भारत के मनीषी साहित्यकार
- रामबाबू नीरव
"निर्धन चारुदत्त" महाकवि भास की अंतिम नाट्य कृति है. लेकिन आश्चर्य की बात है कि इस नाटक का कथानक छठी शताब्दी में हुए महाकवि शूद्रक की नाट्य कृति मृच्छकटिक से हूबहू मिलती है. सिर्फ कथानक ही नहीं बल्कि नाटक के पात्रों के साथ साथ उनका चरित्र (कैरेक्टर) तथा नाम भी एक ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि जहाँ चारुदत्त में सिर्फ चार अंक ही हैं, वहीं मृच्छकटिक में दस अंक हैं. महाकवि भास दूसरी शताब्दी में हुए थे और शूद्रक पांचवी या छठी शताब्दी में. इस तरह दोनों महाकवियों के समय में तीन से लेकर चार सौ वर्षों का अंतर है. इस लम्बे अंतराल में तो युग बदल जाता है, फिर तो साहित्य की भाषा शैली तथा सामाजिक संरचना में अन्तर आना स्वभाविक है, मगर आश्चर्य है कि दोनों नाटकों की भाषा और शैली में रत्ती भर भी अंतर नहीं है. यह विचारणीय विषय है कि शूद्रक जैसे विद्वान कवि ने अपने पूर्व के किसी मनीषी साहित्यकार की कृति को थोड़ा सा हेरफेर करके अपने नाम से क्यों प्रकाशित करवाया? संस्कृत भाषा मर्मज्ञ विद्वान टी. गणपति शास्त्री, जिन्होंने महाकवि भास की 12 कृतियों की खोज की, के अनुसार महाकवि भास की किसी भी पुस्तक में उनका नाम अंकित नहीं है. सिर्फ अनुमान के आधार पर ही उन्होंने उनकी सारी कृतियों को महाकवि भास का मान लिया. हो सकता है चार अंकों वाला "दरिद्र चारुदत्त" नाटक भी शूद्रक की ही रचना हो, फिर बाद में उन्होंने कथानक में विस्तार करके नये ढंग से दस अंकों वाला नाटक लिखा हो. जब प्रमाणिक रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि दरिद्र चारुदत्त तथा अन्य नाटकें महाकवि भास की ही रचना है, तब तो अनुमान कुछ भी लगाया जा सकता है. विद्वानों ने शूद्रक की तीन कृतियों का नाम उधृत किया है. प्रथम मृच्छकटिक, द्वितीय वासवदत्ता तथा तृतीय पद्ममृतिका. यहाँ फिर उलझन उपस्थित हो रही है. "स्वप्न वासवदत्ता" को भी भास की ही कृति कहा गया है. और विद्वानों ने वासवदत्ता को भी शूद्रक की ही कृति माना है. इस संबंध में भी वही अनुमान लगाया जा सकता है कि हो न हो वासवदत्ता भी शूद्रक की ही रचना हो और महाकवि शूद्रक ने महाकवि भास की नाट्य कृति "प्रतिज्ञा यौगन्धरायण" के बाद की कहानी को विस्तार रूप देकर इस रूपक की रचना की हो. अब चारुदत्त और मृच्छकटिक नाटकों की कहानी को जानने से पूर्व महाकवि शूद्रक के बारे में जानना आवश्यक है.
शूद्रक पांचवी से छठी शताब्दी के बीच उज्जैन अथवा विदिशा के राजा थे. ये राजा के साथ साथ संस्कृत के विद्वान तथा कवि भी थे. कुछ विद्वानों का मानना है कि वे अनुसूचित (शूद्र) जाति के थे. परंतु हमारे देश में राजा सिर्फ क्षत्रिय ही हो सकता है, इसलिए शूद्रक को भी क्षत्रिय ही घोषित कर दिया गया. यह भी विडम्बना है कि इतिहासकार और विद्वान उच्च वर्ण के लोग हुए हैं, अतः क्षत्रिय समाज से अलग जितने भी राजा अथवा विद्वान हुए हैं, उन्हें हासिये पर धकेल दिया गया. यानि शूद्र जाति के लोग न तो विद्वान हो सकते हैं और न ही राजा. महाभारत में पाण्डवों तथा कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य ने निषाद पुत्र एकलव्य के साथ गुरुदक्षिणा में उसका अंगुठा कटवा कर उस शुद्र माने जाने वाले धनुर्धर के साथ कितना निकृष्टतम अन्याय किया, यह सत्य किसी से छुपा हुआ नहीं है. एकलव्य के पिता हिरण्य धनु शृंगवेर राज्य के राजा थे और उन्होंने निषादों तथा भीलों के युवाओं को एकत्रित कर एक विशाल सेना का गठन किया था. महाभारत युद्ध में उन्होंने मगध सम्राट जरासंध के सेनापति का पद संभाला था. महाभारत के अनुसार राजा सुदास भी शूद्र जाति के ही थे, परंतु इन राजाओं के पराक्रम की कथाएँ कितने लोग जानते हैं? मगध का नंदवंश, मौर्यवंश, गुप्त राजवंश ये सभी वैश्य जाति से हुए हैं, परंतु इस सच्चाई को बड़ी चालाकी से छुपा दिया गया. इसी तरह भारत की एक लड़ाका जन जाति है भील. इस जाति का इतिहास आर्य और द्रविड़ सभ्यता के काल से पूर्व का है. इस जनजाति के अनेकों पराक्रमी राजा हो चुके हैं. इडर में एक भील राजा हुए थे, जिनका नाम था राजा मांडलिक. मुगल काल में भी भीलों के प्रतापी राजा मेवाड़ में हो चुके हैं, उनमें से एक भील राजा पूंजा ने मुगल बादशाह अकबर के विरूद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया था. इन शुद्र जाति के राजाओं को कितने लोग जानते हैं? कुछ स्वनामधन्य विद्वानों को तो शूद्रक के होने पर भी संदेह है. यानि उनके विचार से शूद्रक नाम का न तो कोई राजा था और न ही कवि. खैर अपने देश की परंपरा रही है कि यहाँ जितने विद्वान हुए हैं, उनसबों को ब्राह्मण कुल का घोषित किया गया और जितने भी गैर क्षत्रिय राजा हुए उन्हें भी क्षत्रिय शिरोमणि बताया गया. शूद्रक नाम के राजा हुए हैं, इसके प्रमाण साहित्य में ही नहीं बल्कि स्कंद पुराण में भी देखने को मिलता है. शूद्रक के काल तथा स्थान को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है. "कादम्बरी" नाटक के लेखक बाणभट्ट के अनुसार शूद्रक विदिशा के राजा थे. चूंकि बाणभट्ट छठी शताब्दी में हुए थे, अतः माना जा सकता है कि शूद्रक भी उनके ही समकालीन रहे होंगे. वहीं महाकवि सोमदेव रचित "कथासरित्सागर" की माने तो वे सोमवती के राजा थे. वहीं स्वयं राजा शूद्रक रचित मृच्छकटिक के अनुसार वे दक्षिण भारतीय थे. इस बात का जिक्र उन्होंने मृच्छकटिक में कई स्थानों पर किया है. परंतु हो सकता है, मृच्छकटिक में क्षेपक के रूप में कुछ बातों को जोड़ दिया गया हो. इसमें सबसे प्रमाणिक बाणभट्ट की कादम्बरी मे उल्लेखित तथ्य को ही माना जा सकता है. क्योंकि कादम्बरी में राजाशूद्रक के तीन जन्मों की कथा है और माना जाता है कि "कादम्बरी" ही संसार का प्रथम उपन्यास है, जो संस्कृत भाषा में लिखा गया. हिन्दी साहित्य के पुरोधा डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपनी पुस्तक "बाणभट्ट की आत्मकथा" में इस तथ्य की पुष्टि की है. बाणभट्ट कृत कादम्बरी को विश्व के सर्वश्रेष्ठ साहित्य में से एक माना जाता है. "कादम्बरी" इस विश्वविख्यात उपन्यास की नायिका का नाम है, जो इस उपन्यास के नायक "शूद्रक" की लगातार तीन जन्मों तक प्रेमिका रहती आयी है. हाँ हर जन्मों में शूद्रक का नाम अवश्य परवर्तित होता रहा है. अतः यह निर्विवाद सत्य है कि मृच्छकटिक के लेखक शूद्रक ही थे जिन्होंने अपनी इस कृति के द्वारा समाज के उन लोगों को भ्रष्ट राजा और लूंजपूंज हो चुकी शासन व्यवस्था के विरुद्ध आवाज बुलंद करने की हिम्मत दी जो सदियों से दबाये और कुचले गये थे.
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क्रमशः......!
(अगले अंक में पढ़ें चारुदत्त और मृच्छकटिक की कथा.)
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