हमारे मनीषी साहित्यकार

-रामबाबू नीरव


अपने प्रथम नाट्य कृति "मालविकाग्निमित्रम्" से ही कालिदास पूरे भारत में महाकवि के रूप में विख्यात हो गये. उनकी ख्याति की गूँज मगध साम्राज्य के तत्कालीन सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के कानों में भी पड़ी. उन दिनों तक मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से उज्जैन स्थानांतरित हो चुकी थी. महाराज चन्द्रगुप्त अपने राज्य के विद्वानों, कलाकारों तथा साहित्यकारों का काफी सम्मान किया करते थे. वे ऐसी विभूतियों को अपने राज्य का रत्न मानकर उन्हें समोचित सम्मान देते हुए दरबार में श्रेष्ठ स्थान दिया करते थे. कालिदास से पूर्व उनके दरबार में विभिन्न विषयों के आठ महान विद्वान रत्न के रूप में उपस्थित थे. उनके नाम इस प्रकार हैं -

1. धन्वन्तरी (सुप्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य) 

2. क्षपणक (सुप्रसिद्ध जैन मुनि)  

3. शंकु (विदुषी एवं कवयित्री {कुछ विद्वान इन्हें पुरुष मानते हैं, परंतु अधिकांश स्त्री} इन्हें मंत्रद्रष्टा के रूप में भी जाना जाता है.) 

4. बेतालभट्ट (भूतप्रेत विधा के ज्ञाता. माना जाता है कि बैताल पच्चीसी तथा सिंहासन बत्तीसी की रचना इन्होंने ही की थी.) 

5. खडखर्पर (सुप्रसिद्ध कवि) 

6. वररुचि (कवि एवं नाटककार. कुछ विद्वानों का मत है कि वररुचि कालिदास के शिष्य थे, मगर अधिकांश विद्वान मानते हैं कि वररुचि कालिदास से श्रेष्ठ थे और उन्होंने ही कालिदास को चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के दरबार में नौवें रत्न के रूप में रखवाया था) 

7. अमर सिंह (संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान तथा अमरकोश के रचयिता. माना जाता है कि ये बौद्ध भिक्षु थे.) 

8. वराहमिहिर (सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य) 

9. कालिदास (महाकवि तथा नाटककार) 

   महाकवि कालिदास के नौवें रत्न के रूप में उज्जैन के राजदरबार में आ जाने से उज्जैन दरबार की प्रतिष्ठा के साथ साथ महाकवि कालिदास की प्रतिष्ठा भी बढ़ गयी. उन्हीं दिनों महाकवि ने अपनी दूसरी पुस्तक के रूप में विश्वप्रसिद्ध काव्य कृति "मेघदूतम्" की रचना की. 

    मेघदूतम् खंडकाव्य है. उनकी इस अनमोल कृति को "दूतकाव्य" भी कहा जाता है. वैसे तो मेघदूतम् को शृंगार रस के श्रेष्ठ काव्य रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ माना गया है, परंतु इसमें शृंगार रस के दूसरे पक्ष यानि विरह वेदना को उभारा गया है. इस दूतकाव्य अथवा विरह काव्य में अपने देश अलकापुरी से धनेश कुबेर द्वारा निष्कासित यक्ष किस तरह से अपनी प्रियतमा के वियोग में तड़प रहा है इसका चित्रण महाकवि ने अत्यंत ही मार्मिक ढ़ंग से किया है. मेघदूतम् का हिन्दी अनुवाद मिथिला विभूति बाबा नागार्जुन (मैथिली में बैद्यनाथ ठाकुर) ने "मेघदूत" के नाम से किया है. (द्रष्टव्य :  किशोरावस्था में ही 70 के दशक में पुपरी में हुए विराट अखिलभारतीय कवि सम्मेलन में मुझे आदरणीय बाबा नागार्जुन के साथ मंच साझा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था.) बाबा नागार्जुन ने अत्यंत ही सहज और सरल भाषा में मेघदूतम् का हिन्दी अनुवाद किया है. उन्होंने मेघदूतम् को संस्कृत भाषा का अनुपम वांग्मय बताया है. मेघदूतम् की कहानी जानने से पूर्व आइये जानते हैं धनेश कुबेर और यक्ष के बारे में.

     पौराणिक कथाओं के अनुसार कुबेर को देवताओं की सम्पत्ति का रक्षक माना गया है. कुबेर के पिता विश्वश्रवा ऋषि थे, तथा उनकी माता देववर्षिणी (इलबिड़ा) थी. विश्वश्रवा प्रकांड विद्वान थे तथा वे सभी कुलों (देव, मानव, दानव, राक्षस आदि) द्वारा पूजित थे. वहीं राक्षसों के अधिपति रावण भी मुनि विश्वश्रवा के ही पुत्र थे. परंतु उनकी माता राक्षस कुल के नायक सुमाली की पुत्री कैकसी थी. स्वर्ण नगरी लंका देवासुर संग्राम से पूर्व राक्षसों यानि रावण के नाना सुमाली की ही थी. जिस स्वर्ण भंडार के लिए देवासुर संग्राम हुआ था, उसे असुरों (राक्षसों) ने लंका में ही छुपा दिया था और उसका संरक्षक सुमाली को बना दिया. परंतु देवासुर संग्राम में असुरों (राक्षसों) की करारी हार हो गयी, फलस्वरूप स्वर्ण नगरी लंका पर देवताओं का अधिकार हो गया. देवताओं ने सर्वसम्मति से लंका का अधिपति कुबेर को घोषित कर दिया. इस तरह कुबेर राक्षसों द्वारा छीने गये स्वर्ण भंडार के स्वामी बन गये और उन्हें धनेश यानि धन के नरेश की उपाधि से विभूषित किया गया. साथ ही उन्हें दिक्पाल यानि लोकपाल भी घोषित कर दिया गया. उन दिनों लंका में यक्षों की संख्या अधिक थी. ये यक्ष प्राचीन काल से यहाँ रहते आ रहे थे. यक्षों की भी दो श्रेणियाँ थी. जो यक्ष देवों और मनुष्यों (आर्यों) के सम्पर्क में थे, उनकी संस्कृति अलग थी और जो राक्षसों के संपर्क में थे उनकी संस्कृति अलग यानि रक्ष संस्कृति थी. उधर रावण अपने दो भाई कुंभकर्ण और विभीषण और बहन सुर्पनखा के साथ अपने पिता विश्वश्रवा ऋषि के आश्रम में विद्याध्ययन के साथ साथ अस्त्र शस्त्र संचालन की शिक्षा लेने लगा. वह अपनी प्रतिभा से प्रकांड विद्वान के साथ साथ शक्तिशाली योद्धा बन गया. इस बीच वह हर समय अपने नाना एवं मामा के सम्पर्क में रहा. पूर्ण शक्ति प्राप्त करने के पश्चात उसने अपने दोनों भाइयों, बहन तथा माता कैकसी के साथ मातृ कुल को अपना लिया और नाना सुमाली के पास चला गया. उसके नाना सुमाली तथा मामा प्रहस्त ने बचपन से उसके मन में लंका के लोकपाल कुबेर यानि उसके सौतेले भाई के विरुद्ध जहर भर दिया था. रावण अपने नाना की सम्पत्ति तथा लंका को हस्तगत करने के लिए छटपटाने लगा. उसके पराक्रम को देखते हुए सभी राक्षसों तथा दानवों ने उसे अपना नायक मान लिया. वह लंका विजय हेतु  राक्षसों की शक्तिशाली सेना लेकर वहाँ पहुँच गया. धनेश कुबेर रावण की शक्ति से परिचित थे, उन्होंने सोचा रावण आखिर उनका छोटा भाई ही तो है, इससे विग्रह करने से क्या फायदा. उन्होंने चुपचाप लंका के साथ साथ स्वर्ण भंडार और अपना सुप्रसिद्ध पुष्पक विमान उसे सौंप दिया. कुबेर ने लंका में रह रहे प्रथम श्रेणी के यक्षों के साथ लंका का त्याग कर दिया और कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान कर गये. उनके इष्टदेव थे कैलाशपति स्वयंभू शंकर. उन्होंने उन्हें कैलाश पर्वत के पास ही अपनी नगरी बसाने की सलाह दी. कुबेर ने भगवान् विश्वकर्मा तथा अपने यक्षों के साथ मिलकर अपनी नयी नगरी बसायी जिसका नाम रखा अलकापुरी.  कुबेर की यह अलकापुरी इन्द्र के इन्द्रासन तथा रावण के लंका से भी अधिक सुन्दर थी. चूंकि यहाँ की प्रजा यक्ष थे इसलिए कुबेर यक्षराज के रूप में भी विख्यात हो गये.  एक दिन एक यक्ष की किसी धृष्टता से क्षुब्ध होकर यक्षराज कुबेर ने उसे अलकापुरी से निष्कासित कर दिया. वह यक्ष दक्षिण दिशा की ओर चला गया. और रामगिरि नामक पर्वत पर पर्णकुटीर बनाकर रहने लगा.


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क्रमशः......! 

(अगले अंक में पढ़े मेघदूत की पूरी कहानी.)

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