होली पर विशेष आलेख


हिन्दू धर्म के त्यौहारों में सबसे निराला, अनोखा और मनमोहक है होली का त्यौहार. यह एक ऐसा पर्व है जिसमें बच्चों, युवाओं से लेकर बुजुर्गों तक के ऊपर मस्ती का आलम छा जाता है. प्रकृति भी इस त्यौहार में मदमस्त हो जाया करती है. इसलिए इसे बसंत के आगमन पर बसंतोत्सव के रूप में मनाए जाने की सदियों से परंपरा रही है. ऋतुराज बसंत के आते ही सरसों के फूलों की पीली चूनरी पहन कर धरती नयी नवेली दुल्हन बन जाती है. इसके साथ ही रंगबिरंगे आवरण के साथ प्रकृति का सौंदर्य निखिल उठता है. खेतों में गेहूं की बालियां लहराने लगती है, जिसे देखकर किसानों का हृदय आनंद से झूम उठता है और लोग फागुन की मस्ती में आकर ढ़ोल, झांझ और मजीरा बजाते हुए नाचने गाने लगते हैं. चारों ओर आनंद ही आनंद छा जाता है. आनंद के इस सागर में डूबकर बुजुर्ग भी युवा नजर आने लगते हैं. इसी अलमस्ती का नाम है होली. भारत भूमि पर अनादि काल से इस त्यौहार को हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने की परंपरा रही है. इसके साथ जुड़ी हुई दंतकथाओं में सबसे विख्यात है दैत्य राज हिरण्यकशिपु, उनके पुत्र प्रहलाद तथा बहन होलिका से जुड़ी हुई कथा. यह कथा इतनी विख्यात है कि  हिन्दू धर्मावलम्बी बच्चा बच्चा भी इस कथा से परिचित होगा, इसमें कोई संदेह नहीं. अतः उस कथा को यहाँ उधृत करना मैं आवश्यक नहीं समझता. एक दूसरी कथा आदिदेव शिव जी, उनकी पत्नी पार्वती जी, प्रेम के देवता कामदेव तथा उनकी पत्नी रति से जुड़ी हुई है. इस कथा के अनुसार हिमवान पुत्री पार्वती जी के मन में आदि देव शिवजी को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई और वे भगवान् शिव को अपनी इच्छा बताने को व्याकुल हो गयी. परंतु विडम्बना यह थी कि भोले शंकर उस समय कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या में लीन थे. भोले शंकर की तपस्या को भंग करने शक्ति पार्वती जी में नहीं थी. उनकी विकलता पल प्रतिपल बढ़ती जा रही थी. उन्होंने अपने हृदय की इच्छा प्रेम के देवता कामदेव पर प्रकट करते हुए कहा -"हे प्रेमाग्नि में जलने वाले प्रेमियों को मिलाने वाले देव, मैं हिमवान पुत्री पार्वती, भोले शंकर शिवजी को पति रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ. परंतु वे अभी कैलाश पर्वत पर तपस्या में लीन हैं. किसी तरह से उनकी तपस्या भंग कीजिये ताकि उनके साथ मेरे विवाह का मार्ग प्रशस्त हो सके." 

"तथास्तु...." बिना कुछ सोचे समझे कामदेव ने पार्वती जी को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी. वे कामेच्छा को जगाने वाले अपने पुष्प वाण लेकर पहुँच गये वहाँ, जहाँ भोले शंकर कठिन तपस्या में लीन थे. कामदेव ने निशाना साधकर उनपर पुष्प वाण छोड़ दिया. पुष्प वाण सीधा भोले शंकर के कलेजे में जा चूभा. पलक झपकते ही वहाँ बसंत बहार छा गया. काम वासना को जागृत कर देनेवाला वयार बहने लगा और भगवान् शिव शंभु कामाग्नि में जलने लगे. उसी समय वहाँ आगयी पार्वती जी.  भगवान् शिवशंकर काम के वश में हो चुके थे, इसलिए शिवजी को पार्वती जी के साथ विवाह करना उनकी विवशता हो गयी. (जिसदिन भगवान् शंकर का पार्वती जी के साथ विवाह हुआ वह तिथि फाल्गुन माह का कृष्ण पक्ष चतुर्दशी था, इस दिन को शिवरात्रि के रूप में मनाए जाने की भी परंपरा रही है.) विवाहोपरांत पार्वती जी ने उन्हें सारा वृतांत बतला दिया. यह जानकर की कामदेव ने उनकी तपस्या भंग की थी, शिवजी को क्रोध आ गया और उनकी तीसरी आंख खुल गयी. उनकी उस आंख से निकलने वाली ज्वाला में जलकर कामदेव भस्म हो गये और उनकी पत्नी रति विधवा हो गयी. रति तड़प उठी और सीधा भगवान् शंभु के समक्ष उपस्थित होकर विनती करती हुई बोली -"हे देवों के देव महादेव. इस पूरे प्रकरण में मेरा क्या अपराध था, यही न कि मैं कामदेव की पत्नी हूँ. आप ही बताइये प्रभु इस युवावस्था में मैं क्या वैधव्य की त्रासदी झेल पाऊंगी." रति की बातें सुनकर महादेव सोच में पड़ गये. उन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि से जान लिया कि पार्वती अपने पिछले जन्म में उनकी पत्नी सती थी जो अपने पिता दक्ष प्रजापति से अपमानित होकर यज्ञ कुंड में कूद कर आत्मदाह कर ली थी. फिर उनका जन्म हिमवान की पुत्री पार्वती के रूप में हुआ और कामदेव ने उन दोनों का मिलन करवाया. इस तरह कामदेव ने तो पुण्य का काम किया था. शिवजी को अपनी भूल का एहसास हुआ. उन्होंने शीघ्र ही अपनी शक्ति से कामदेव को पुनर्जीवित कर दिया. जिस दिन कामदेव को नव जीवन मिला वह दिन फाल्गुन माह का पूर्णिमा था. कामदेव के जीवित हो जाने पर प्रेम पुजारियों ने उस मध्य रात्रि में होलिका दहन किया. प्रात: होते ही उस अग्नि में कामवासना और क्रोध की मलिनता जल कर राख हो गयी और प्रेम का उदय हुआ. लोग एक दूसरे से गले मिले और रंग अबीर डालकर खुशियाँ मनाने लगे. माना जाता है तब से ही होलिका दहन और होली मनाने की परंपरा की शुरुआत हो गयी.

इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेकों कहानियाँ होली से संबंधित प्रचलित है. उन कहानियों में बरसाने तथा नंदगाँव की होली काफी प्रचलित है, जिसमें श्रीकृष्ण राधा और उनकी सहेलियों की होली का बखान किया जाता है. आज भी नंदगाँव के छोरों और बरसाने की छोरियों के बीच होने वाली लट्ठमार तथा लड्डू होली काफी विख्यात है. माना जाता है कि ऐसी होली द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण उनकी प्रेयसी राधा तथा गोपियों के बीच हुआ करती थी.

-- रामबाबू नीरव 

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