स्ंसार के सृजनकर्ता के दोनों हाथों की मुट्ठियों में उमंग ही उमंग है, उसकी एक हाथ की मुट्ठी में भौतिक सुख की उमंगता तथा दूसरे हाथ की मुट्ठी में संत्सग की उमंगता है। वह किसी भी मनुष्य के साथ विभेद नहीं करता है अपितु प्रत्येक मनुष्य को दोनों मुट्ठियों में से किसी एक मुट्ठी का चयन करने का अवसर प्रदान करता है। दोनों ही अवसर मनुष्य के मन को संतृप्त करते है अर्थात् दोनों ही विकल्प सुख के पर्याय हैं परन्तु दोनों ही सुखों में एक मूल अंतर यह है कि -
भौतिक उमंग का चयन मनुष्य को बाहरी शारीरिक सुख-समृद्धि,
पूर्ण आसक्ति अर्थात् कभी भी पूर्ण न होने वाली इच्छाओं की संतृप्ति की ओर ले जाता है जिसके कर्मो के परिणामस्वरूप ऐसे प्रारब्धों का उदय होता है जिसकी पूर्ति हेतु मनुष्य को बार-बार जन्म लेना पड़ता है अर्थात ऐसे मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्यों से दूर होते चले जाते है।
संत्सग रूपी उमंग का चयन मनुष्य को अध्यात्म का ज्ञान देता है और मनुष्य को जीवन के संचालनकर्ता परमात्मा की ओर ले जाता है। इस आत्मबोध की प्राप्ति से होने वाली खुशी भौतिक उंमग की खुशी से कई गुना अधिक होती है जिसको आत्मसात करने से मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्यों के निकट अर्थात जन्म-मृत्यु चक्र से मुक्ति की ओर अग्रसर होता है।
भौतिकता की ओर मन का झुकाव अधिक होता है।
मानव जीवन जड़ एवं चेतन के मिलन का संगम है, जड़ का अर्थ है जो भौतिक जगत् में पंचमहाभूत तत्वों से निर्मित मनुष्य का शरीर है परन्तु इस शरीर का संचालन चेतन रूपी परमात्मा की शक्ति करती है। प्रकृति का नियम है कि जिस तत्व का जन्म जहाँ से होता है उसका झुकाव उसी ओर अधिक होता है। चूंकि मनुष्य शरीर का जन्म भौतिकीय तत्वों से हुआ है इसी कारण शरीर जो कि कर्म का साधन है उसकी ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां सदैव मनुष्यों को भौतिकता की ओर खींच कर ले जाने का प्रयास करती रहती हंै, वहीं चेतन रूपी संूक्ष्य तत्व जो कि शरीर के अंदर आत्मा के रूप में विद्यमान है वह मनुष्य को सदैव आत्मसत्संग अर्थात् आध्यात्म की ओर ले जाने का प्रयास करती है। चूँकि विचारों की उत्पत्ति के बिना कर्म का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं होता है इसलिए मनुष्य की इन्द्रियों के माध्यम से देखकर, सुनकर, सूंघकर, स्वाद लेकर और स्पर्श करके उसके मन में विभिन्न प्रकार के विचारों की उत्पत्ति होती है और इन इन्द्रिंयो की उत्पत्ति भौतिक प्रकृति से है, इस कारण मनुष्य के मन का झुकाव आत्मा के स्थान पर सदैव भौतिकता की चकाचैंध में अधिक होता है और वह भौतिक सुख को ही अपने जीवन को उद्ेश्य मान बैठता है जिसके परिणामस्वरूप वह अपने जीवन काल का अधिक से अधिक समय उस शरीर की आवश्यकताआंे में ही लगा देता है। जब व्यक्ति को जीवन में कभी कोई ऐसी ठेस लगती है जिसका उपाय उसे भौतिक जगत से प्रत्यक्ष होता नहीं दिखता तब वह व्यक्ति अपनी आत्मा रूपी परमात्मा की शक्ति की ओर अपने मन को दिशा देता है।
सत्संग का भावार्थ
संत्सग दो शब्दों सत्य $ संगति से मिलकर बना है जिसका सीधा अर्थ है कि सत्य का साथ देना। वस्तुतः इस विषय में यहाँ संत्सग का भावार्थ जीवन के पूर्ण सत्य से है। कहावत है कि परमात्मा की प्राप्ति उतनी कठिन नहीं है जितना कि पावन सत्संग की प्राप्ति, यह संभव है कि जीवन के विभिन्न पड़ावों पर कभी न कभी परमात्मा से हम सभी का मिलन हुआ हो अथवा ये कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि परमात्मा सदैव हम सभी के साथ ही रहता है परन्तु उसकी पहचान के अभाव में उससे मिलन के परमानंद का अनुभव करना संभव नहीं होता क्योंकि परमात्मा की महिमा एवं स्वरूप का ज्ञान सत्संग रूपी अध्यात्म से ही प्राप्त होना संभव होता है। सदैव ज्ञानी संत एवं महापुरूषों ने जप-तप और योग-साधना करके समाज को अध्यात्म का ज्ञान वेदों-पुराणों एवं धार्मिक पुस्तकों आदि विभिन्न माध्यमों से प्रदत्त किया है। भौतिकता का विकार हमारे मन पर हाबी न हो इसलिए अपने मन को भौतिकता के बजाय सत्संग की ओर ले जाकर अपने नेत्र, नाक, कान, जीभ एवं त्वचा रूपी सभी ज्ञानेन्द्रियों को सत्संगरूपी गंगा में डुबकी लगवाते रहना चाहिए। यदि जीवन में एक बार सत्संग का प्रवेश हो जाय, तो बाद में अन्य सभी सुख जीवन में अपने आप अवतरित होते रहते हैं और मनुष्य के भाग्य का परम् उदय होता है।
सत्संग की महिमा
सत्संग ही अध्यात्म की कुंजी है परन्तु अध्यात्म की गहन जानकारी के लिए अच्छे आचरण वाले ज्ञानी गुरू की शरण में जाना चाहिए तभी वास्तव में सत्संग की महिमा को समझा जा सकता है, इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद जी के जीवन को उदाहरणस्वरूप लें - स्वामी विवेकानंद जी बचपन से ही काफी बुद्धिमान एवं तर्क प्रधान थे इसलिए वह सदैव अपनी जिज्ञासाआंे को लेकर घूमते रहते थे, एक दिन उनकी भंेट स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी से हुई जिनसे भी स्वामी विवेकानंद जी ने यही प्रश्न किया कि ‘‘क्या आपने भगवान को देखा है?’’ इस पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने जवाब दिया ‘‘हाँ मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूँ जितना कि तुम्हें देख सकता हूँ हम दोनों के देखने में फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उनको तुमसे अधिक गहराई से महसूस कर सकता हूँ।’’ चूँकि स्वामी रामकृष्ण समाधि की अंतिम अवस्था को प्राप्त करने वाले एक सिद्ध पुरूष थे इसलिए उन्होेंने अपने योग एवं समाधि से स्वामी विवेकानंद को सूंक्ष्य तत्व के दर्शन कराये तथा अत्यंत बुद्धिमान और तर्क प्रधान बालक विवेकानंद जी को अपना शिष्य भी बनाया और उनकी प्रत्येक जिज्ञासाओं का उत्तर भी दिया, ऐसे महापुरूष का सत्संग पाकर स्वामी विवेकानंद जी की बुद्धि भक्ति में बदल गयी, परिणामतः स्वामी विवेकानंद जी को 25 वर्ष की युवावस्था में ही स्वामी की उपाधि भी मिली तत्पश्चात् उन्होने अध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में किया और काफी नाम कमाया।
सत्संग की महिमा को एक छोटी सी कहानी से समझा जाय, कि एक सेठ नित्य प्रतिदिन अपने गुरू के पास सत्संग के लिए जाते थे, उस सेठ के घर में एक तोता पला था जो पिजंडे में रहता था, एक दिन उस तोते ने सेठ से कहा कि आप प्रतिदिन ज्ञान प्राप्त करने सत्संग में जाते हैं, तो मेरे लिए भी एक बात अपने गुरू से पूछना कि मैं कब आजाद होउँगा? तो सेठ जी ने उसे जवाब दिया कि ठीक है, मैं आज ही अपने गुरू से पूछूंगा। उस दिन सेठ जी ने सत्संग की समाप्ति के पश्चात् अपने गुरू जी से पूछा कि हमारे घर में पले तोते ने आप महोदय से यह जानना चाहा है कि वह कब आजाद होगा? यह प्रश्न सुनकर गुरू जी बेहोश होकर गिर गये जिसे देखकर सेठ जी का मन बहुत विचलित हुआ और उन्होने सोचा कि चलो आज वापस घर चलते हैं, किसी और दिन इस प्रश्न को पूछूँगा। जब सेठ जी घर आये तो तोते ने उनसे पूछा कि क्या गुरू जी ने उसके प्रश्न का जवाब दिया, तो सेठ जी ने उसे बताया कि मैंने तुम्हारा प्रश्न गुरू जी से पूछा था परन्तुु तुम्हारा प्रश्न पूछते ही गुरू जी बेहोश होकर गिर पड़े। यह बात सुनते ही तोते ने भी पिजंड़े में बेहोश होेकर गिरने का नाटक किया जिसे देखकर सेठ जी ने समझा कि तोता वास्तव में बेहोश हो गया है इसलिए सेठ जी ने उसको जल देने के लिए जैसे ही पिंजड़ा खोला तो तोता उड़ गया। अगले दिन यह बात सेठ जी ने अपने सत्संगी गुरू को बताई तो गुरू ने कहा कि मैं प्र्रतिदिन तुम्हारे सामने बैठकर सत्संग करता हूँ परन्तु तुमने उतना ज्ञान नहीं प्राप्त किया जितना कि तोते ने बिना सत्संग में सम्मिलित हुए केवल एक प्रश्न के माध्यम से अपने उद्देश्य को प्राप्त कर लिया, इसलिए सत्संग की प्रक्रिया एवं उसके उद्देश्य को समझना अति आवश्यक होता है तभी उद्देश्य सार्थक होता है।
भौतिक उंमग एवं सत्संग में से सदैव सत्संग का विकल्प सर्वथा उचित है क्योंकि भौतिक उपलब्धि मनुष्य की शारीरिक एवं मन की तृष्णा की पूर्ति में सहायक होती है। मनुष्य अपने जीवन में जितनी अधिक भौतिक उपलब्धि प्राप्त करता है, उतनी अधिक उसे खुशी प्राप्त होती है और वह खुशी में नाचते-गाते पार्टी करके अपने को संतुष्ट करने का प्रयास करता है परन्तु वास्तविक रूप में भौतिक उपलब्धि सन्तुष्टि प्राप्त करने का विकल्प है ही नहीं क्योंकि इसका सीधा रिश्ता मनुष्य के मन की इच्छाओं से होता है और मन की इच्छायें कभी पूर्ण नहीं होती अपितु एक की पूर्ति के बाद पुनः दूसरी इच्छा का जन्म होता है। इसके अतिरिक्त यदि बात सत्संग से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों की करें तो वहाँ केवल एक ही इच्छा होती है जीवन के सत्यता अर्थात् परमात्मा से मिलन इसलिए सत्संग को प्राप्त करने वाला मनुष्य जीवन भर न केवल नाचता है अपितु वह दूसरों को भी नचाता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से यह कहना है कि भौतिकता अथवा भौतिक उपलब्धि कोई खराब विषय नही है अपितु उससे पहले जीवन के सृजन के सत्य का आत्मबोध होना आवश्यक है इसलिए सत्संग को ही प्राथमिकता दिया जाना श्रेष्ठ माना गया है।
एस.वी.सिंह ‘प्रहरी’
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