भारत के मनीषी साहित्यकार


-रामबाबू नीरव

माना जाता है कि  महाकवि कालिदास ने अपने पूरे जीवन काल में संस्कृत साहित्य  को लगभग चालीस कृतियाँ दी. परंतु इन कृतियों में से अधिकांश विलुप्त हैं. उनकी मात्र सात कृतियाँ ही उपलब्ध हैं, जिनमें से दो खंडकाव्य, दो महाकाव्य और तीन नाटक हैं. काव्य मीमांसा (लेखक : राजशेखर) के अनुसार काव्य के दो भेद हैं प्रथम-श्रव्य काव्य और द्वितीय-दृश्य काव्य. श्रव्य काव्य वह है जिसे सिर्फ सुना जाता और पढ़ा जाता है. और दृश्य काव्य वह है जिसे देखा तथा सुना भी जाता है. इस तरह नाट्य शास्त्र दृश्य काव्य ही है.

महाकवि कालिदास की निम्न लिखित काव्य कृतियाँ हैं - खंडकाव्य - मेघदूतम् तथा ऋतुसंहार, महाकाव्य - रघुवंशम् तथा कुमार संभवम् , नाटक - मालविकाग्निमित्रम्‌, अभिज्ञानशकुंतलम्  एवं विक्रमोर्वशीयम् है. माना जाता है कि उनकी प्रथम रचना नाट्य कृति मालविकाग्निमित्रम् ही है. उन दिनों काव्य विधा में ही नाटकों की भी रचना की जाती थी. इसलिए इसे नाट्य काव्य (दृश्य काव्य) भी कहा जाता था. इस दृष्टि से मालविकाग्निमित्रम् भी नाट्य काव्य ही है. दरअसल यह नाटक नाट्य- साहित्य के वैभवशाली अध्याय का प्रथम पृष्ठ है. इस नाटक में आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व के युग यानि शुंग राजवंश के काल की कला, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था आदि की झलक मिलती है. नाटक में कालिदास द्वारा स्वांग, चतुष्पदी छंद तथा गायन के साथ साथ अभिनय के भी संकेत दिये गये हैं, जो इंगित करते हैं कि उस युग में भी लोक नाट्य के तत्व मौजूद थे. अत्यंत ही मनोहारी नृत्य-अभिनय का चित्रण महाकवि की दक्षता का परिचायक है. यह चित्रण इतना रमणीय, प्रभावोत्पादक और सरस है कि तत्कालीन साहित्य में अप्रतिम माना जाता है. वैसे तो कालिदास जी का यह नाटक भी परंपरागत नाटकों की श्रेणी में ही आता है. (इनसे पूर्व के नाटककार बौद्ध अश्वघोष थे.) इस नाटक में भी सूत्रधार द्वारा मंगलाचरण के साथ मंचित किये जाने वाले नाटक तथा नाटककार का परिचय कराया जाता है. पूर्व के नाटकों की तरह इस नाटक में भी एक विदूषक (हास्य कलाकार) गौतम है, जो दर्शकों को हंसाने के साथ साथ नायक नायिका को मिलाने का अपना पुनीत कर्तव्य भी निभाता है. (इसी समय से ही नाटकों में विदूषक कीरदार की परंपरा की शुरुआत हुई, जो आजतक नाटकों से लेकर सिनेमा तक में प्रचलित है.) 

 यह नाटक मूल रूप से विदिशा के राजा अग्निमित्र तथा मालवा राज्य की अद्भुत सुन्दरी राजकुमारी मालविका, जो गुप्त रूप से विदिशा के राजमहल में राज नर्तकी के रूप में रह रही थी, के प्रेम प्रसंग पर आधारित है. मगर महाकवि कालिदास ने अपने इस नाटक के द्वारा भारत के दो प्राचीन राजवंशों के बीच की शत्रुता को भी प्रेम प्रसंग के बहाने दर्शाने का प्रयत्न किया है. इस नाटक की मूल कथा को समझने लिए हमें थोड़ा इतिहास को समझना होगा.  मगध साम्राज्य को सुदृढ़ करने में मौर्य राजवंश का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. मौर्य राजवंश के अंतिम राजा बृहद्रथ की हत्या उनके ही सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने करके मगध में शुंग राजवंश की स्थापना की. माना जाता है कि जहाँ मौर्यवंश बौद्ध था, वहीं शुंग राजवंश के संस्थापक पुष्यमित्र शुंग सनातनी (हिन्दू) थे.

इस नाटक की कथावस्तु ईसा पूर्व 170 की है. उस समय विदिशा का राजा मगध के शुंगवंशीय अंतिम राजा देवभूति का रिश्तेदार अग्निमित्र था. तथा मालवा राज्य (विदर्भ), का राजा यज्ञसेन था. यज्ञसेन असल में मौर्य राजवंश के अंतिम राजा बृहद्रथ का रिश्तेदार था, जिसने मौर्य राजवंश के पतन के बाद एक छोटे से राज्य मालवा (विदर्भ) की स्थापना की. मालवा राज्य को विदर्भ राज्य भी कहा जाता था. कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्रम् के अनुसार विदिशा नरेश अग्निमित्र विदर्भ नरेश यज्ञसेन पर अपनी अधीनता स्वीकार करने का दबाव बना रहे थे परंतु यज्ञसेन को उनकी अधीनता स्वीकार नहीं थी. यज्ञसेन के हठ को देखकर अग्निमित्र ने छल प्रपंच का सहारा लिया और यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेन, जोकि यज्ञसेन का चिर शत्रु था, को गुप्त रूप से राज्य का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में मिला लिया. जब माधवसेन अग्निमित्र से मिलने विदिशा जा रहा था, उसे सीमा पर ही यज्ञसेन की सेना ने बंदी बना लिया. इस संवाद को सुनकर विदिशा नरेश अग्निमित्र क्रोधित हो जाते हैं और अपने दूत द्वारा माधवसेन को छोड़ देने की आज्ञा देते हैं, परंतु यज्ञसेन उनकी आज्ञा को ठुकराते हुए, यह कहलवाते हैं - "राजा अग्निमित्र पहले शुंग राजवंश द्वारा बंदी बनाए गये मौर्य सेनापति और उनके साले को बंदी गृह से मुक्त करे तभी माधवसेन को मुक्त किया जाएगा." यज्ञसेन के इस प्रस्ताव को सुनकर अग्निमित्र आगबबूला हो जाते हैं और अपने सेनापति वीरसेन को विदर्भ पर आक्रमण करने की आज्ञा देते हैं. वीरसेन एक बड़ी सेना लेकर विदर्भ पर आक्रमण कर देते हैं. इस युद्ध में यज्ञसेन की करारी हार होती है. विवश होकर यज्ञसेन विदिशा नरेश अग्निमित्र की अधीनता स्वीकार कर लेते हैं. अग्निमित्र विदर्भ राज्य को दो भागों में विभाजित कर दोनों भाइयों में बांट देते हैं. इसके बाद भी माधव सेन को एक भय बना रहता है. इस भय के कारण वे अपनी बहन मालविका को छद्मवेश में विदिशा भेज देते हैं, जहाँ मालविका की मुलाकात विदिशा राज्य के एक मंत्री से होती है. वह मंत्री राजा अग्निमित्र की प्रथम पत्नी महारानी धारिणी का भाई है. मंत्री मालविका को छद्म वेष में महल में ले जाता है और उसे महारानी धारिणी की मुख्य दासी बना देता है. राजकुमारी मालविका अद्भुत सुन्दरी है, बल्कि यह कहा जाए कि वह त्रिपुर सुंदरी है तो शायद गलत न होगा. उसके अनुपम सौंदर्य को देखकर महारानी धारिणी को आशंका हो जाती है कि कहीं महाराज अग्निमित्र मालविका के सौंदर्य पर मुग्ध न हो जाएं. इसलिए वे मालविका को उनकी दृष्टि से छुपाकर रखने का प्रयास करती हैं. इसी बीच मालविका महारानी से विनती करती है कि वह नृत्य, गीत और संगीत सीखना चाहती है. महारानी धारिणी उसके आग्रह को स्वीकार कर लेती है और गुप्त रूप से विदिशा के संगीताचार्य गणदास से नृत्य, गीत और संगीत की शिक्षा दिलवाने लगती है. अग्निमित्र की दूसरी रानी इलावती महारानी धारिणी से इर्ष्या द्वेष का भाव रखती है और वह हर समय धारिणी को राजा अग्निमित्र की नजरों से गिराने का बहाना ढूंढने लगती है. 

एक दिन राजा अग्निमित्र अपने विदूषक मित्र गौतम के साथ विदर्भ (मालवा) के अपने मित्र राजा माधवसेन से मिलने जाते हैं. वहाँ राजमहल में एक सिद्धहस्त कलाकार द्वारा बनाये गये राजकुमारी मालविका के चित्र पर उनकी दृष्टि पड़ती है. मालविका के सौंदर्य को देखकर अग्निमित्र मोहित हो जाते हैं और अपने विदूषक मित्र गौतम को इस अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने‌ की आज्ञा देते हैं. 

विदिशा आकर राजा अग्निमित्र राजकुमारी मालविका के प्रेम में पागल हो जाते हैं. उधर राजकुमारी अपने गुरु गणदास से शिक्षा प्राप्त कर  नृत्य, गीत और संगीत में निष्णात हो जाती है. एकबार संगीताचार्य गणदास और उनके प्रतिद्वंद्वी संगीताचार्य हरदत्त के बीच शर्त लग जाती है कि हम दोनों की शिष्याओं में जो सर्वश्रेष्ठ होगी, उसे महाराज राज नर्तकी घोषित करेंगे. चूंकि गणदास की पहुॅंच महारानी धारिणी तक थी, इसलिए वह अपनी शिष्या मालविका और अपने प्रतिद्वंद्वी की शिष्या के बीच प्रतिस्पर्धा आयोजित करवाने में सफल हो जाता है. इस प्रतिस्पर्धा के मुख्य निर्णायक महाराज अग्निमित्र ही बनाए जाते हैं. प्रतिस्पर्धा में सर्वप्रथम राजकुमारी मालविका ही अपना मनमोहक नृत्य प्रस्तुत करती है. मालविका को नृत्यांगना के रूप में देखकर महाराज अग्निमित्र के साथ साथ विदूषक गौतम भी चौंक पड़ता है. महाराज प्रसन्नता के मारे इतने उतावले हो जाते हैं कि आगे की प्रतियोगिता को रोकवाकर मालविका को राज नर्तकी घोषित कर देते हैं. अब वे मालविका को पाने के लिए तड़पने लगते हैं. विदूषक गौतम गुप्त रूप से उनकी मुलाकात राजकुमारी मालविका से करवा देता है.  इस प्रथम मिलन में ही राजकुमारी मालविका भी उनपर अपना प्रेम प्रकट कर देती है. और यह भी बता देती है कि असल में वह विदर्भ के राजा माधवसेन की छोटी बहन है. 

अग्निमित्र और मालविका के मिलन में बाधक है महाराज अग्निमित्र की दोनों पत्नी धारिणी और इंदुमती. काफी विघ्नवाधाओं से लड़ने के पश्चात स्वयं महारानी धारिणी ही महाराज अग्निमित्र और राजकुमारी मालविका का विवाह करवा कर रानी इंदुमती के षडयंत्रों का पटाक्षेप कर देती हैं. यह नाटक सुखान्त यानि सकारात्मक है. वैसे महाकवि कालिदास के अन्य दोनों नाटक भी सुखान्त ही है.

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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढें महाकवि कालिदास के खंड काव्य "मेघदूतम्" की कथावस्तु, साथ ही महाराज चन्द्रगुप्त द्वितीय {विक्रमादित्य} के नवरत्नों में से एक चुने जाने की लोमहर्षक कथा.)

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