जब मैं घर से ऑफ़िस के लिए निकलता हूं तो, रास्ते में मोड़ पर एक बरगद का पेड़ पड़ता हैं, लगता है बरगद का पेड़ कहता हैं मुझसे कुछ, बरगद के पेड़ जैसे-जैसे पुराना होता हैं, ठीक वैसे-वैसे उसकी जड़ काफी मजबूत और छाँव की सीमा फैलती जाती हैं।

ये बरगद का पेड़ देखने पर मुझे अतीत का संयुक्त परिवार याद दिलाता हैं, वही संयुक्त परिवार जिसमे परिवार का सबसे बड़ा सदस्य एक बरगद की पेड़ की तरह होता है, जैसे-जैसे परिवार बढ़ता जाता हैं , उस बरगद रूपी परिवार के मुखिया की छाया भी परिजनों पर बढती जाती थी और अनुभव रूपी जड़ परिवार की आधार मज़बूती से बांधे रहता था ।

सच कहूं तो आज के दौर में कई एकल परिवार को देखता हूं तो मन व्यथित हो उठता हैं कि ना इस परिवार को अनुभव से परिपूर्ण बड़ों का छाँव मिल पता हैं ना ही समाज के कटने के कारण इन्हे कृष्णा जैसा कोई दोस्त, जो सारथि बन पथ के हर पग पर उचित कर्म का बोध कराये। माना आज के अर्थवादी युग में परिवार के सभी सदस्यों का स्व-आश्रित होना बहुत जरूरी हैं (मेरा खुद का मानना हैं होना भी चाहिए, क्योंकि स्थिति और  हालत कब और कैसे हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता) लेकिन क्या गाड़ी (परिवार रूपी गाड़ी) के दोनों पहियों (पति-पत्नी) इस अर्थरूपी दुनिया में दौड़ने के लिए गाड़ी की स्टेरिंग (परिवार के मुखिया) की जरुरत नहीं पड़ेगी ? पड़ेगी , ज़रूर पड़ेगी मैं अपने कई दोस्तों देखता हूं कि पति-पत्नी दोनों सुबह सुबह रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में घर से निकल लेते हैं और उनका नन्हा सा बालक को एक अनजान आया (काम वाली बाई) के पास रखता हैं, क्या वह आया (कुछ को छोड़ कर) वो संस्कार दे पायेगी जो दादा-दादी और नाना-नानी से मिलता था। मेरे अनुभव के आधार पर बिल्कुल नही। 

माना आज के मूल जरूरते और बच्चों के महंगे होते उच्च शिक्षा को पूरा करने के लिए पति-पत्नी दोनों का रोज़गार परक होना बहुत जरूरी हैं लेकिन इस भाग-दौड़ भरे जिंदगी में उस नन्हे बालक को दादा-दादी और नाना-नानी के प्यार से वंचित करना क्या उचित हैं ?, हम अपने साथ कभी ससुराल पक्ष तो, कभी मायका पक्ष के वरिष्ठजनो को अपने पास रख सकते है, जिससे वो हमारे संतान को उचित परिवेश और संस्कार दे सके, और उनका वृद्धा अवस्था भी उनके नाती -पोते के साथ आनंदमय तरीके से बीत सकें और परिवार के वरिष्ठजनों को के चहेरे पर मधुर मुस्कान भी बनी रहे। 

मेरा मानना हैं जैसे बरगद की जड़ ज़मीन के तरफ ही जाती हैं वैसे इंसान को भी अपने आने वाली पीढ़ियों को अपने पैतृक स्थान से जोड़ कर रखना चाहिए और उनका परिचय और मिलाप वहां के लोगो से कराते रहना चाहिए।

खुद के अनुभव से कह सकता हूं कि इस अर्थ रूपी युग में  जितना  हो सकें अपने सारथी रूपी मित्र कृष्ण और सगे- संबंधियों के लिए भी समय निकलना चाहिए, क्योंकि जरुरत और समय पर यही काम आते है।  मैं अपने मित्र रामभरत (काल्पनिक नाम ) को देख रहा हूं , मित्र रामभरत एक उच्च शिक्षा के बाद एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत हैं। और एक दिन रामभरत कि तबियत अचानक ख़राब हो जाती हैं और डॉक्टर उन्हें इलाज के लिए बड़े महानगर में जाने की लिए सलाह देते है।  रामभरत के पास पैसे की कोई कमी नहीं हैं, कमी हैं तो बस अपनों की रामभरत ने अपनी जिंदगी बस पैसे कमाने में बीता दिया ना कभी अपने मित्रों ,रिश्तेदारों से  मिलना उचित समझा ना ही कभी फ़ोन कर के हाल चाल लेना ज़रुरी समझा।

इसलिए बरगद रूपी पेड़ की तरह अपने अभिभावक के अनुभव का खुद फायदा उठाये उनके अनुभवों का संचार अपने बाल्य मेंभी संचारित होने दीजिए और किसी बहाने, चाहे कोई कार्यक्रम चाहे कोई त्यौहार हो अपने सगे - संबंधी को अपने होने का भी अहसास कराते रहिय। अपने आपको रामभरत मत बनने दीजिए, याद रखिये साल 2011 के एक रिपोर्ट के अनुसार देश में हर 4 मिनट में कोई एक नागरिक ख़ुदकुशी कर लेता है और ऐसा करने वाले तीन लोगों में से एक युवा होता है यानी देश में हर 12 मिनट में 30 वर्ष से कम आयु का एक युवा अपनी जान ले लेता है। ऐसा कहना है राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो का। 

परिवार और नाते - रिश्तों का महत्व समझिए, ये मत भूलिए कि कोरोना जैसे महामारी में बड़े - बड़े महानगरों बड़े-बड़े साहब को भी उनके छोटे के गाँव ने ही पनाह दिया ।

अंकुर सिंह

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