1 - 'रामावतार चरित' ( अठारह सौ सैंतालीस ई०),
2 - 'शंकर-रामायण' (अठारह सौ सत्तर ई. ),
3 - 'विष्णुप्रताप रामायण' (उन्नीस सौ चार से उन्नीस सौ चौदह),
4 - आनंद रामावतारवरित (अठारह सौ अट्ठासी ),
5 - रामायण-इ-शर्मा (उन्नीस सौ उन्नीस से उन्नीस सौ छब्बीस ),
6 - 'ताराचंद रामायण' (उन्नीस सौ छब्बीस से उन्नीस सौ सत्ताईस)
7 - अमर-रामायण' (उन्नीस सौ पचास)।
'रामावतर चरित' की कथा 'शिव-पार्वती' संवाद से प्रारंभ होती है। पूरी कथा आठ काण्डों-बालकाण्ड, आयोध्याकाण्ड, अरण्य काण्ड, किष्कििड सुन्दर काण्ड, युद्ध काण्ड उत्तर काण्ड तथा लवकुश काण्ड में विभाजित है। इन काण्डों के अन्तर्गत मुख्य कथा-बिन्दुओं को मसनवी-शैली के अनुरूप विभिन्न उपशीर्षकों में बांटा गया है। इन उपशीर्षकों की कुल संख्या छप्पन है। 'रामावतार चरित' में वर्णित अधिकांश प्रसंग अत्यन्त मार्मिक एवं हृदय-ग्राही बन पड़े हैं जिससे कवि की विलक्षण काव्यप्रतिभा का परिचय मिल जाता है। अयोध्यापति दशरथ की संतान-कामना, कामनापूर्ति के लिए व्रत आदि रखना तथा स्वप्न में भगवान विष्णु द्वारा वरदान देना आदि प्रसंग इस कश्मीरी रामायण में बहुत ही भावपूर्ण ढंग से लिखा गया है जैसे,' राजा दशरथ प्रभात-वेला मे प्रतिदिन सुबह जागकर स्नान करते थे तथा साधु-सन्तों और जोगियों के पास आशीर्वाद लेने जाते थे। पुत्र के सुख के अभाव में उनका मन हमेंशा दुःखी रहता था । एक रात स्वप्न में नारायण ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि मैं शीघ्र ही तुम्हारे घर में स्वयं जन्म लूँगा। बचनबद्धता के प्रश्न को लेकर दशरथ और कैकेयी के बीच जो परि-संवाद होता है, उसमें एक पिता के हृदय की व्याकुलता तथा वात्सल्यमयी भाव का सजीव वर्णन हुआ है।
देखा जाय तो सही मायने में रामावतार चरित की मुख्य कथा का आधार वाल्मीकि कृत रामायण ही है, परन्तु कथासूत्र को कवि ने अपनी प्रतिभा और दृष्टि के अनुरूप ढालने की कोशिश किया है। सीता के जन्म में कवि का कहना यह है कि सीता, दरअसल, रावण-मंदोदरी की पुत्री थी। मन्दोदरी एक अप्सरा थी जिसकी शादी रावण से हुई थी। उनके पुत्री हुई जिसे ज्योतिषियों ने रावण-कुल के लिए घातक बताया। फलस्वरूप मंदोदरी उसके जन्म लेते ही, अपने पति रावण को बताए विना, उसे सन्दूक में बंदकर के नदी में फेंक देती है। बाद में राजा जनक यज्ञ की तैयारी के दौरान नदी-किनारे उसे पाकर धन्य हो उठते हैं। तभी तो लंका में सीता को देख कर मंदोदरी वात्सल्य भाव से विभोर हो उठती है, और उस माँ के स्तनों से दूध की धारा द्रुत गति से फूट पड़ी है। रामावतार चरित में आई दूसरी कथा राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में कवि ने सीता की छोटी ननद को दोषी ठहराया है, जो पति-पत्नी के पावन प्रेम में यों फूट डालती है। एक दिन वह भाभी (सीता जी) से कहती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। सीता जी सहज भाव से कागज़ पर रावण का एक रेखाचित्रा बना देती है जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन प्रेम में फूट डाल देती है। वह रावण का चित्र राम को दिखा कर कहती है देखो भैया, यह क्या है, सीता इसे देख कर रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उसकी आँखों से आँसू बहे जा रहे है। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह कागज चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िन्दा न छोड़ेगी।
रामावतार चरित के युद्धकाण्ड प्रकरण में उपलब्ध एक अत्यन्त अद्भुत और विरल प्रसंग मक्केश्वर-लिंग से सम्बधित है जो प्रायः अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। यह प्रसंग बहुत ही दिलचस्प है जिसमें शिव रावण को याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर न रखना। लिंग को अपने हाथों में आदर पूर्वक थामकर रावण आकाश मार्ग द्वारा लंका की ओर प्रस्थान करता है। रास्ते में उन्हें लघु-शंका महसूस होती है तो वह आकाश से नीचे उतरता है तथा इस असमंजस में पड़ जाता है कि लिंग को वह कहां रखे ? तभी ब्राह्मण-वेश में नारद मुनि वहां पर प्रगट होते हैं जो रावण की दुविधा को भाप जाते हैं। रावण लिंग उनके हाथों में यह कहकर पकड़ा जाता है कि वह अभी निवृत्त होकर आ रहा है। रावण लघुशंका से निवृत्त हो ही नहीं पाता क्योंकि धारा रुकने का नाम ही नहीं लेती शायद यह प्रभु की लीला थी। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरान्त नारदजी लिंग को धरती पर रखकर चले जाते है। तब रावण के खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं है और इस प्रकार शिब द्वारा प्रदत्त लिंग की शक्ति का उपयोग करने से रावण बंचित हो जाता है। रामावतार चरित' में एक और दिलचस्प कथा-प्रसंग लंका-निर्माण के सम्बन्ध में है। पार्वती जी ने एक दिन अपने निवास-हेतु भवन निर्माण की इच्छा शिवजी के सम्मुख व्यक्त की। विश्वकर्मा द्वारा शिवजी की आज्ञा पर एक सुन्दर भवन बनाया गया। भवन के लिए स्थान के चयन के बारे में रामावतार चरित में एक रोचक प्रसंग मिलता है। गुरुड़ एक दिन क्षुधा पीड़ित होकर कश्यप के पास गये और कुछ खाने को मांगा। कश्यप ने उसे कहा जा, उस मदमस्त हाथी और ग्राह को खा डाल जो तीन सौ कोस ऊंचे और उससे भी दुगने लम्बे हैं। वे दोनों इस समय युद्ध कर रहे हैं। गरुड़ वायु के वेग की तरह उड़ा और उन पर टूट पड़ा तथा अपने दोनों पंजों में पकड़कर उन्हें आकाश-मार्ग की ओर ले गया। भूख मिटाने के लिए वह एक विशालकाय वृक्ष पर बैठ गया। भार से इस वृक्ष की एक डाल टूटकर जब गिरने को हुई तो गरुड़ ने उसे अपनी चोंच में उठाकर बीच समुद्र में फोक दिया, यह सोचकर कि यदि डाल (शाख) पृथ्वी पर गिर जाएगी तो पृथ्वी धंस कर पाताल में चली जाएगी। इस प्रकार जिस जगह पर यह शाख (कस्मीरी लंग) समुद्र में जा गिरी, वह जगह कालांतर में लंका कहलाई विश्वकर्मा ने अपने अद्भुत कौशल से पूरे त्रिभुवन में इसे अंगूठी में नग के समान बना दिया। गृहप्रवेश के समय कई अतिधि एकत्रा हुए। अपने पितामह पुलस्त्य के साथ रावण भी आया और लंका के वैभव ने उसे मोहित कर दिया। गृह प्रवेश की पूजा के उपरान्त जब शिव ने दक्षिणास्वरूप सबसे कुछ मांगने का अनुरोध किया तो रावण ने अवसर जानकर शिवजी से लंका ही मांग ली ( रावण ने कहा, "मैं लंका को मांगता हूं, यह मुझे धर्म के नाम पर मिल जानी चाहिए क्योंकि आप ईश्वर के रूप में सब से बड़े दाता हैं। तब शिव ने पार्टी और पानी छिड़कर लंका को रावण के हवाले कर दिया और तभी से भगवान शिव स्वयं पर्वत-पर्वत घूमने लगे।)। जटायु-प्रसंग भी रामावतार परित में अपनी मौलिक उद्भावना के साथ वर्जित हुआ है। जटायु के पंख प्रहार जब रावण के लिए असहनीय हो उठते हैं ती यह इससे छुटकारा पाने की पुक्ति पर विचार करता है।वह जटायु वध की युक्ति बताने के लिए सीता को विवश कर देता है।विवस होकर सीता को उसे जटायु वध का उपाय बताना पड़ता है
रामावतार चरित में कुछ ऐसे कथा-प्रसंग भी है जो तनिक भित्र रूप में संयोजित किए गये हैं। उदाहरण के तौर पर रावण-दरबार में अंगद के स्थान पर हनुमान के पैर को असुर पूरा जोर लगाने पर भी उठा नहीं पाते। एक अन्य स्थान पर रावण युद्धनीति का प्रयोग कर सुग्रीव को अलग से एक खत लिखता है और अपने पक्ष में करना चाहता है। वह तर्क यह देता है कि क्या मालूम किसी दिन उसकी गति भी उसके भाई (बाली) जैसी हो जाए इसलिए वह भाई के वध का प्रतिशोध लेने के लिए सुग्रीव को उकसाता है और लंका आने की दावत देता है जिसे सुग्रीव ठुकरा देते हैं। इसी प्रकार महिरावण (अहिरावण) का राम और लक्ष्मण को उठाकर पाताल लोक ले जाना और बाद में हनुमान द्वारा उसे युद्ध में परास्त कर दोनों की रक्षा करना प्रसंग भी रामावतार परित का एक रोचक प्रकरण है। रामावतार चरित के लवकुश काण्ड में भी कुछ ऐसे कथा-प्रसंग हैं जिनमें कवि प्रकाशराम की कतिपय मौलिक उद्भावनाओं का परिचय मिल जाता है। लवकुश द्वारा युद्ध में मारे गये राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मुकुटों को देखकर सीता का बिलाप करना, गीता जी के रुदन से द्रवित होकर वशिष्ठजी द्वारा अमृत वर्षा कराना और सेना सहित रामादि का पुनर्जीवित हो उठना वसिष्ठ के आग्रह पर सीता जी का अयोध्या जाना किन्तु हाँ राम द्वारा पुन अग्नि-परीक्षा की मांग करने पर उनका भूमि-प्रवेश करना आदि प्रसंग ऐसे हैं जिनमें बाल्मीकी रामायण की झलक देखने को मिलती है।
भगवान राम के जीवन पर आधारित कथाएँ लिखने की एक उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण कश्मीरी साहित्य परंपरा उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में प्रमुखता से सामने आई थी, कहा जय तो वैसे वहाँ लगभग सात रामायण उपलब्ध हैं, परन्तु रामावतारचरित, जो कि प्रकाशित है वह इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण है। शेष रामायणें या तो अप्रकाशित हैं अथवा उनके नाम मात्र बताये गये हैं। "विष्णु प्रताप रामायण" की एक हस्तलिखित पांडुलिपि (जो कलमी-नुस्खा है) है। हरि कृष्ण कौल उपलब्ध हैं जिन्होंने इसे उन्नीस सौ चार और उन्नीस सौ चौदह के बीच लिखा था। सत्तर के दशक के मध्य में कौल के नाटक "नातुक करिव बैंड" का पहली बार मंचन श्रीनगर के टैगोर हॉल में किया गया था। यह नाटक महाकाव्य रामायण पर आधारित है, और इसमें हनुमान सीता को निर्वासित करने के राम के फैसले के खिलाफ विद्रोह करते हैं। जैसे-जैसे नाटक सामने आता है, दर्शक पाते हैं कि राम सत्तारूढ़ राजनेताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सत्ता में बने रहने के एकमात्र उद्देश्य के लिए सीता, लोगों को धोखा देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और हनुमान नातुक करिव बैंड का रोना रोते हुए इस विश्वासघात का पर्दाफाश करते हैं । यह नाटक कश्मीरी साहित्य में एक मील का पत्थर है और इसका मंचन हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी किया गया है। राज्य के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने दिल्ली में एक प्रदर्शन देखा और बहुत प्रभावित हुए थे।उन्होंने अपने लेखन के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीते थे।
"रामावतारचरित" रामायण पर कश्मीर विश्वविद्यालय में उन्नीस सौ छिहत्तर में "विष्णु प्रताप रामायण का आलोचनात्मक अध्ययन" नामक एक अध्ययन परियोजना आयोजित की गई थी। कश्मीर की उपलब्ध और अनुपलब्ध रामायणों में से 'रामावतारचरित' का कश्मीरी साहित्य में विशेष स्थान है और वह अपनी लोकप्रियता के कारण सबसे आगे है। कहा जाता है कि एक दिन बहुत तेज बारिश हो रही थी. अँधेरा पहले ही छा चुका था तो इसके लेखक प्रकाशराम ने दूर से एक पालकी को अपनी ओर आते देखा। पालकी ढोने वालों ने प्रकाशराम को आवाज लगाई। प्रकाशराम निकट आये तो पालकी का पर्दा उठ गया। पालकी में साक्षात् देवी त्रिपुरसुंदरी स्वयं विराजमान थीं। देवी को देखकर प्रकाशराम बहुत प्रसन्न हुआ। उसकी आँखें चमक उठीं। कुछ क्षण बाद भगवती देवी अदृश्य हो गईं। देवी त्रिपुरसुंदरी के दिव्य दर्शन से धन्य होने के बाद, प्रकाशराम का शरीर और मन सर्वशक्तिमान की स्तुति में तल्लीन हो गया और उन्होंने सुंदर छंदों की रचना करना शुरू कर दिया। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं (1) रामावतारचरित, (2) लवकुश-चरित, (3) कृष्णावतार, (4) अकनन्दुन, और (5) शिवलग्न। इन पांच कृतियों में से केवल 'रामावतारचरित' और 'लवकुश-चरित' ही प्रकाशित हो पाये हैं। 'रामावतार-चरित' के अंत में 'लवकुश-चरित' मुद्रित है। कश्मीरी विद्वान डॉ. शशिशेखर तोशखानी के अनुसार, ''रामवाचारचरित' की सबसे बड़ी विशेषता स्थानीय परिवेश की प्रधानता है। प्रकाशराम युग के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक वातावरण का इस कार्य पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि स्थानीय तत्वों के समावेश से यह पूर्णतया कश्मीरीकृत हो गया। ये तत्व इस कृति में इतनी प्रचुरता से स्थापित हैं कि कई पात्रों के नाम भी कश्मीरी उच्चारण के अनुसार निर्मित किए गए हैं। जैसे यहां जटायु 'जटायन' है, कैकेयी 'किकी' है, इंद्रजीत 'इंद्रजेठ' है और संपाती 'संपत' है आदि। यहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा आदि में स्थानीय वातावरण इतना झलकता है कि यहाँ का जनजीवन में उन्नीसवीं सदी का कश्मीर मूर्त हो जाता है। राम के वनवास पर विलाप करते हुए, दशरथ को कश्मीर के परिचित सौंदर्य स्थलों और तीर्थों में राम की खोज करते हुए व्यथित दिखाया गया है। कवि ने लंका के अशोक उद्यान में कश्मीर की घाटी में अपने रंग बिखेरने वाले सभी फूलों को गिना और दर्शाया है। राम का विवाह भी कश्मीरी हिंदुओं में प्रचलित द्वार-पूजा, पुष्प-पूजा आदि रीति-रिवाजों के अनुसार होता है।” 'रामावतारचरित' कश्मीरी भाषा एवं साहित्य में उपलब्ध भगवान राम की कथा का एक बहुमूल्य ग्रंथ है, जिसमें कवि ने राम के जीवन वृत्त से संबंधित घटनाओं का अत्यंत भक्ति भाव से पाठ किया है। कवि की वर्णन-शैली और कल्पना शक्ति इतनी प्रभावशाली और स्थानीय रंग से सराबोर है कि ऐसा लगता है मानो 'रामावतार-चरित' की सारी घटनाएँ अयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न होकर कश्मीर संभाग में घटित हो रही हों। 'रामावतारचरित' का महत्वपूर्ण गुण है और यही इस रामायण को अत्यंत विशिष्ट एवं विशिष्ट बनाता है। निस्संदेह, 'कश्मीरियत' के अनूठे स्थानीय रंग से भरपूर इस खूबसूरत काव्य कृति का भारतीय साहित्य की समृद्ध रामायण परंपरा में एक विशेष स्थान है।15 जनवरी 2009 को हरिकृष्ण कौल का निधन हो गया।
-- डॉ सत्या सिंह
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