उपन्यास को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है। अपने उत्पत्ति काल से ही उपन्यासों ने जीवन को उसकी समग्रता में पकड़ने और व्यक्त करने की कोशिश की है। समकालीन दौर में जब नए-नए विमर्शों ने अपनी अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम के रूप में इस विधा को चुना तो स्वाभाविक रूप से उपन्यासों में रूप और अंतर्वस्तु के स्तर पर कई परिवर्तन हुए। वर्तमान समय में कुछ उपन्यास गांवों को विषय बनाकर आए हैं। उनमें विस्थापन से लेकर स्त्री प्रश्न तक कई मुद्दे हैं। ऐसा हीं एक उपन्यास है 'लखनऊवा कक्का' जिसे लिखा है अपने समय के बेहद प्रखर उपन्यासकार रवीन्द्र प्रभात ने।
रवींद्र प्रभात का ‘लखनऊवा कक्का' गंबई भाषा यानी भोजपुरी,अवधी और खड़ी बोली के भाषाई कॉकटेल में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास है, जो एक साधारण मनुष्य के जीवन में पैदा हुए संघर्षों की असाधारण कथा है। लखनऊवा कक्का एक ऐसा किरदार है, जिनके इर्दगिर्द अनगिनत कथाएं घूमती रहती है और साथ ही हर दिन बनती रहती हैं, हर दिन मिटती रहती हैं। लेखक ने इतने विस्तृत फलक पर, इतने विविध आयामों के साथ कथा को बुना है, मानो वह एक पूरे देशकाल को उसकी समग्रता में उकेर देने की मासूम-सी जिद ठाने बैठा है। लखनऊ के किसी तहसील में अमीन के पद पर काम करने के कारण उनके गाँव बढईपुरवा के लोग उन्हें लखनौआ कक्का के नाम से पुकारने लगे। गाँव से लखनऊ और लखनऊ से गाँव लौटते हुए कक्का के लिए यह जीवन यात्रा अपने घर-परिवार को बचाने की संघर्ष कथा से शुरू होकर जीवन को संजोने और संवारने की संकल्प कथा बन जाती है। दो पीढ़ियों के बीच फैली इस संघर्ष कथा में और भी कई प्रासंगिक कथाएं हैं। सरकार की उपेक्षा और गरीबी व विवशता भरी जिंदगी का संघर्ष, तत्कालीन जेलों में गलत ढंग से बंद कैदियों की कथा, पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता में मदहोश होता धनिक वर्ग और अकेला पड़ता बचपन, कर्ज के बोझ तले डूबकर अपना घर-बार-बैल खोते गांव के गरीब किसान और इन किसानों का अपना निजी दर्द– इन सबकी कथा इस उपन्यास को एक बृहद आयाम देती है।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि इतने विस्तृत फलक पर, इतने ‘पसार’ के साथ कथा को रचने के बावजूद रवीन्द्र प्रभात की लेखनी कहीं कथा को बिखरने नहीं देती, इसे जोड़े रखती है। उपन्यास चूंकि गंबई भाषा में है, कथाकार गंबई संस्कृति को उसकी पूरी जीवंतता और प्रामाणिकता के साथ बचाए रखने के लिए विशेष सावधान दिखाई देता है। लखनऊवा कक्का का तकिया कलाम ' जय सिया राम जय जय सिया राम' हर वाक्य को पूरा करते ही किरदार के द्वारा दुहराना इस उपन्यास की भाषाई लालित्य को चार चाँद लगा देता है।
सच तो यह है कि हर रचनाकार, अपनी परवरिश और अपने जीवन की परिस्थितियों से गढ़ा जाता है। उसमें कुछ भी असाधारण नहीं होता, क्योंकि साधारण भी कुछ नहीं होता। वह मात्र अपनी संवेदना के स्पर्शबोध से अभिव्यक्ति टटोलता फिरता है और उसे ही अपनी रचनाओं में उजागर करता है। रवींद्र प्रभात ने भी इस उपन्यास में कमोवेश वही किया है जो समकालीनता की मांग थी। यह उपन्यास सिद्ध करता है कि आंचलिक भाषा में केवल आँचलिकता की बात ही नहीं, बल्कि सारे विश्व की बात की जा सकती है। वैसे इस गाथा के मुख्य पात्र यानी लखनौआ कक्का भले हीं भोजपुरी क्षेत्र के हैं, लेकिन उनकी जीवन-कथा उन तमाम जगहों के जीवन से जुड़ी है जहाँ जा-जा कर वे बसे हैं, या जहाँ-जहाँ उनके तलवे घिसे हैं। और यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है।
रवीन्द्र प्रभात ने निश्चित रूप से अपने इस नए उपन्यास ‘लखनऊवा कक्का' में गंवई धरती को अपनी मुख्य कथा-भूमि के रूप में चुना है और सादगीपूर्ण रचना शैली से विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करने में सफलता पाई है। यह उपन्यास एक ओर जहाँ धार्मिक आस्था के नाम पर चलनेवाले धर्म-व्यापार की सचाइयों से रूबरू कराता है, वहीं दूसरी ओर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा जगत, स्त्रियों और अन्य पिछड़े तबकों की सामाजिक स्थिति, महानगरों में आत्मीय संबंधों का अभाव, परिवारों में बुजुर्गों की बढ़ती उपेक्षा और उनका एकाकीपन – ऐसी तमाम समस्याओं की तरफ लेखक की पैनी दृष्टि गई है। और इस प्रकार उपन्यास धार्मिक आस्था के रास्तों से चलकर कुछ जरूरी सामाजिक प्रश्नों तक पहुंचता है। लेखक ने प्रभावशाली ढंग से दिखाया है कि किस तरह हमारे समाज से खत्म हो रहा परस्पर सद्भाव, सहयोग और भाईचारे का संबंध आश्रमों की ओर लोगों को आकर्षित कर रहा है। सामाजिक विसंगतियों के मारे, हाशिए के लोग भेदभाव रहित समाज में समान अधिकार और सम्मानपूर्ण सह जीवन की तलाश में ऐसे आश्रमों तक पहुंच रहे हैं। उपन्यास में कई ऐसे अनाथ, गरीब, पिछड़ी जाति के लड़के-लड़कियों की कथा दर्ज है, जिनके जीवन को आश्रम ने एक नई दिशा दी है। यह स्थिति सोचने पर मजबूर करती है कि क्यों इन तबकों तक लोकतांत्रिक भारत की विकास योजनाएं नहीं पहुँच पाईं?
लेखक ने इस उपन्यास में बदलते गांव की तस्वीर रची है, जो असल में बेहद धीमी गति से बदलते कुछ दृश्यों के कोलाज से बनी है। यहाँ एक तरफ खेती और साथ ही खेतिहर समाज का बदलता हुआ प्रारूप है तो दूसरी तरफ बदलते जातिगत समीकरण हैं। उपन्यास में ग्रामीण परिवेश रचने के लिए लेखक ने जिस तरह की गंवई भाषा और बिंब-विधान की शैली को अपनाया है, वह अलग से ध्यान खींचती है। कथा का बेहद आकर्षक पक्ष है प्रकृति का किसी जीते-जागते पात्र की तरह हर जगह मौजूद होना। प्रकृति के अलग-अलग घटकों, ऋतुओं के सजीव वर्णन में लेखक का मन रमा है।
यह उपन्यास रेणु और श्रीलाल शुक्ल की याद दिलाता है, जिसमें राजनीति एक बहुत महत्वपूर्ण घटक के रूप में मौजूद है। उपन्यास का आरंभ ही राजनीतिक उद्देश्य से होता है। पूरे उपन्यास में राजनीतिक गहमा-गहमी चलती रहती है और अंत भी चुनावी चर्चा से होता है। भोजपुरी क्षेत्रों में प्रचलित लोकगीतों का उपन्यास में बखूबी इस्तेमाल किया गया है। हालांकि लेखक ने लोकगीतों का केवल अर्थ देकर काम चला लिया है, अगर उनका सीधे-सीधे प्रयोग किया जाता तो प्रभाव कुछ और होता।
पुस्तक का नाम: लखनऊवा कक्का
( आंचलिक उपन्यास)
लेखक का नाम: रवीन्द्र प्रभात
पृष्ठ संख्या: 96
मूल्य:, 150/-
प्रकाशक: अवध भारती प्रकाशन, नरौली, हैदरगढ़, बाराबंकी
समीक्षक: डॉ. राम बहादुर मिश्र
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