--संतोष कुमार तिवारी
कृषि अधिनियम को लेकर इस समय किसान, नेता, मीडिया और अन्य लोग भी काफी चर्चा कर रहे है। सरकार इस अधिनियम को किसानो के लिए 'राम बाण' अधिनियम मान रही है तो विपक्ष के नेता और कुछ किसान संगठन इसे 'मीठा जहर' सिद्ध करने पर तुले है। जबकि सच्चाई यह है कि कुछ बातों पर दोनो पक्ष सही है जबकि कुछ बातों पर दोनो पक्ष गलत है। हालांकि देश में कृषि विशेषज्ञ है वे सरकार के तरफ से लाये गये इस अधिनियम के बारे मे काफी मंथन करने के बाद ही सार्वजनिक किये होंगे। लेकिन सरकार ने अधिनियम में जो आवश्यक वस्तु अधिनियम (भंडारण) के अन्तर्गत भंडारण की छूट दे दी है इससे हो सकता है कि कालाबाजारी में वृद्धि हो और छोटे किसान या भंडारण करने वालो को नुकसान हो सकता है। क्योकि सरकार ने केवल दो स्थिति (युद्ध और महामारी) मे भंडारण पर रोक लगाई है। लेकिन बाकी समय में भंडारण किया जा सकता है।
सरकार ने मूल्य आश्वासन व बंदोबस्त सुरक्षा अधिनियम के माध्यम से किसानों को कांटेक्ट फार्मिंग की छूट दे दी है। जिसमे किसान बडी बडी कम्पनियों से कॉन्टेक्ट पर खेती कर सकता है। जिसमें यह सुविधा होगी कि किसान और कम्पनी के साथ फसल के पहले ही दाम निश्चित हो जायेगा। और फसल हो जाने के बाद कम्पनी अपने निश्चित दाम पर आकर किसान से फसल खरीद लेगा। लेकिन इसमें एक समस्या है वह है कि कम्पनी और किसान के बीच में जो कॉन्टेक्ट होगा वह अधिकारियो के माध्यम से होगा। यदि यही किसानों के गांव के मुखिया के माध्यम से हो तो किसान और मजबूत रहे लेकिन इस में अधिकारी के माध्यम से होगा। इसमें एक समस्या और दिख रही है कि कम्पनी से जो दाम फसल बोने के पहले निश्चित हो जायेगा उसी दाम पर कम्पनी को देना है जो सरकार के तरफ से जारी समर्थन मूल्य से कम भी हो सकता है और अधिक भी। कम्पनी से जो दाम निश्चित है उससे सरकारी दाम कम है तो किसान को लाभ होगा यदि सरकारी दाम अधिक है तो किसान को कॉन्टेक्ट फार्मिंग में घाटा भी हो सकता है। वैसे वर्तमान सरकार इस अधिनियम को लाने में सफल हुई जबकि 2012 में डा मनमोहन की सरकार में ही कांटेक्ट फार्मिंग की योजना थी लेकिन जारी न हो सकी।
इस अधिनियम में तीसरी बात यह है कि सरकार कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य के तहत बिचौलिए को समाप्त करने की बात करती है। ठीक है कि बिचौलिए कभी कभार मनमानी करते है लेकिन छोटे किसानों के लिए बिचौलिए काफी सहायक साबित होते है। इसकी वजह यह है कि किसान जब अपने अनाज को लेकर मंडी में जाता है तो वहां भी काफी दिक्कत होती है और इस परेशानी से थककर किसान औने पोने दाम पर बेच देता है। सरकार जो न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करती है। उसमें मात्र 6% ही किसान बेच पाते है बाकी94% किसान खुले बाजार में बेचते है। इसकी वजह यह है कि या तो किसान के पास संशाधन नही है या व्यवसाय मे खोट है। जो किसानों को सही लाभ नही दिला पा रही है।
इस अधिनियम को लेकर किसानों में आशंका है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त करना चाहती है जबकि सरकार ने मंडी और एमएसपी को न समाप्त करने की बात कह रही है। सरकार का तर्क है कि किसानों को दोनो विकल्प खुला है कि वे चाहे तो मंडी में बेचे चाहे तो आनलाइन खुले बाजार में। लेकिन यहां सवाल पैदा होता है कि शांता समिति की एक रिपोर्ट में एमएसपी को समाप्त करने की बात कही गई है और एक भाजपा के वरिष्ठ नेता ने भी एमएसपी से सरकार पर एक हजार करोड का अधिभार पडने की बात मानी है। क्योकि सरकार जब गेहूं बीस रूपये में खरीदती है और 2013 में खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सभी को दो रूपये किलो गेहूं देती है तो घाटा तो होता ही है। लेकिन सरकार को एमएसपी के अलावा अन्य फिजूल अधिभार को समाप्त करना चाहिए। न कि केवल किसानों से जुडे न्यूनतम समर्थन मूल्य को ही निशाना बनाना है। हालांकि सरकार ने स्पष्ट रूप से मंडी और एमएसपी को समाप्त करने की बात को नकार दिया है। सत्ता पक्ष इस अध्यादेश को किसान हितकारी बता रहे हैं। जबकि विपक्षी दल के नेता व कुछ किसान संगठन इसका खुल कर विरोध कर रहे हैं। पंजाब सरकार जो भाजपा की सहयोगी पार्टी है। उसने भी खुल कर विरोध किया है। हद तो तब हो गई कि जब पंजाब की एक मंत्री ने इस अध्यादेश को किसान विरोधी बताते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। जबकि जून में जब इसे लेकर अध्यादेश लाया गया तब मंत्री भी मौजूद थी और उस समय विरोध नही की और न ही इस्तीफा दिया। लेकिन किसानों के उग्र आंदोलन को देखते हुए राजनीतिक फायदे के लिए मंत्री ने इस्तीफा दे दिया। सहयोगी दल की एक मंत्री के इस्तीफा देने के बाद बात बिगड़ती जानकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद मीडिया के सामने आए और अध्यादेश को किसान हितैषी बताया। उन्होंने कहा कि कृषि अध्यादेश 2020 को लेकर विपक्ष द्वारा भ्रम फैलाया जा रहा है। इस अध्यादेश में ऐसा कहीं नही लिखा है कि सरकार उपज का न्यूनतम मूल्य निर्धारित नही करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि सरकार सिर्फ किसान की उपज का न्यूनतम मूल्य ही निर्धारित नही करेगी, बल्कि उसकी खरीदी भी करेगी। लेकिन बिचौलियों को समाप्त करेगी। इनकी वजह से ही किसानों का शोषण हो रहा है। इनके समर्थक ही चिल्ला रहे हैं। क्योंकि इस अध्यादेश के खिलाफ वही लोग हैं, जो इनके हितैषी हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि इस किसान मंडियों को समाप्त नही किया जा रहा है। किसान मंडियां यथावत रहेगी । किसान इन मंडियों में अपनी उपज बेच सकेगा। इस अध्यादेश मे किसान को यह भी आजादी दी गई है कि अगर वह अपनी उपज मंडी में न बेच कर बाहर भी बेचना चाहे तो बेच सकता है।
अब यहां जब सब कुछ इतना अच्छा है, तो फिर उसका विरोध क्यों हो रहा है? विरोध के पीछे किसानों का हित कम जबकि राजनीति अधिक प्रभावी है। क्योंकि जो लोग आज इस नये कृषि अधिनियम का विरोध कर रहे है। उनको केवल इस अधिनियम में केवल नकारात्मक चीजे ही दिख रही है। सकारात्मक लाभ जानबूझकर छिपा रहे है। जिससे राजनीतिक रोटी सेंकने में आनंद आये। एक बात तो सर्वविदित है कि देश की कोई भी राजनीतिक दल या नेता सच में देश के किसानो का हित नही चाहती है। दल और नेता केवल अपने स्वार्थ के लिए एयर कंडिशन रूम में बैठकर राजनीति करते है। और किसानो और किसान संगठन को केवल आन्दोलन या विरोध करने के लिए प्रेरित करते है। और यह हमेशा से होता आया है। और यही बात इस बार भी देखने को मिल रही है।
देश के किसानो की वजह से ही सकल घरेलू उत्पाद काफी मजबूती के साथ आगे रहता है लेकिन सरकारें किसानो को केवल लॉलीपॉप देकर मूर्ख बनाती है। और हमेशा ही आगे बनाती रहेंगी। इसकी वजह है देश के नेताओ का दोगलापन। क्योकि यही नेता जब पक्ष में रहते है तो सरकार की सभी योजना को 'अमृत' बताते है लेकिन विपक्ष में हो जाने पर सारी योजनाएं केवल 'जहर' हो जाती है। और कुछ किसान संगठन बिना दिमाग लगाये इनके चाल में फंस जाते है। और विरोध प्रदर्शन और आन्दोलन करने लगते है। देश में किसानों की दुर्गति के लिए सभी सरकारें जिम्मेदार है। वह 1947 से लेकर अबतक की सरकारें है। जो केवल किसानों को मोहरा बनाकर अपना उल्लू सीधा करती है। मोदी सरकार किसानों की आय को दुगुना करने की बात करती है और इसी क्रम में शायद अधिनियम में बदलाव भी हो रहा है। लेकिन इसका सही लाभ कितने किसानों को हो रहा है शायद यह आंकडा सरकार के पास नही जाता है। आंकडा तो सरकार के पास जाता है वह भी फर्जी आंकडा। क्योकि विभागों के अधिकारी अपने हिसाब से सरकार को मनमानी आंकडा बनाकर भेज देते है और सरकार उसे सही मान लेती है। जो सच में सही जानकारी से काफी दूर है यह आंकडा। आय बढने की बात पर याद आया कि देश में वर्तमान सरकार किसानों की आय दुगुना करने के मूढ में है लेकिन बीते 75 वर्ष में किसानों की आय दो गुना नही बल्कि बीस गुना से अधिक बढी है। तो क्या यह मान लिया जाये कि सरकार अब किसानों की वर्तमान आय से दुगुना करेगी कि आजादी के समय की तत्कालीन आय से दुगुना करना चाहती है? देश भर को अनाज उपलब्ध कराने वाला किसान आज 'गरीबी' और परेशानी से 'आत्महत्या' कर रहा है। जबकि देश के सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों को 'वेतन' के अलावा विभिन्न तरह का 'भत्ता' देकर किसान को गरीब और सरकारी कर्मचारी और अधिकारी को अमीर बनाने का खेल चल रहा है। विदित हो कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी का आय बीते 75 वर्ष में दो सौ गुना बढ गया है। जबकि बेचारा किसान केवल आत्महत्या करने के लिए जी रहा है। यह है भारत देश के नेताओ का असली चेहरा। जो देश के अन्नदाताओं को इतनी क्रूरता से मीठा जहर देकर मार रहे है।
आखिर देश के किसानों के साथ ऐसा क्यों कर रही है सरकारें? जो सरकारें सच में किसान की हितैषी है तो वे किसानों को निश्चित वेतन, विभिन्न तरह का भत्ता,फसल की सुरक्षा की गारंटी व बीमा तथा व्यापार में शत प्रतिशत का सहयोग देने का काम करें। देश का किसान भी कभी आत्महत्या नही करेगा। आन्दोलन नही करेगा। लेकिन ये राजनीतिक दल और नेता 'किसानों' का भला कभी नही चाहेंगे क्योकि जब किसान मजबूत हो जायेगा तो इनकी राजनीति बंद हो जायेगी। केवल सभी नेता और राजनीतिक दल घड़ियाली आंसू बहाकर किसानों के साथ होने का वादा करते है जबकि वादा कभी नही निभाते है।
सरकार को चाहिए कि इस अधिनियम को लेकर किसानों में जो समस्या आ रही है उस पर चर्चा हो और उस बात को कृषि विशेषज्ञ भी अपने हिसाब से और भी बेहतर सुधार करने का प्रयास करे। क्योकि इस समय देश कोरोना महामारी की चपेट में है। देश की आर्थिक स्थिति पूरा देश देख रहा है। और सरकार के लिए इस समय किसान ही संकट मोचन साबित हो रहे है। और इस संकट काल में किसान भी सरकार से नाराज हो जायेगे तो आगामी फसल पर इसका असर दिख सकता है और जब कृषि का सहयोग कम होगा तो भारत की दशा और भी खराब हो सकती है। अतः सरकार को कोई भी फैसला किसानो को अपने पक्ष में ही रखकर करना श्रेयस्कर है। क्योकि जब अन्नदाता खुश रहेगा तो भारत में कम से कम खाद्य वस्तुओं की दिक्कत तो नही होगी। इसलिए सरकार को हर फैसला में किसानों के हित को प्राथमिकता देना जरूरी है।
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