भारत के मनीषी साहित्यकार 


-रामबाबू नीरव

महाकवि भास कृत नाटक दरिद्र चारुदत्त तथा राजा शूद्रक रचित मृच्छकटिक की कहानी बिलकुल हूबहू है, इसलिए मैं मृच्छकटिक को ही दोनों नाटकों का मूल मानते हुए उसकी कहानी यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ. मूल रूप से यह कहानी उज्जैन निवासी सार्थवाह (वैश्य) चारुदत्त, जो पूर्व में उज्जैन का एक सम्पन्न व्यापारी रहता है, मगर अपनी उदारता और दानशीलता के कारण दरिद्र विप्र में परिणत हो जाता है, तथा नगर की विख्यात रूपजीवा नर्तकी बसंतसेना के बीच उत्पन्न हुए निश्छल और पवित्र प्रेम पर आधारित है. नाटक का नायक जहाँ विप्र चारुदत्त है, वहीं नायिका बसंत सेना है. सह नायिका चारुदत्त की धर्मपत्नी धूता है, जो एक कुशल गृहणी के साथ साथ पतिव्रता और मृदुल स्वभाव की आदर्श नारी है. उसके अन्दर करुणा का सागर है साथ ही वह ममता की देवी है. धूता और चारुदत्त का एक अबोध पुत्र है जिसका नाम रोहित है. चारुदत्त भी उदात्त प्रवृत्ति का महादानी पुरुष है. वह रूपवान और गुणवान है. महादानी होने के कारण वह अपनी सारी सम्पत्ति दान करके निर्धन हो जाता है. इस अवस्था में पहुँच जाने पर भी उसकी पत्नी धूता को उससे कोई शिकायत नहीं है. निर्धन हो जाने के बाद भी चारुदत्त की उज्जैन में वही प्रतिष्ठा रहती है, जो सम्पन्नता के दिनों में थी.

बसंतसेना उज्जैन की एक विख्यात गणिका है और नृत्य कौशल में निष्णात है. नगरवधू होते हुए भी  उसका चरित्र किसी आदर्श नारी के चरित्र की तरह उज्ज्वल है. वह उदार, मनस्विनी, व्यवहार कुशल और अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी है. सुन्दर मुख जैसा ही उसका चित भी निर्मल है. महाकवि सह राजा शूद्रक ने एक गणिका के चरित्र को इतनी ऊॅंचाई पर पहुँचा कर यह सिद्ध कर दिया है कि गणिका भी इसी समाज की स्त्री है, जिसे समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है.

पाटलिपुत्र का एक श्रेष्ठी संवाहक उज्जैन नगर की ख्याति सुनकर वहाँ धनोपार्जन के लिए आता है, परंतु उसे सफलता नहीं मिलती है. काफी भटकने के पश्चात वह चारुदत्त की शरण में आता है. उदार चारुदत्त उसे अपना सेवक बना लेता है. इसी बीच संवाहक को जुए की बुरी लत लग जाती है और वह अपनी सारी जमापूंजी जुए में हार जाता है. सिर्फ इतना ही नहीं, वह काफी लोगों का कर्जदार भी हो जाता है. उसे किसी के द्वारा ज्ञात होता है कि नगर वधू बसंतसेना काफी दिलेर महिला है. विपत्ति के मारे हुए लोगों की उदारता पूर्वक सहायता किया करती है. श्रेष्ठी संवाहक बसंतसेना के महल पर आता है और बसंतसेना को अपना सारा वृतांत सुनाकर उससे मदद की याचना करता है. दयालु बसंतसेना उसे सोने का कंगन देकर उसे ऋणमुक्त होने को कहती है. कंगन बेचकर संवाहक ऋण से मुक्त हो जाता है. फिर उसके मन में विरक्ति उत्पन्न होती है और वह उज्जैन के बौद्ध विहार में जाकर बौद्ध भिक्षु बन जाता है.

 उज्जैन का राजा पालक बहुत ही दब्बू और दुष्ट स्वभाव का है. साथ ही वह विलासिता प्रिय है. हर समय अपनी रानियों के संग राग रंग में डूबा रहता है. शासन पर उसक ऐयाश और क्रूर साला शाकार अपना एकाधिकार जमा लेता है. एक भविष्य वक्ता राजा पालक को बताता है कि आर्यक नाम का एक यदुवंशी उसे सिंहासन से अपदस्थ करके उज्जैन का राजा बनेगा. राजा पालक अपने सैनिकों द्वारा आर्यक को ढूँढ़वाकर कारागार में डाल देता है. महाकवि भास तथा राजा शूद्रक के नाटक में तत्कालीन समाज मैं व्याप्त चातुर्य वर्ण व्यवस्था की झलक मिलती है. इस चातुर्य वर्ण में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शामिल हैं. इस नाटक में बसंतसेना तथा चारुदत्त की प्रेम कहानी के साथ साथ एक निरंकुश, अहंकारी तथा अकर्मण्य राजा के प्रति आम जनता के मन में उपजे विद्रोह को भी दर्शाया गया है. इस कारण यह नाटक एक कालजयी कृति के रूप में पुरे विश्व में छा जाता है.

नाटक की शुरुआत उज्जैन के अकर्मण्य राजा पालक के दुष्ट साला शाकार  के व्यभिचारी कर्म को दर्शाते हुए होता है. शाकार की लोलुप दृष्टि नगर विभूषणा बसंतसेना पर टिकी हुई है. वह हर हाल में बसंतसेना को प्राप्त करना चाहता. एक अंधेरी रात में वह बसंतसेना का पीछा करता है. भयभीत बसंतसेना अनजाने में दरिद्र हो चुके चारुदत्त के घर में शरण लेती है. चारुदत्त न सिर्फ व्यभिचारी शाकार से उसकी रक्षा करता है, बल्कि वह और उसकी पत्नी धूता उसे पूरा मान सम्मान के साथ तबतक अपने घर में रखती है जबतक कि दुष्ट शाकार उसका पीछा करना न छोड़ दे. जाते समय बसंतसेना चोरों से बचने के लिए अपने सभी स्वर्ण आभूषण चारुदत्त के पास धरोहर के रूप में छोड़ जाती है. 

बसंतसेना की एक दासी मदनिका शार्विलक नाम के एक ब्राह्मण युवक से प्रेम करती है. मदनिका के प्रेम में पागल वह युवक अपनी प्रेमिका को बसंतसेना के दासत्व से मुक्त कराने के लिए चारुदत्त के घर में घुसकर उसके संदूक में रखे बसंतसेना के सारे आभूषण चुरा लेता है. सुबह होने पर जब चारुदत्त तथा उसकी पत्नी धूता को पता चलता है कि बसंतसेना सेना की धरोहर को चोर चुराकर ले गया तब पति पत्नी के पांव तले से जमीन खिसक जाती है. उनकी समझ में नहीं आता है कि वे बसंतसेना को क्या जवाब देंगे.? पति को दुखी देखकर धूता लोक निंदा के भय से अपने गले से चन्द्रहार निकाल कर देती हुई कहती है "स्वामी यह मेरे सुहाग की निशानी ले जाईये और अपने माथे पर लगे कलंक से मुक्त हो जाईये." चारुदत्त अपनी पत्नी की इस उदारता को देख चकित रह जाता है और उसकी आँखों से दो बूंद ऑंसू टपक पड़ते हैं. बसंतसेना के आभूषणों के चोरी हो जाने से चारुदत्त इतना शर्मिंदा है कि बसंतसेना के सामने जाने की उसकी हिम्मत नहीं होती. वह अपने विदूषक मित्र मैत्रैय के द्वारा चन्द्रहार बसंतसेना के पास भेजता है. 

उधर शार्विलक चारुदत्त के घर से चुराये हुए आभूषण लेकर बसंतसेना के पास पहुंचता है. वहाँ सबसे पहले उसकी भेंट अपनी प्रेमिका मदनिका से होती है. वह मदनिका को बताता  है कि उसने ये आभूषण चारुदत्त के यहाँ से उसे दासत्व से मुक्त कराने हेतु चुराकर लाया है. इस सच्चाई को जानकर मदनिका को काफी दुख होता है. वह शार्विलक को धिक्कारती हुई कहती है कि वह बसंतसेना से जाकर कहे कि ये गहने चारुदत्त ने वापस किये हैं. इससे पहले चारुदत्त का मित्र विदूषक मैत्रैय बसंतसेना को चन्द्रहार देकर सारी सच्चाई बता चुका होता है. जब शार्विलक उसे उसके गहने लौटाते हुए कहता है कि ये गहने चारुदत्त ने भेजें हैं तब बसंतसेना चौंक पड़ती है. उसे अपनी दासी मदनिका और शार्विलक के प्रेम की जानकारी होती है और वह उन दोनों की शादी करवा देती है. ऐसा करते समय उसे प्रतीत होता है जैसे उसे उसका प्रेमी चारुदत्त मिल गया हो.

बसंतसेना मन ही मन निश्चय करती है कि वह चारुदत्त तथा उसकी पत्नी धूता की इमानदारी का उपहार देने उसके घर जाएगी. जब वह चारुदत्त के घर पहुँचती है तब मूसलाधार बारिश होने लगती है. मजबूरी में उसे चारुदत्त के घर पर रूक जाना पड़ता है. दूसरे दिन वह चारुदत्त, धूता तथा उन दोनों के पुत्र रोहित के साथ एक बागीचे में घूमने के लिए आती है. उस बाग में चारुदत्त अपने पुत्र को मिट्टी की गाड़ी खेलने के लिए देता है. लेकिन उसका पुत्र सोने की गाड़ी मांगने लगता है. बसंतसेना चुपके से उसकी मिट्टी की गाड़ी में स्वर्ण आभूषण रख देती है और वहाँ से चली जाती है. वह कुछ दूर ही जाती है कि शाकार के आदमी उसका अपहरण कर लेते हैं. शाकार उसी बाग में छुपा रहता है. उधर चारुदत्त अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ घर की ओर चला जाता है. रास्ते में उसे आर्यक मिलता है जिसे राजा पालक ने कारागार में डाल दिया था. आर्यक बताता है कि उसके पीछे दुराचारी राजा पालक के सैनिक लगे हुए हैं मुझे बचा लो. चारुदत्त उसकी रक्षा करता है.

उधर शाकार उसी बाग में बसंतसेना की इज्जत लूटने की कोशिश करता है परन्तु बसंतसेना उसकी इस कुचेष्टा को नाकाम कर देती है. पापी शाकार उसका गला घोंट कर मार डालता है और उसकी लाश को घास पात से ढंक कर राजमहल चला जाता है. शाकार के वहाँ से जाते ही  संयोग से वहाँ जुआरी से बौद्ध भिक्षु बना संवाहक  आ जाता है और उसकी नजर बसंतसेना की लाश पर पड़ती है. वह लाश का मुआयना करने लगता है. बसंतसेना की हल्की हल्की सांसें चल रही होती है. वह उसे उठाकर बौद्ध विहार में ले आता है और बौद्ध विहार के एक वैद्य से उसका उपचार करवाने लगता है.

उधर शाकार एक साजिश रचकर बसंतसेना की हत्या के अभियोग में चारुदत्त को बंदी बनाकर राजदरबार में उपस्थित करता है. निरपराध चारुदत्त को बंदी बनाये जाने की खबर सुनकर जनता आक्रोशित हो उठती है. और राजमहल की ओर कूच कर जाती है. संयोग से चारुदत्त के विदूषक मित्र मैत्रैय को उस बाग में मिट्टी का वह खिलौना मिलता है, जिसमें बसंतसेना के आभूषण रखा हुआ है. वह मिट्टी का खिलौना लेकर दरबार में पहुंचता है. दुर्भाग्य से वह खिलौना टूट जाता है और सारे गहने छितरा जाते हैं. शाकार चिल्लाने लगता है -"इन्हीं गहनों के लिए चारुदत्त ने बसंतसेना की हत्या कर दी है." चारुदत्त को फांसी की सजा सुनाई जाती है. तभी किसी चमत्कार की तरह वहाँ उग्र भीड़ के साथ बसंतसेना, बौद्ध भिक्षु  तथा उज्जैन का भावी राजा आर्यक आ जाता है. आक्रोशित भीड़ कायर राजा पालक को अपदस्थ करके आर्यक को सिहांसन पर बैठाकर नया इतिहास रचती है. चारुदत्त पर लगाए गये सभी आरोपों को खारिज करके दुष्ट शाकार को फांसी की सजा दी जाती है, परंतु चारुदत्त की विनती पर उसे फांसी की सजा से मुक्त कर दिया जाता है. उधर चारुदत्त की पतिव्रता पत्नी अपने पति को फांसी की सजा सुनाए जाने पर क्षुब्ध होकर जौहर करने लगती है, परंतु मैत्रैय तथा बौद्ध भिक्षु संवाहक के साथ चारुदत्त वहाँ आकर अपनी पत्नी को बचा लेता है. राजा आर्यक द्वारा भिक्षु संवाहक को बौद्ध विहार का प्रधान तथा बसंतसेना को नगर वधू के रूप में सम्मानित किया जाता है. इस तरह इस नाटक का सुखांत होता है.

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़ें मिथिला विभूति, मिथिला कोकिल महाकवि विद्यापति की कहानी.)

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