भारत के मनीषी साहित्यकार
-रामबाबू नीरव
माना जाता है कि महाकवि कालिदास की दूसरी नाट्य कृति "विक्रमोर्वशीयम" है. कुछ विद्वानों का मत है कि इस नाटक के मुख्य नायक महाराज विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त द्वितीय) हैं. क्योंकि इस नाटक के नाम का प्रथम अक्षर "विक्रम" है. वैसे विक्रमोर्वशीयम का शाब्दिक अर्थ होता है - श्रवण के द्वारा जीती गयी वीरता. परंतु नाटक में चित्रित नायक का नाम पुरुरवा है, जोकि वैदिक काल में आर्यों का एक पराक्रमी राजा हुआ करता था. इस राजा की मित्रता देवराज इन्द्र से भी थी. नाटक में राजा पुरुरवा और स्वर्गलोक की अप्सरा उर्वशी के प्रेम विवाह की लोमहर्षक कहानी का चित्रण है. महाकवि कालिदास ने अपने तीनों नाटकों में प्राचीन तथा ऐतिहासिक घटनाओं को ही संवाद की शैली नाटक या यों कहें श्रव्य काव्य के रूप में चुना है. वैसे विक्रमोर्वशीयम नाटक की कथावस्तु नयी नहीं है. माना जाता है कि आज से 6000 वर्ष पूर्व के ऋग्वेद में भी राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी के प्रेमकथा का वर्णन मिलता है. इसके अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि नाट्यशास्त्र के लेखक एवं भरत नाट्यम तथा भरत नृत्यम् के आचार्य भरतमुनि ने प्रथम नाटक "लक्ष्मी स्वयंवर" का मंचन इन्द्रलोक में सभी देवताओं के समक्ष करवाया था. उस नाटक के निर्देशक भी वे स्वयं ही थे. नाटक की मुख्य नायिका देवलोक की सर्व सुन्दरी अप्सरा उर्वशी थी, जिसने विष्णु प्रिया देवी लक्ष्मी के किरदार को जीवंत किया था. वहीं भगवान विष्णु के किरदार को एक गंधर्व ने निभाया था. दर्शक के रूप में देवराज इन्द्र के अतिरिक्त उनके परमप्रिय मित्र प्रतिष्ठान राज्य के अधिपति महाराज पुरुरवा भी थे. लक्ष्मी का अभिनय कर रही अप्सरा के मुंह से एक संवाद अदायगी में अपने पति का नाम भगवान विष्णु के बदले पुरुरवा निकल जाता है. यह सुनकर भरत मुनि क्रोधित हो जाते हैं और उसे श्राप देते हुए कहते हैं कि जाओ तुम्हारा भूलोक पर पतन हो जाएगा. महाकवि कालिदास ने इसी कथानक को आधार मानकर "विक्रमोर्वशीयम्" नाटक की रचना की. इस कथा में अतिशयोक्ति कुछ अधिक लगती है. भरत मुनि कालिदास से पूर्व हुए हैं, यह तो तय है, परंतु वे वैदिक काल में हुए होंगे यह नहीं माना जा सकता. विद्वानों की माने तो भरतमुनि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी के बीच कभी हुए होंगे. बहरहाल नाटक "विक्रमोर्वशीयम्" "लक्ष्मी स्वयंवर" नाटक से प्रेरित है इसमें कोई संदेह नहीं. विक्रमोर्वशीयम् नाटक की संक्षिप्त कहानी देने से पूर्व देवलोक की अप्सराओं के चरित्र (कैरेक्टर) पर एक नजर डालना आवश्यक है. अप्सराएँ ऐसी नृत्यांगनाएं हुआ करती थी, जो देवताओं का मनोरंजन करने के साथ साथ उनकी काम पीपासा भी शान्त किया करती थी. सिर्फ इतना ही नहीं, उन अप्सराओं के स्वामी देवराज इन्द्र अपने स्वार्थ के लिए उनके नृत्य कौशल तथा अनुपम सौंदर्य का दुरूपयोग भी किया करते थे, यानि किसी तेजस्वी ऋषि की तपस्या भंग करवाने के लिए अप्सराओं को मृत्यु भूवन पर भेजा करते थे. इन अप्सराओं को स्वेच्छा से न तो प्रेम करने का अधिकार था और न ही विवाह करने का. हाँ देवराज की आज्ञा से ये अप्सराएँ किसी भी तपस्वी को अपनी मोहक अदाओं तथा अनुपम सौंदर्य के बल पर फंसाकर उनकी तपस्या भंग करने में पूर्णतः निपुण थी. देवताओं द्वारा इनके साथ ऐसा क्रूर व्यवहार किया जाता था कि यदि ये अप्सराएँ भावना के प्रवाह में बहकर किसी से प्रेम अथवा विवाह कर लेती थी, तब उसे स्वर्गलोक से एक निश्चित अवधी के लिए निष्कासित कर दिया जाता था. संयोग या दुर्योग से कोई अप्सरा यदि माँ बन जाती थी, तब उसे अपनी संतान से विलग कर उसे मातृ सुख से भी वंचित कर दिया जाता था. पुराणों में अप्सराओं के गर्भ से उत्पन्न अनेकों अवैध संतानों की कहानियाँ भरी पड़ी है. उन्हीं अप्सराओं में से एक थी उर्वशी. आइए अब जानते हैं विक्रमोर्वशीयम नाटक की संक्षिप्त कहानी.
एक दिन उर्वशी देवलोक की अन्य अप्सराओं, जिसमें उसकी प्रिय सहेली चित्रलेखा भी थी, के साथ अलकापुरी से धनेश कुबेर का मनोरंजन करके इन्द्रलोक लौट रही थी. रास्ते में सघन वन था. अचानक वहाँ केशी नामक दैत्य अपने अनुचरों के साथ वहाँ आ गया और उर्वशी तथा उसकी प्रिय सहेली चित्रलेखा का अपहरण कर अपने रथ में बिठा लिया और उसका रथ पवन वेग से दानव लोक की ओर दौड़ने लगा. इस घटना को देखकर देवलोक की अन्य अप्सराएँ भय से कॉंपने लगी और रक्षा हेतु लोगों को पुकारने लगी -"हे आर्यों, इस वन में जो कोई भी देवताओं का मित्र हो, और आकाश मार्ग से कहीं भी आने जाने की क्षमता रखता हो, वो आकर कृपया हमारी सहेली उर्वशी और चित्रलेखा को केशी दैत्य के चंगुल से मुक्त करें."
उसी समय उस सघन वन में प्रतिष्ठानपुरी के प्रतापी चन्द्रवंशी राजा पुरुरवा अपने सैनिकों तथा विदूषक मित्र माणवक के साथ आखेट के लिए आये हुए थे. अप्सराओं की करुण पुकार सुनकर वे अपने रथ को हाॅंकते हुए वहाँ पहुँचे. उर्वशी की सहेलियों ने उन्ही सारा वृतांत कह सुनाया. दैत्य केशी की इस धृष्टता को जानकर महाराज पुरुरवा की क्रोधाग्नि भड़क उठी और वे तीव्र गति से रथ को हॉंकते हुए अपने सैनिकों समेत उस दिशा की ओर प्रस्थान कर गये, जिधर केशी उर्वशी तथा चित्रलेखा को लेकर गया था. वे शीघ्र ही केशी के निकट पहुँच गये और अकेले ही केशी के साथ साथ उसके सैनिकों को मार गिराया. तबतक उर्वशी बेहोश हो चुकी थी. चित्रलेखा महाराज पुरुरवा को पहचान गयी. क्योंकि वे अक्सर इन्द्रलोक में आया करते थे. महाराज पुरुरवा ने, अप्सराओं के निकट पहुँच कर उर्वशी तथा चित्रलेखा को उन्हें सौंप दिया. जब चित्रलेखा की ऑंखें खुली तब उसने समझा कि उसके स्वामी इन्द्रदेव ने केशी दैत्य से उसकी रक्षा की है. परंतु जब चित्रलेखा ने उसे बताया कि हमलोगों की रक्षा इन्द्रदेव ने नहीं बल्कि महाराज पुरुरवा ने की है, तब वह पुरुरवा के ओर कृतज्ञता पूर्वक देखती हुई उनका आभार प्रकट करती है. उसी समय महाराज के चारण आकर उनका स्तुति गान करने लगते है. उर्वशी महाराज की ओर आसक्त हो जाती है. महाराज भी उसके प्रेम में पागल हो जाते हैं. तभी चित्रकेतु गंधर्व के नेतृत्व में गंधर्वों की सेना सभी अप्सराओं को स्वर्गलोक ले जाने के लिए वहाँ आ जाते हैं. उर्वशी पुरुरवा के प्रेम में इस तरह से आबद्ध हो जाती है कि उसकी वहाँ जाने की इच्छा नहीं होती है. लगभग यही स्थिति पुरुरवा की भी होती है. अन्तोगत्वा उर्वशी स्वर्गलोक चली जाती है. फिर दोनों प्रेमी-प्रेमिका विरह की अग्नि में जलने लगते. उन दोनों को मिलाने में उनके देवराज इन्द्र, विदूषक माणवक तथा उनकी पत्नी की अहम भूमिका होती है. फिर वे दोनों मिल जाते हैं. पति पत्नी के रूप में वे दोनों काफी दिनों तक साथ रहे और उन्हें कई संतानें भी हुई. संतानोत्पत्ति के बाद उर्वशी महाराज पुरुरवा को विरह वेदना में तड़पता छोड़कर वापस इन्द्रलोक चली जाती है.
महाकवि कालिदास की तीसरी नाट्य कृति "अभिज्ञान शकुंतलम" की कहानी भी लगभग ऐसी ही प्रेमकथा पर आधारित है. इसमें अमेनका एवं विश्वामित्र की पुत्री शकुंतला तथा आर्यावर्त के सूर्यवंशी राजा दुष्यंत के प्रेम प्रसंग पर आधारित है. यह प्रेम कथा काफी विख्यात है, इसलिए इसे लिखने की आवश्यकता नहीं.
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(अगले अंक में पढ़े महाकवि भास तथा उनकी विश्वविख्यात कृतियाँ.)
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