनी देशभक्ति का प्रकटीकरण कर रहें हैं जिन्होंने देशसेवा के लिए अपने प्राणों तक को न्यौछावर कर दिया। फ़िर क्यों नहीं हम उनकी शहादत से प्रेरणा लेकर अपनी दैनिक दिनचर्या व आचरण में देशभक्ति व देशसेवा को सम्मिलित करते? 

यदि हम अपने शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि देना ही चाहते हैं तो उनसे प्रेरणा लेकर वह कार्य करें जिसके लिए उन्होंने अपने प्राणों तक का बलिदान दे दिया, वह है- देशप्रेम व अपने देश के प्रति निष्ठा। जिस दिन हम एक भी कार्य ऐसा करेंगे जिसका उद्देश्य निजी हित के स्थान पर देशहित होगा केवल उसी दिन हम अपने शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे।

प्रमोद जोशी ने अपने ब्लॉग जिज्ञाषा में "पुलवामा और पनीली एकता का राजनीतिक-पाखंड" नाम से बेहद सारगर्भित लेख पोस्ट की है।अपने दूसरे लेख में वे कहते हैं कि "कश्मीरियों को जोड़िए, तोड़िए नही" वहीं हिमकर श्याम ने अपने ब्लॉग शीराज़ा में जन्नत लहूलुहान के नाम से एक सुंदर और सारगर्भित कविता पोस्ट की है। विद्युत प्रकाश मौर्य ब्लॉग लालकिला पर लिखते हैं कि "भारत पाक के बीच पानी के लेकर पुरानी है खींचता" वहीं अंशुमाला ने अपने  ब्लॉग Mangopeople मे "ये कभी ख़त्म ना होने वाली लड़ाई है"  में कहती हैं कि "हम चाहे ४० के बदले चार सौ  पाकिस्तानी आतंकवादी मार दे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला | केवल कश्मीर में हाल के सालो में आतंकवादियों के मारे जाने का आंकड़ा लगभग पांच सौ से ऊपर है | सर्जिकल स्ट्राइक और सीमा पर घुसपैठ के समय जो मारे गए वो  अलग से है | जो देश अपने लोगों के जान की कोई कीमत ही नहीं समझता हो | जो उनके लिए मात्र उनकी महत्वाकांक्षाओं को  पूरी करने का एक मामूली मोहरा है भला उस देश के आतंकवादियों को खाली मार कर हम उसे कैसे रोक सकते है?" एल एस बिष्ट अपने ब्लॉग क्षितिज में लिखते हैं - "घडियाली आंसूओं से खत्म न होगा आतंकवाद" आदि।

अन्य भाषाओं के ब्लॉग की तरह हिन्दी भाषा के ब्लॉग पर भी चुनाव चर्चा की गरमागरम भट्टी सुलगती रहती है। वर्तमान चुनाव की बात करें तो चुनाव परिणामों से इस बार नेता से लेकर टीवी चैनल्स तक सब सकते में हैं। कुछ ब्लॉग हैं जहां राज्य से लेकर राष्ट्रीय राजनीति के कुछ बिंदुओं पर बात की गई है। कहीं गुस्सा है, कहीं खुशी है, कहीं विश्लेषण है तो कहीं व्यंग्य भी है और कहीं-कहीं काव्यमय प्रतिक्रिया भी दी गई हैं। 

बीबीसी हिन्दी ब्लॉग पर संजय कुमार कहते हैं कि 2019 लोकसभा चुनाव में अगड़ी जाति के वोटों से होगा फ़ैसला, वहीं डचे वैली में कहा गया है, कि लोकसभा उपचुनाव के नतीजों के आधार पर यकीन के साथ कहा जा सकता है कि अब मोदी लहर थकती नजर आ रही है। विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव में उसके हिस्से में केवल एक ही सीट आई। 

नारी शक्ति के अभ्युयदय में जहाँ एक ओर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आगे आ रही प्रतिभासम्पन्न‍ महिलाओं द्वारा तय किये गये मील के पत्थरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं दूसरी ओर अनेक विचारशील महिलाओं ने अपने विरूद्ध रचे जाने वाले षडयंत्रों के खुलासे करके भी महिला शक्ति के विकास में भरपूर योगदान दिया है। लखनऊ निवासी प्रतिभा कटियार एक ऐसी ही विचारशील ब्लॉगर हैं, जिनके विचारों की अनुगूँज उनके ब्लॉग ‘प्रतिभा की दुनिया’ में केवल इस वर्ष ही नहीं देखि गयी,अपितु विगत तीन-चार वर्षों से देखी जा रही है । पर्दे के पीछे से छिपकर लेखन के क्षेत्र में उन्मुक्त उड़ान भरने वालों में अग्रणी ब्लॉगर उन्मुक्त पर इस वर्ष भी बेशुमार उपयोगी सामग्री प्रकाशित हुई है । ब्लॉग जगत में ऐसी प्रतिभाओं की कमी नहीं है, जिन्होंने उचित माहौल पाकर स्वयं को आम आदमी से अलग साबित किया है और अपनी रचनात्मक क्षमताओं का लोहा दुनिया वालों से मनवाया है। अल्पना वर्मा एक ऐसी ही बहुमुखी प्रतिभा सम्पान्न ब्लॉगर हैं। उनके चर्चित ब्लॉग का नाम है ‘व्योम के पार’ , जिसपर उनकी प्रतिभा को इस वर्ष भी देखा और परखा गया । नारी शक्ति की प्रतीक एक और शख्शियत का नाम है शिखा वार्ष्णेय जिन्होंने अपने ब्लॉग ‘स्पंदन’ के द्वारा विचारशील लोगों के मन के तारों को झंकृत करने के लिए इसवर्ष भी प्रयासरत नजर आई।समय की नब्ज समझने वाले ब्लॉगरों में इस वर्ष भी अग्रणी दिखे कोटा, राजस्थान निवासी दिनेश राय द्विवेदी अपने ब्लॉग ‘अनवरत’ के माध्यम से । 

शिक्षा से जुडी विषमताओं और विद्रूपताओं को ब्लॉग‘प्राइमरी का मास्टर’ के माध्यम से उजागर करते हुए क्रान्ति का शंखनाद करने वालों में विगत कई वर्षों से अग्रणी प्रवीण त्रिवेदी के तेवर लगातार बरकरार है।
बॉलीवुड अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम होने के कारण रामलीला न करने देने से गौतमबुद्ध नगर के एसएसपी धर्मेंद्र सिंह आहत हुये। उन्होंने अपनी पीड़ा ब्लॉग के जरिए जाहिर की। सोशल साइट्स पर उनका लिखा ब्लॉग चर्चा का विषय बना हुआ है। उन्होंने इसमें लिखा कि रामलीला के आधार रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास ने राम को गरीबनवाज लिखा है। जब उसका विरोध नहीं हुआ तो फिर नवाजुद्दीन के रामलीला मंचन का विरोध क्यों? 

ध्यान रहे कि मुस्लिम होने के विरोध से नवाजुददीन पैतृक गांव मुजफ्फरनगर के बुढ़ाना की रामलीला में मारीच का किरदार नहीं निभा पाए, जिसके लिए उन्होंने ड्रेस रिहर्सल भी की थी। 

नवाजुद्दीन ने बाद में माइक्रो ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर निराशा जताते हुए लिखा था कि उनका बचपन का सपना पूरा न हो सका। आइपीएस अधिकारी धर्मेंद्र सिंह ने भी ब्लॉग की शुरुआत वहीं से की। उन्होंने लिखा कि खबर है कि किसी शख्स के नाम में 'नवाज' लगा था। वह अपने गांव की रामलीला में कोई किरदार निभाए, यह उसकी हसरत थी। कुछ लोग आए, घोषणा कर गए कि 'नवाज' के नाम का कोई शख्स जिसके साथ 'दीन' शब्द भी लगा था, रामलीला का कोई चरित्र नहीं निभाएगा। 'नवाज' जो मारीच बनने की हसरत लिए था, वापस लौट गया। यह भी कह गया कि अगले बरस फिर से कोशिश करेगा। 

आइपीएस धर्मेंद्र सिंह का नवाजुद्दीन के समर्थन में लिखा गया यह ब्लॉग सोशल साइट्स पर खूब पसंद किया गया। सोशल साइट्स पर तमाम लोगों ने धर्मेंद्र सिंह का समर्थन किया। धर्मेंद्र सिंह इससे पहले भी राष्ट्रीय मसलों पर पक्ष देकर चर्चा में रह चुके हैं। उन्होंने दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल के पुलिस वालों को ठुल्लू कहने पर पत्र लिखकर नाराजगी जताई थी। मथुरा कांड के दौरान पुलिस की मजबूरी पर टीवी पत्रकार को जवाब देकर खासा चर्चा में रहे थे। 

समकालीन हिन्दी ब्लॉग सूची में एक महत्वपूर्ण ब्लॉग है लोकसंघर्ष, ब्लॉगर हैं एडवोकेट रणधीर सिंह सुमन। पुलवामा में अर्द्ध सैनिक बलो को सच्ची श्रद्धाजंलि के अभिप्राय को रेखांकित करते हुये रणधीर सिंह सुमन कहते हैं कि पाकिस्तान के साथ व्यापारिक सम्बन्धों को समाप्त कर आर्थिक हड्ड़ी तोड़ने का काम करें सरकार। सुमन ने आगे कहा कि नौजवानो की शहादत से पूरा देश शहीद नौजवानों के साथ खड़ा है। लेकिन कुछ साम्प्रादायिक शक्तियां देश की एकता और अखण्ड़ता को कमजोर करने के लिये राजनीत कर रही है। जिसकी हम सब निंदा करते है। अनवरत में दिनेश राय द्विवेदी कहते हैं कि राजनीति में सामंतवाद महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। 

अपने ब्लॉग नया जमाना में गांधी और उनके सत्याग्रह पर अपनी सारगर्भित टिप्पणी कराते हुये जगदीश्वर चतुर्वेदी कहते हैं कि असल में सत्याग्रह तो गांधी के समग्र राजनीतिक पाठ का मूलाधार है, उनके आंदोलन की समग्रभाषा और अंतर्वस्तु इसके जरिए पढ़ी जा सकती है। इसके जरिए स्वाधीनता संग्राम के समग्र पाठ को पढ़ा जा सकता है। सत्याग्रह आंदोलनों की एक अन्य विशेषता यह है कि वे राजसत्ता की संरचनाओं के भ्रष्ट और दमनकारी रूपों को सामने लाते हैं, सतह पर ये रूप स्थानीय प्रतीत होते हैं लेकिन उनकी प्रकृति व्यापक होती है, राष्ट्रीय होती है। वे बार बार अन्याय को रेखांकित करते हैं। वे सिस्टम के एब्नार्मल आचरण को उद्घाटित करते हैं। 

आज के दौर में एक और महत्वपूर्ण ब्लॉग है समालोचन जिसकी चर्चा के बगैर इस लेख का कोई मतलब नहीं। समकालीनता और देवी शंकर अवस्थी के बहाने पुखराज जंगीद कहते हैं कि रचना पर विचारधारा और रचनाकार के अत्यधिक प्रभाव के क्या नतीजे होते है इसका परिणाम समकालीन आलोचना की बदहाली में देखा जा सकता है। यहाँ वाद-विवाद, आरोप-प्रत्यारोप तो होते है पर सृजनधर्मा संवाद नहीं। नामवर के होने न होने के बीच अरुण देव कहते हैं कि भारतीय भाषाओँ में हिंदी आलोचना प्रभावशाली और विद्वतापूर्ण नामवर सिंह की वजह से है। आलोचना को अपने समय के साहित्य-सिद्धांत, विचारधारा और अद्यतन सामजिक विमर्श से जोड़कर उन्होंने उसे विस्मयकारी ढंग से लोकप्रिय बना दिया था। अध्यवसाय, स्पष्टता और सौष्ठव के कारण ही साहित्य के मंचों पर एक आलोचक वर्षों-बरस चाव और उत्तेजना के साथ सुना जाता रहा। साहित्य को बाज़ारवाद और दक्षिणपंथी सोच से बचाने और उसे प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर प्रखरता देने के क्रम में वे कई मोर्चों पर एक साथ सक्रिय रहे। ‘आलोचना’ पत्रिका ने इस तरह के विमर्श को जगह दी वहीं उनके हिंदी विभाग (जेएनयू) ने विवेकवान शिक्षक समाज को दिए। साहित्य की कई पीढ़ियों को उन्होंने सहेजा और संवारा. एक तरह से यह नामवर-समय है। आज जब वे नहीं हैं उनकी कृतियाँ यह काम करती रहेंगी। उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनकी परम्परा का विकास हो, आलोचना और जीवंत हो, अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से कभी विमुख न हो तथा एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में वह विश्व में उल्लेखनीय बने। 

राजू रंजन प्रसाद का एक ब्लॉग है "मत मतांतर" जिसका पंचलाइन है कि बात अगर यहीं खत्म हो जाती तो बात और थी...। बिहार में शिक्षा की दुरवस्था के बहाने राजू कहते हैं, कि शिक्षा की बिगड़ती स्थिति पर चर्चा सामाजिक पतन के संदर्भ में ही हो सकती है। तीस-चालीस साल पहले हम शिक्षा को अगर बेहतर स्थिति में पाते हैं तो उसके कारण भी हैं। वह दौर नेशनलाइजेशन और सरकारी संस्थानों के प्रति श्रद्धा और कमिटमेंट का है। मूल्यों के प्रति कमिटमेंट है। 

इस दौर में सरकार और जनता के समन्वित प्रयास से संस्थान खुले। सिर्फ स्कूल नहीं। हर गांव का अपना एक सार्वजनिक पुस्तकालय था। आज वे सारे सार्वजनिक पुस्तकालय निजी हो गए हैं। पटने की सिन्हा लाइब्रेरी की हालत क्या हुई? किताबों के पन्ने ब्लेड से काटे हुए हैं। ब्रिटिश लाइब्रेरी बन्द हो गई। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद गया तो पता चला कि पुस्तकालय की किताबें घरों की अलमारियों की शोभा बढ़ा रही हैं। एक वाक्य में कहें कि सामाजिक संस्थानों के प्रति जो हमारा भाव था, आज नहीं है। 

कुल मिलाकर देखा जाये तो आज हिन्दी ब्लॉग जगत में बहुतेरे ब्लॉग हैं जो समकालीनता की पकड़ के मामले में मील के पत्थर साबित हो रहे हैं और समकालीन विषयों को दृढ़ता के साथ पाठकों को परोस कर ब्लॉग की गरिमा को बनाए हुये हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि आज हिन्दी ब्लॉग जगत अपने सामाजिक सरोकार को दृढ़ता के साथ प्रस्तुत कर इलेक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया को बाजीव चुनौती देने में सफल हो रहे हैं। निश्चित रूप से आने वाला समय इन्हीं ब्लॉगस का होगा।

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