--प्रियंका सौरभ   


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शुक्रवार को लाउडस्पीकर से अजान देने को लेकर बड़ा फैसला दिया है. हाईकोर्ट ने कहा कि अजान इस्लाम का अहम हिस्सा है, लेकिन लाउडस्पीकर से अजान इस्लाम का हिस्सा नहीं है. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि लाउडस्पीकर से अजान पर प्रतिबंध वैध है. किसी भी मस्जिद से लाउडस्पीकर से अजान दूसरे लोगों के अधिकारों में हस्तक्षेप है. अजान के समय लाउडस्पीकर के प्रयोग से इलाहाबाद हाईकोर्ट सहमत नहीं है.


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मस्जिद से अजान पर बड़ा फैसला देते हुए कहा है कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग नहीं है, हालांकि कोर्ट ने कहा कि अजान इस्लाम का धार्मिक भाग है. मानव आवाज में मस्जिदों से अजान दी जा सकती है. कोर्ट ने कहा है कि ध्वनि प्रदूषण मुक्त नींद का अधिकार जीवन के मूल अधिकारों का हिस्सा है. किसी को भी अपने मूल अधिकारों के लिए दूसरे के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है.


इस से पूर्व याची ने लाउडस्पीकर से मस्जिद से रमजान माह में अजान की अनुमति ना देने को धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने की मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर हस्तक्षेप करने की मांग की थी. मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर ने इसे जनहित याचिका के रूप में स्वीकार कर लिया और सरकार से पक्ष रखने को कहा. दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित कर लिया था. शुक्रवार को फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग नहीं है. स्पीकर से अजान पर रोक सही है. कोर्ट ने कहा कि जब स्पीकर नहीं था, तो भी अजान दी जाती थी, इसलिए यह नहीं कह सकते कि स्पीकर से अजान रोकना अनुच्छेद 25 के धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन है.


अब प्रश्न ये उठता है कि  क्या अगर मस्जिदों से लाउडस्पीकरों पर अजान न दी जाए तो इस्लाम खतरे में आ जाएगा?  या फिर मंदिरों में आरती लाउड स्पीकर से नहीं हुई तो हिन्दू धर्म मिट जायेगा और देवी-देवता नाराज़ होकर धरती छोड़कर भाग जायेंगे, हज़ारों साल पुराने इस्लाम और हिन्दू धर्म को इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि लाउडस्पीकर से अजान न भी दी जाए या आरती मौन रहकर की जाये। इस्लाम में मस्जिदें भी बाद में ही बनी और उन दिनों लाउडस्पीकर जैसा उपकरण था भी नहीं तो अजान तो एक मोइज्जिन ही तो देता था । आज भी वही देता है । मंदिरों में उस ज़माने में  पुजारी आराम से बिना किसी यन्त्र के मंत्र पढ़ते थे और पूजा-पाठ करते थे. लेकिन, अब लाउडस्पीकर लगा कर क्यों बेवजह का धार्मिक उन्माद पैदा करने की कोशिश में लगे है.


अजान बेशक इस्लाम का इसके प्रारंभिक दिनों से ही अभिन्न अंग हैं। इस्लाम, अजान और लाउड स्पीकर के संबंधों पर विगत दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक मील का पत्थर फैसला सुनाया है । अपने फैसले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि लाउडस्पीकर से अजान देना इस्लाम का धार्मिक भाग कत्तई नहीं है। हां, यह जरूर है कि अजान देना इस्लाम का धार्मिक परम्परा  जरूर है। इसलिए मस्जिदों से मोइज्जिन बिना लाउडस्पीकर अजान दे सकते हैं। निश्चित रूप से इस फैसले का तो चौतरफा स्वागत होना चाहिए, साथ ही अन्य धार्मिक स्थलों पर भी यही कानून लागू होने चाहिए.


हिन्दू धर्म में फैली कुरीतियों पर भी कसकर हल्ला बोला बोलना अब जरूरी हो गया है. हिन्दू धर्म के लोग भी आरती के नाम पर लाउड स्पीकर का प्रयोग करते है, मंदिरों की संख्या भी मस्जिदों की तुलना में बहुत ज्यादा है, हिन्दू धर्म  में जो  धार्मिक उत्सव होते हैं," उनमे लोग दादागीरी करते हैं, नाचते हैं.  ऐसा करने से पुलिस की तकलीफ बढ़ जाती है।" लोग धर्म के नाम पर शराब पीते हैं, फिल्मी गाने बजाते हैं।" अब कोर्ट के फैसले का कौन से धार्मिक समुदाय विरोध करेंगे? क्या इस्लाम को छोड़कर और कोई कुछ भी करे ये उनकी मर्जी है। पर कोर्ट ने गलत तो कुछ भी नहीं कहा। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि ध्वनि प्रदूषण मुक्त नींद का अधिकार व्यक्ति के जीवन के मूल अधिकारों का हिस्सा है। किसी को भी अपने मूल अधिकारों के लिए दूसरे के मूल अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार तो बिलकुल नहीं है.


 दरअसल वैश्विक महामारी कोरोना से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन घोषित किया गया है। इसके चलते उत्तर प्रदेश में भी सभी प्रकार के आयोजनों व एक स्थान पर भीड़ एकत्र होने पर रोक लगी। लाउडस्पीकर से अजान करने पर रोक लगाने का निर्देश दिया था। इसके खिलाफ गाजीपुर से  बाहुबली सांसद कोर्ट में चले गए। उन्होंने तर्क दिया कि रमजान के महीने में लाउडस्पीकर से मस्जिद से अजान की अनुमति न देने को धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन है।


बहरहाल, इस बार कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन के चलते रमजाने के महीनें में भी मस्जिदों से अजान नहीं सुनी गई। ऐसा नहीं कि अजान न हुईं होगीं। लेकिन लाउडस्पीकर का भोंपू अजान के साथ नहीं जोड़ा गया। समझ में नहीं आता कि मस्जिदों- मंदिरों- गुरुद्वारों को लाउड स्पीकर की जरूरत क्यों पड़ती है? नमाज और पूजा का काम शांति से भी तो हो सकता है।


दरअसल कुछ विसंगतियों के चलते ही ऐसा होता है।  यह परिवर्तन किसी धर्म विशेष  की वजह से नहीं कट्टरपंथियों की वजह से हुआ है। कट्टरपंथ किसी भी धर्म के लिये अच्छा नहीं होता। आज इसी कट्टरपंथ ने कई उदार और उद्दात्त हिन्दुत्व को भी संकीर्ण बना दिया है। किसी भी क्रिया के विरुद्ध प्रतिक्रिया तो स्वाभाविक प्रकृति का नियम है । किसी भी धार्मिक स्थान से तेज अवाज में शोर होना गलत है। धर्म कभी यह नहीं कहता है कि दूसरों को किसी भी तरह से तकलीफ दी जाए।


अपने धर्म को मानिये, प्रचार कीजिये। परंतु, ये भी तो आपकी जिम्मेदारी है कि उससे किसी को तकलीफ न हो। यही तर्क इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में दिया है। जब किसी भी धर्म का का उदय हुआ तो उस समय लाउडस्पीकर नहीं थे। सतयुग, त्रेता, द्वापर युग में भी लाउडस्पीकर नहीं थे। जो लोग अपने अनुसार धर्म की परिभाषा गढ़ रहे है, वह बहुत ही गलत और विनाशकारी है। सदियों पहले कबीर ने ये बात स्पष्ट तौर पर कही थी जैसी आज कोर्ट ने कही है -कांकर पाथर जोरि के ,मस्जिद लई चिनाय| ताचढ़ मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय ||”  वो कितने बड़े शैतान होंगे जिन्होंने कबीर जैसे महान् विज्ञानवादी और मानवतावादी सन्त को सीधा भक्ति से जोड़ दिया और लाउडस्पीकर में कैद करके रख दिया।


कोरोना काल में हमें अब धार्मिक अंधविश्वासों को किनारे करने की जरूरत है और विज्ञान को समझने की जरूरत है, धर्म हमें अच्छा रास्ता बताता है, उसे मानिये और मानने के लिए हमें तरह-तरह के ढोंग रचने की आवश्यकता नहीं है, वैसे भी कोरोना के खतरे की घंटी हमें यही बता रही है कि हमें अब मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारों कि बजाय अच्छे अस्पतालों और भगवान् कि शक्ल में दयालु और कर्मठ डॉक्टरों की ज्यादा जरूरत है, हमें अब धार्मिक उन्मादी की बजाय  विज्ञानवादी और मानवतावादी होने की सख्त जरूरत है।  
-रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, दिल्ली यूनिवर्सिटी, 
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,

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