जीवन में धर्म एवं संस्कृत की आवश्यकता क्यों ? : प्रकृति पंचमहाभूतों का संतुलित स्वरूप है। यह पंचमहाभूत आपस में एक दूसरे के सहभागी बनकर संतुलित और अनुशासन स्वरूप में प्रकृति में सृजन और संरक्षण का कार्य अनवरत करते रहते हैं परंतु यदि इन पंच तत्वों में से किसी एक अथवा एक से अधिक तत्वों का असंतुलन होता है तो आंधी, तूफान, जलवृष्टि, अग्निवर्षा, भूकंप, बाढ़ आदि के रूप में विनाशकारी विभीषिकाओं का प्रत्यक्षीकरण होता है, इसी प्रकार जब तक मनुष्य का मन अनुशासित एवं संयमित होता है तब तक वह अपने जीवन के उद्देश्यों की ओर ही चलता रहता है पर जैसे ही मन लालच, घृणा और भौतिकीय सुखपूर्ण इच्छाओं को आसक्ति की ओर अग्रसर होता है तो वह मनुष्य को अपने जीवन के मूल उद्देश्यों से यहीं से भटक कर दूर होता चला जाता है।
यही नहीं ऐसी प्रवृत्तियों वाले मनुष्य समाज में अन्य लोगों के जीवन उद्देश्यों को भी प्रभावित करते हैं। इसीलिए आत्म अनुशासन हेतु हमारे पूर्वजों और ऋषि-मुनियों ने समाज में धर्म की स्थापना की। धर्म का संक्षिप्त तात्पर्य यह है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आत्मा में सत्य, नैतिक, जनकल्याण एवं सम्मानजनक बातों को अच्छे आचरण के रूप में धारण करना चाहिए तभी मनुष्य अपने जीवन उद्देश्यों के पथ पर आगे बढ़ सकता है।
धर्म से विमुखता विनाश का आमंत्रण : समाज में जब जब धर्म का लोप होगा अथवा अधर्म की वृद्धि होगी तो उस समय समाज में लालच घृणा एवं अभिमानी प्रवृत्ति बढ़ जाती है। ऐसे भी ईश्वर अथवा प्रकृति किसी न किसी रूप में अवतरित होकर ऐसे लोगों का विनाश करती है। इस विषय में पवित्र ग्रंथ गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी ने कहा है कि ‘यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।। इसका तात्पर्य यह है कि संसार में जब-जब धर्म का लोप अर्थात अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब धर्म की स्थापना के लिए मैं अपनी स्वयं की रचना करता हूं और सज्जन लोगों के कल्याण तथा और धार्मिक एवं दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए युगों-युगों से जन्म लेता आया हूं।
इसी प्रकार पवित्र ग्रंथ रामायण में भी धर्म के बारे में यह उल्लिखित है कि ‘जब-जब होईं धरम की हानी, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।। तब-तब धर प्रभु विभिन्न शरीरा। हरहिं दयानिधि सज्जन पीड़ा।।’ अर्थात जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म का पतन होगा और असुरों, अन्यायी और अभिमानियों की वृद्धि होगी तब तब भगवान अलग-अलग रूपों में पृथ्वी पर अवतरित होकर अन्याय और अभिमानियों का अंत कर साधु एवं सज्जन व्यक्तियों की पीड़ा का हरण करते हैं।
धर्म एवं संस्कृत का सामाजिक परिवेश : समाज में जब भी धर्म एवं संस्कृति का असंतुलन उत्पन्न होता है तो समाज में अनुशासनहीनता चरम पर पहुंचने लगती है और समाज अधर्मी कुरीतियों अर्थात आध्यात्मिक प्रदूषण को आत्मसात की ओर अग्रसर होता है। ऐसे में समाज में इच्छा, आसक्ति, क्रोध, घृणा, लालच एवं आलस्य चरम पर होता है। यदि हम 1950 के दशक की बात करें तो सामाजिक जीवन पूर्ण शिष्टता एवं अनुशासनपूर्ण था तथा अश्लीलता का वातावरण लगभग नगण्य था अर्थात समाज में शर्म-लिहाज एवं पूर्ण अनुशासन के साथ संयुक्त परिवार में अपने बड़े-बुजुर्ग और गुरु की बातों का अनुसरण करते हुए जीवन यापन की परम्परा थी जिसका अभाव वर्तमान समाज में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
निश्चित तौर पर विगत के दशकों में समाज की वर्तमान पीढ़ी ने बड़े-बड़े शोध किए हैं, मशीनें बनायी हैं, अविष्कार किए हैं जिससे जीवन यापन काफी सरल हुआ है जो कि इस पीढ़ी के लिए अत्यंत सराहनीय एवं गर्व की बात है, परंतु समाज ने इन अविष्कृत जीवनोपयोगी वस्तुओं को आवश्यकता की पूर्ति में कम, वरन अपनी बलवती इच्छाओं की पूर्ति में अधिक स्थान दिया।
जब मनुष्य के जीवन में इच्छाएं बलवती होती हैं तो मनुष्य येन-केन-प्रकारेण उन इक्षाओं की पूर्ति में लग जाता है। जिससे उसके अंदर अहंकार, लालच और घृणा भाव उत्पन्न होते हैं, जबकि इन प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम से हम सभी भिज्ञ हैं कि प्रगति एवं उद्देश्य पूर्ण जीवन यात्रा के लिए यह कितनी नुकसानदेय हैं।
उदाहरणार्थ- जीवन को सरल गतिमान तथा ज्ञान से परिपूर्ण बनाने के लिए अनेक इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, इंटरनेट तथा संवाद हेतु व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम एवं टेलीग्राम जैसे अत्याधुनिक उपकरणों/ तकनीकों का अविष्कार हुआ परंतु वर्तमान समय में चंद लालची, घृणित लोगों के द्वारा इन नवीन तकनीकों/माध्यमों से समाज में जिस प्रकार की अश्लील संस्कृति को परोसा जा रहा है। उससे संपूर्ण समाज खासकर वर्तमान पीढ़ी के लोग अत्याधिक प्रभावित हैं। जिसके परिणामों का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं। कहावत है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है अर्थात एक दुष्ट चरित्र का व्यक्ति पूरे घर एवं समाज को प्रदूषित कर देता है। कई ज्ञानवान संत महात्मा मिलकर भी किसी एक नकारात्मक व्यक्ति को सुधारने में पूर्णता सक्षम नहीं होते, जबकि किसी समूह के मध्य उपस्थित केवल एक नकारात्मक व्यक्ति ही सकारात्मक समूह को आसानी से प्रभावित करने में सक्षम होता है। इसके पीछे का विज्ञान यह है कि चूंकि नकारात्मक व्यक्ति के पास ग्राह्य करने की शक्ति शून्य है। इसलिए वह सकारात्मकता के नजदीक होते हुए भी कुछ भी सकारात्मक संस्कारों को ग्राह्य नहीं कर पाता और सकारात्मक व्यक्ति के पास ग्राह्य करने की अपार क्षमता है। इसलिए वह नकारात्मकता को भी तेजी से ग्राह्य कर लेता है। इसलिए सदैव अच्छे आचरण के व्यक्ति समूह एवं समाज की संगत करनी चाहिए।
अभी समय है कि हमारी सरकार अथवा समाज अपनी प्राथमिक शिक्षा एवं कर्म में धर्म एवं संस्कृति के विषय को प्राथमिकता दें तथा भौतिकीय प्रगति हेतु उपलब्ध संसाधनों के उपयोग में धर्म और संस्कृति रूपी नियमावली तथा तय करके उसको कठोरता से लागू करें और इस अधर्म एवं असंस्कारी प्रवृत्तिपूर्ण व्यक्ति, संगठन अथवा व्यवसायी को प्रतिबंधित करें अन्यथा समाज में तमोगुण प्रधान जीवन होने से प्राकृतिक वातावरण भी प्रदूषित होगा, जिससे बड़े स्तर पर जन हानि होगी जिसकी प्रत्यक्षता विगत कुछ वर्षों से हम सभी महसूस कर रहे हैं। इसलिए धर्म एवं संस्कृति को जीवन में आत्मसात करने तथा अपनी अगली पीढ़ी को आत्मसात करवाने का भरसक प्रयास उचित होगा ताकि बड़े होकर वह धर्म एवं संस्कृति से परिपूर्ण जीवन जी सके।
एस.वी. सिंह प्रहरी
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