अधूरी कहानी 
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 राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित एक कहानी प्रतियोगिता में इस बार निर्णायक मंडल ने अरुण कुमार की कहानी को चुना था। प्रथम पुरस्कार के लिए जो कहानी चुनी गयी, वह एक ऐसे बच्चे पर आधारित थी जिसके मां-बाप बचपन में ही काल के गाल में समा जाते हैं, और वह बच्चा तमाम उतार-चढ़ाव के बाद आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री बनता है। जजों में शामिल माधवी जो कि तीन साल पहले इसी संस्थान से सम्मानित की गयी थीं, जब उसने इस कहानी को पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुई मगर जब उसने लेखक का नाम पढ़ा तो उसके चेहरे के भाव बदलने लगे। 
अरुण कुमार ......कहीं यह वही तो नहीं.... हृदय में अजीब-सी उथल-पुथल शुरू हो गयी। ‘सर’ उसने अपने साथ में बैठे हुए वरिष्ठ साहित्यकार निर्मल आहुजा से कहा।

‘हां बोलो माधवी…
’  मैं इस लेखक की फोटो देखना चाहती हूं।'
‘लेकिन तुम्हें तो पता होगा प्रतियोगिता में फोटो भेजने का प्रावधान नहीं है। नहीं तो प्रतियोगिता की पारदर्शिता पर लोग प्रश्नचिन्ह लगा सकते हैं।’
‘सॉरी सर! मैं भूल गयी थी,’ उसने जल्दी में अपनी बात संभाली। 
‘लेकिन बात क्या है?’ 
‘कोई बात नहीं सर… बस ऐसे ही पूछा था।’ 
 * * * * वह घर आ चुकी थी लेकिन उसके हृदय पर न जाने कैसा बोझ महसूस हो रहा था, जिसे वह उतार फेंकना चाहती थी मगर उतारे कैसे?..... घर जाते ही अदिति उससे लिपट कर प्यार जताने लगीमगर आज उसका मन उचाट था..इतने दिनों से दबी चिंगारी को इस नाम ने आकर फिर से हवा दे दी… आखिर क्यूं..? वो तो भूल चुकी थी हर बात… हां हर बात... लेकिन आज फिर से जख्मों को इस नाम ने कुरेद डाला। उसका सिर भारी होने लगा, एक अनचाहा दर्द उसके सीने में टीस मारने लगा। उसे ऐसा लग रहा था जैसे भूतकाल उसके सामने प्रकट हो गया… वह भूतकाल जिसे वह वर्तमान में कभी याद नहीं करना चाहती… लेकिन वह तो सामने आ चुका था दृश्य रूप में उसके मानस पटल पर— दीवार घड़ी ने रात के बारह बजने का संकेत दे दिया था। 

मधुमालती अब भी उस शख्स का इंतजार कर रही थी जो सिर्फ उसका था मगर वो न जाने कहां होगा। इधर कुछ दिनों से उसका रूटीन बन गया था यूं ही घड़ी देखते हुए उसका इंतजार करने का… और वो निर्मोही… उसे कोई फिक्र ही नहीं थी उसकी। वह इन्हीं ख्यालों में गुम बार-बार घड़ी देखती, फिर खिड़की खोलकर सड़क… शायद वह दिख जाये। मगर उसकी अभिलाषाओं की तरह सड़क भी एकदम सूनी थी। दूर-दूर तक कोई नहीं..... करीब एक बजे दरवाजे पर दस्तक हुई। 

उसका मुरझाया चेहरा कुछ विकसित हुआ झट से दौड़कर उसने दरवाजा खोला तो सामने का दृश्य देखकर उसकी आंखें फटी की फटी रह गयीं। जिसके इंतजार में उसने इतनी रात जागकर काट दी… वह शख्स लडख़ड़ाता हुआ अंदर आया। ‘आज आप फिर से पीकर आये हैं।’ रोते हुए पूछा था उसने। ‘हां… पीकर आया हूं… तेरे बाप का क्या जाता है?’ कहते हुए उसने एक भद्दी गाली उछाली। ‘क्यूं अपनी जिंदगी बर्बाद करने पर लगे हो।’ ‘जिन्दगी बर… बाद..’ कहते हुए पागलों की तरह हंसा था वह।

‘मैं.. मैं.. आबाद ही कब रहा हूं, जब से.. जब से तुमने इस घर में कदम रखा है मेरी जिंदगी नरक बन गयी है।’ ‘ ऐसा क्या किया है मैंने…’ वो हतप्रभ थी ‘तुम बहुत अच्छे ढंग से जानती हो… कि मैं क्या चाहता हूं।’ ‘मगर उसके लिए मैं क्या कर सकती हूं। मैंने बत्रा क्लीनिक में अपना चेकअप कराया था मैं मां बनने के लिए पूरी तरह से सक्षम हूं। 

उन्होंने कहा था दोनों लोगों का चेकअप.....’ तड़ाक! एक जोरदार थप्पड़ पड़ा उसके गालों पर। ‘तू यह कहना चाहती है कि मैं नामर्द हूं। मुझमें बच्चा पैदा करने की क्षमता नहीं।’ ‘मैंने ऐसा कब कहा.... मैं… तो…।’ ‘सफाई देती है …सा… ल्ली …।’ जोर से दहाड़ा था वह। ‘तू अगर चाहती है कि मैं ठीक से रहूं तो मेरी मुराद पूरी कर दे… पांच साल हो चुके हैं शादी के… अभी तक एक बच्चे की किलकारी तक नहीं गूंजी घर में। यार-दोस्त न जाने कैसे-कैसे मजाक करते हैं। बहुत हो चुका अब मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता।’ 

 ‘तुम चेकअप भी न कराओगे ....और मुझसे बच्चा भी चाहिए....क्या ये अकेले हमारे बस का है? "मुझे कुछ नहीं सुनना ...जो कहा है गांठ बांध लो" वो दहाड़ा "सुनो !क्यों न हम एक बच्चे को अनाथ आश्रम से गोद ले लें। ‘ सिसकते हुए बोली थी वह। ‘क्या…कहा…जरा फिर से बोल… अनाथ आश्रम का बच्चा।’ ‘तो इसमें गलत क्या है।’ उसके इस लफ्ज पर जैसे भूत ही सवार हो गया था फिर क्या था लात-घूंसे बरसने लगे उसके ऊपर और वह गाय गोरू की तरह चीखती-चिल्लाती रही। इस पर भी उसका गुस्सा शांत न हुआ। 

हाथ पकड़ कर घसीटता हुआ घर के बाहर खींच ले गया और पीठ पर एक लात जड़ते हुए बोला — "आज के बाद इस घर के दरवाजे बंद हो चुके हैं तुम्हारे लिए, जा तुझे जहां जाना है। मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। बांझ कहीं की....." उसके इन शब्दों ने जैसे उसके कानों में गर्म शीशा उड़ेल दिया था। अभी तक वह जमीन पर पड़ी रो रही थी, अचानक उसमें न जाने कहां से शक्ति आ गयी। सिंहनी की भांति दहाड़ते हुए वह बोल उठी — " वाह वाह बहुत खूब....अच्छा लगा सुनकर स्त्रीवादी लेखक.....मगर घर की स्त्री की कोई वैल्यू नहीं..... अरे! तुम तो वो इन्सान हो जो अपने एक -एक आंसू की कीमत वसूलते हो कागज के पन्नों पर लिखकर ... तुम्हें तो हर दिन एक नयी कहानी की तलाश रहती है ...इस कहानी को भी लिख लेना, बहुत प्रसिद्धि मिलेगी। 

वैसे भी औरत एक कहानी से ज्यादा कब रही है इस पुरुष प्रधान देश में ...एक कहानी और सही। लेकिन एक बात याद रखना मिस्टर अरुण कुमार तुम्हें बच्चों का सुख कभी नहीं मिलेगा....चाहे तो एक बार जाकर चेकअप करवा लेना ....क्योंकि तुम नामर्द हो....और हां,तुम क्या निकालोगे मुझे घर से, मैं खुद ही जा रही हूं, इस दलदल से दूर ...इतनी दूर जहां तुम्हारे कदमों के निशान तक न पहुंचे।" वह मूर्तिवत खड़ा रहा, उसने उसे रोका नहीं और वह सुनसान सड़क की खामोशी को तोड़ने के लिए एक अंजान मंजिल की तरफ बढ़ती चली गयी। आज चौदह साल बाद फिर से वही नाम उसकी आंखों के सामने तैर गया। इन सालों में उसने कितने संघर्ष किये, क्या-क्या परेशानियां उठायीं — सब याद है उसे। किस तरह उसने लोगों के घर काम करके अपना जीवन काटा। ये तो अच्छा हुआ कि उसे निर्मल जी जैसे श्रेष्ठ साहित्यकार का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।

उन्हीं की प्रेरणा से उसने एक किताब ‘स्त्री वजूद’ लिखी जो प्रदेश तो क्या पूरे भारत सहित अन्य राष्ट्रों में भी अनुवादित होकर हाथों-हाथ ली गयी। उसने अपना नाम बदलकर माधवी कर लिया था। पुस्तकों से प्राप्त होने वाली धनराशि से उसने एक घर खरीदा। अनाथ आश्रम से उसने एक बेटी को गोद भी लिया। उसकी जिंदगी में हर तरफ खुशियां ही खुशियां थीं। लेकिन आज अतीत ने जख्मों को फिर से ताजा कर दिया। नहीं ऐसा नहीं हो सकता… हो सकता है यह कोई दूसरा ही इन्सान हो। आजकल तो एक नाम के कई लोग मिल जाते हैं। करीब दस दिन के बाद उसके पास निर्मल जी का फोन आया। उन्होंने उसे बताया कि साहित्यकार मंडल ने अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए उसे चुना है। यह सुनकर वह अवाक रह गयी, जिस तरफ वो जाने से बचती है, लोग उसे उसी तरफ क्यूं ढकेल देते हैं।

उसने साफ मना कर दिया कि वह नहीं आ पायेगी। मगर निर्मल जी ने बताया कि यह बात लेखक को को डाक द्वारा बतायी जा चुकी है कि उसे पुरस्कार प्रदान करने के लिए तुम आ रही हो। ‘लेकिन इतना सब करने से पहले आपने मुझसे पूछा क्यूं नहीं?’ ‘अरे! ये भी कोई बात हुई आजकल तो लोग प्रसिद्धि पाने के लिए ऐसे कार्यक्रमों की फिराक में रहते हैं और एक आप हैं कि…।’ ‘सॉरी सर मैं नहीं आ सकती।’ ‘यानी कि मेरी इज्जत मिट्टी में मिलाने का पूरा इरादा है, अब तक तो कार्ड बांटे जा चुके हैं। खैर ठीक है…आपकी मर्जी…।’ एक लंबी सांस खींचते हुए बोले थे वह, उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था जैसे कि लंबी रेस जीतने से पहले ही वह थक गये हों। ‘ठीक है सर मैं आ जाऊंगी… मगर केवल पुरस्कार प्रदान करने के तुरंत बाद चली जाऊंगी।’ निर्मल जी उसकी जिंदगी में एक आदर्श की तरह थे…। 

एकदम बेटी की तरह उसे प्यार करते थे लिहाजा उनकी बात काटने का सामर्थ्य उसमें न था * * * * शाम के सात बज रहे थे जब निर्मल जी ने तमाम लेखकों और बुद्धिजीवियों से भरे हॉल में अरुण कुमार को पुरस्कार प्रदान करने के लिए माधवी के नाम का एनाउंसमेंट किया। माधवी ने ज्यों ही सम्मानित होने वाले शख्स को देखा, उसके पैर थम गये। उस शख्स ने भी एक नजर उसे देखकर अपनी नजरें झुका लीं।उफ्फ...वही सख्स.... कितना दुखद दृश्य था वह....इसी दृश्य से तो वह बचना चाहती थी...मगर अब.... जो इन्सान अब तक ये समझता आया था कि उससे दूर होने के बाद मुधमालती ने अपना अस्तित्व गिरवी रख दिया होगा या फिर मर खप गयी होगा आज वही मधुमालती उसे पुरस्कार प्रदान करेगी और वो पुरस्कार ग्रहण करेगा...इससे बड़ा नियति का क्रूर मजाक और क्या होगा.... उससे नजरें मिलते ही अरुण कुमार का सारा अहंकार टूट-टूट कर शीशे के माफिक उसके हृदय में चुभने लगा। 

माधवी ने पुरस्कार निर्मल जी के हाथ से लेकर उसे पकड़ा दिया, औपचारिक रूप से उसने धन्यवाद किया। किसी से कुछ कहने की अपेक्षा वह धम्म से कुर्सी पर बैठ गया। मानो उसका सम्मान न किया गया हो बल्कि सैकड़ों जूते मारे गये हों। माधवी वहीं खड़ी रही। अचानक ऑडियन्स में बैठे साहित्यकार माधवी से अपनी पसंद की गजल सुनाने की फरमाइश करने लगे। तब तक निर्मलजी ने भी सभी साहित्यकारों का दिल रखने के लिए उसे एक छोटी-सी रचना सुनाने को कह दिया। 

अंदर से हूक उठ रही थी बस मन यही हो रहा था कि वो तुरंत यहाँ से चली जाए मगर निर्मल जी की बात वो कैसे ठुकरा सकती थी। उसने माइक संभाल लिया- यूँ तो मेरे लब पर आयी,अब तक कोई आह नहीं तेरी जफ़ाओं पर चुप हूं तो, इसका मतलब चाह नहीं तू कहता था तेरी मंज़िल, नज़रों में वाबस्ता है सच - सच कहना मेरी तरह ही, तू भी तो गुमराह नहीं पतझर का मौसम काबिज़ है, दिल में पूरे साल इधर कितनी बार कलेंडर पल्टा, उसमें फागुन माह नहीं अश्कों का था एक समंदर, जिसके पार उतरना था डूब गयी मैं जिसके ग़म में,उसको है परवाह नहीं तुझसे मिलकर मेरी धड़कन, बेकाबू हो जाती थी अब ये बर्फ़ सरीखे रिश्ते, मिलने का उत्साह नहीं जीना मुश्किल कर देती है, बेचैनी को बढ़ा कर जो अपनी यादें ले जा मुझसे, होगा अब निर्वाह नहीं आज उसकी आवाज में दर्द का अहसास अधिक गहरा था..लोग मंत्रमुग्ध हओकर सुन रहे थे। 

ग़ज़ल खत्म होते ही हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा...मगर वो बदहवासी में झट से मंच से उतरकर बाहर खड़ी कार में जा बैठी। सब हैरान थे। 

 ======== घर पहुंचने के बाद माधवी का जी चाह रहा था कि फूट-फूट कर रोये मगर गले में जैसे कुछ धंसक गया था वह इन्हीं ख्यालों में गुम थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। ‘कौन है?’ आंसू पोछकर झुंझलाते हुए उसने दरवाजे की जगह खिड़की खोल दी।सामने वही चेहरा जिससे उसे नफरत हो चुकी थी। ‘तुम… अब यहां क्या करने आये हो?’ ‘मैं…म…मैं तुमसे माफी मांगने आया हूं मालती।’ ‘कौन मालती… ? मालती को तो मरे हुए चौदह साल हो चुके हैं। मैं माधवी हूं, मैं तुम्हें नहीं जानती, चले जाओ यहां से।’ अंतिम शब्द त आते आते वो चीख पड़ी थी । ‘चला जाऊंगा, लेकिन बस… एक बार… बस एक बार कह दो कि तुमने मुझे माफ कर दिया।’ घुटनों के बल बैठकर गिड़गिड़ा उठा था वह। ‘मैंने कहा न, मैं तुम्हें नहीं जानती… अब तुम शराफत से जाते हो या मैं शोर मचाऊं।’ यह कहकर उसने खिड़की बंद कर दी। 

करीब पंद्रह मिनट तक कोई आहट नहीं हुई। उसे लगा वह जा चुका है… अच्छा है… जब उससे कोई वास्ता नहीं तो फिर किसलिए माफी...... मेरी जिंदगी नरक बनाकर आज मुझसे माफी मांगने आया है। अचानक उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा… वाह माधवी वाह… मधुमालती से माधवी बन गयी तुम, केवल नाम बदल दिया ....मगर स्त्रीत्व… उसे कैसे बदलोगी? अगर तुम उसे नहीं जानती तो फिर तुम्हारे गले में मंगलसूत्र, मांग में लगा सिंदूर किसलिये और किसके लिए? उतार फेंको यह मंगलसूत्र,पोंछ डालो सिंदूर…अरुण कुमार के नाम का ये बंधन भी किसलिए? लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती… भले ही ऊपर से चाहे जो कुछ कहो माधवी लेकिन तुम्हारा अंत:स्थल क्या कभी उसे भूला… नहीं कभी नहीं....तुम्हारी ग़ज़लों में मुखर पीर आखिर किसकी है? फिर तुमने उसे पहचानने से कैसे इनकार कर दिया? ‘चुप हो जाओ… मैं अब कुछ भी नहीं सुन सकती।’ वह चीखते हुए रो पड़ी। 

उसकी चीख सुनकर अदिति जग गयीे थी किसी तरह समझा-बुझाकर उसने फिर से सुला दिया लेकिन खुद न सो सकी.....पुराने दिनों की यादें मथनी सरीखी उसके जेहन को मथती रहीं। * * * * रात का करीब एक बज रहा था जब फोन की घंटी घनघना उठी। वैसे तो वह सोयी नहीं थी किंतु उसका मन फोन उठाने का नहीं था, लेकिन घंटी जब काफी देर तक बजती रही तो उसे फोन उठाना पड़ा। ‘हैलो…। कौन?’ पूछा था उसने। ‘मैं निर्मल आहुजा बोल रहा हूं’ — उधर से खोई-खोई-सी आवाज आयी। ‘इतनी रात गये सर! सर सब ठीक तो है न।’ बड़ी हैरत से पूछा था उसने। ‘मैं जो कुछ पूछ रहा हूं सच-सच बताना। क्या आप अरुण कुमार को जानती हैं?’ उसके कानों में जैसे विस्फोट हुआ — लेकिन जल्दी ही संभल कर बोली , ‘आज इतनी रात गये आप ये सब क्यूं पूछ रहे हैं।’ ‘पहले यह बताओ उसे जानती हो या नहीं।’ ‘हां... कभी मेरे पति हुआ करते थे। ‘थे’ शब्द पर उसने विशेष जोर दिया था। ‘करते नहीं थे, आज भी हैं क्योंकि तुम दोनों का तलाक नहीं हुआ है। "मगर सर बात क्या है?"

" शायद अब वह जिंदा न बचें । कल जब वो तुम्हारे घर आये थे तो तुमने दरवाजा नहीं खोला। काफी देर तक वहीं बैठे रहे मगर दरवाजा नहीं खुला। फिर वो इसी उम्मीद में बार-बार घर की तरफ देखते हुए बढ़ रहे थे। अचानक सड़क पर जा रहे एक ट्रक ने उन्हें टक्कर मार दी। वो इस वक्त ‘शकीरा नर्सिंग होम’ में जिंदगी और मौत के बीच सांसें गिन रहे हैं। डाक्टरों ने उनके बचने की आशा छोड़ दी है। वो एक बार आपसे मिलना चाहते हैं।’ ‘मगर आपको ये सब कैसे पता चला।’ उसकी आवाज रुंध गयी थी। "दरअसल प्रोग्राम से बिना बताये ही आप रोते हुए चली गयी। फिर वो भी आपके पीछे-पीछे भागे। मुझे कुछ शक हुआ क्योंकि जब भी तुम्हारा इस नाम से सामना होता तुम बेचैन हो जाती थीं। बस इन्हीं सब बातों के याद आते ही मैं भी गाड़ी से उनके पीछे लग लिया। तुम्हारे घर के पास आकर वह उतर गये तब तक तुम घर के अंदर जा चुकी थी और मैं थोड़ी दूर पर खड़ा उनकी प्रतीक्षा करने लगा। बाद में जब वह सड़क पर आये तो एक्सीडेंट हो चुका था। 

मैंने उन्हें अपनी गाड़ी में डाला और यहां नर्सिंग होम ले आया। डाक्टरों का कहना है कि उनका बचना मुश्किल है।" " ‘मैं…मैं… अभी पहुंचती हूं।’ रिसीवर रख दिया था उसने। उसने एक नजर मंगलसूत्र पर डाली जिसकी एक लड़ी टूट चुकी थी। उसमें जरा भी आभा न थी… अभी कुछ देर पहले तक चमकने वाला मंगलसूत्र अब कांतिहीन हो गया था। उसने जल्दी से बेटी को जगाया और गाड़ी नर्सिंग होम की तरफ चल पड़ी। * * * * ‘मम्मी, इतनी रात को हम कहां जा रहे हैं?’ बेटी ने पूछा था। ‘तुम्हारे पापा से मिलने।’ ‘झूठ…झूठ… आप तो हमेशा कहती थी कि पापा कहीं खो गये हैं।’ वो जोर से चिल्लायी। ‘हां कहती थी मगर आज मिल गये हैं।’ ‘ तो क्या अब वो हमारे साथ रहेंगे।’ ‘हां… शायद।’ ‘ तब तो बड़ा मजा आयेगा।’बेटी खुश थी ‘हां, लेकिन अभी चुप रहो मेरा सर दर्द हो रहा है।’ ज्यों ही वह शकीरा नर्सिंग होम पहुंची, सामने निर्मल जी दिख गये। जो बाहर बेंच पर बैठे ऊंघ रहे थे।पदचाप की आवाज सुनकर उन्होंने आंखें खोलीं। 

 ‘आ गयीं तुम,… मैं कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था।’ ‘कहां हैं वो?’ पूछा था उसने। ‘इमरजेंसी वार्ड में हैं जाकर मिल लो सामने वाला कमरा है।’ उन्होंने इशारा किया। वह जल्दी से उस कमरे में पहुंची बेटी भी उसके साथ थी। सामने बेड पर पड़े जिस्म को देखकर सिहर उठी। पूरा शरीर खून से लथपथ था। माधवी को देखकर उसने उठना चाहा लेकिन माधवी ने हाथ के सहारे से उसे लिटा दिया। ‘ये क्या…हा…ल बना दिया तुमने?’ रोते हुए पूछा उसने। ‘सब… मे…रे…पा…पों का परि…णाम है… जो जुल्म मैंने तुम… पर…ढाए… ये उसी का प्रतिफल है। मुझे इस सजा पर कोई आपत्ति नहीं है। अब तो बस… चंद सांसें बची हैं मैं चाहता वो भी तुम्हारे सा… मने … टूट जायें।’ बोलते हुए आह भरी थी उसने। ‘न…हीं… तुम्हें… कुछ नहीं होगा। … मैं…मैं बचाऊंगी तुम्हें।’ ‘अब तो स्वयं ईश्वर भी मुझे नहीं बचा सकता....." फिर अचानक अदिती पर नजर पड़ते ही इशारे से पूछ लिया-" ये ब्..ब्..बेटी" ‘मेरी हैं… गोद ली है मैंने।’ 

 ‘अच्छा किया… मालती… जो इसे गोद ले लिया… नहीं तो… नहीं तो… मेरी चिता को आग कौन देता… मैं पूरी जिंदगी इसी सोच में डूबा रहा कि मेरे मरने के बाद मेरा.. क्या होगा…लेकिन अब नहीं सोचना है… अब मैं आराम से मर सकता हूं।" कहकर उसने अदिति की पीठ पर प्यार से हाथ फेरा… कितना सुखद अहसास था... वैसे भी मृत्यु के समय क्या अपना क्या पराया, दो मिनट के बाद तो सब कुछ यूं भी…।’ ‘काश! तुमने पहले ही मेरी बात मान ली होती… तो आज हम सब साथ होते… लेकिन आज.....।’ आगे के शब्द होंठों पर आते आते दम तोड़ चुके थे ‘मैं तुम्हारी नजरों से गिरना नहीं चाहता था… मालती… मगर…वक्त ने मुझे ऐसा गिराया कि उठने लायक भी नहीं बचा… फिर भी खुश हूं मैं.... मरते वक्त ही सही तुम मेरे करीब तो आयीं… मैंने आदर्शों को अपनी रचनाओं में खूब जिया… लेकिन हकीकत में एक भी आदर्श अपनी जिंदगी में नहीं अपना सका…काश! मैं तुम्हें खुश रख सकता मालती…मैं बहुत शर्मिंदा हूं माफ…करना…मु…झे …मालती…माफ….क… रना… मेरी…सांसें…उखड़…र…ही है" माधवी जबतक कुछ समझ पाती उसका हाथ उसके मंगलसूत्र में फंसकर नीचे आ गया जिसके फलस्वरूप मंगलसूत्र टूट कर नीचे गिर गया और उसके मनके बिखरते चले गये। 

 दूसरे दिन हजारों साहित्यकारों के बीच में अदिती ने उसे मुखाग्नि दी। माधवी कुछ पल चिता को निहारती रही, अचानक उसे लगा लपटें रुक गयीं और उसमें से एक चेहरा उभरा जो हंसते हुए उससे कह रहा था । "तुमने मेरी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जो वर्षों से मेरे हृदय में फांस की तरह चुभ रही थी — मेरी अधूरी कहानी पूरी हो गयी मालती… अब मैं जा रहा हूं सदा-सदा के लिए।" माधवी ने अपने आंसू दुपट्टे से पोंछ डाले… हमेशा…हमेशा… के लिए… क्योंकि उसे अदिती के लिए मुस्कुराना था। 
 नज़्मसुभाष 356/केसी-208 कनकसिटी आलमनगर लखनऊ-226017

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