भक्तिकाल के साहित्यकार और संत


-रामबाबू नीरव

संभवतः महाकवि विद्यापति भक्तिकाल के प्रथम ऐसे कवि हुए हैं जिनकी प्रशंसा से अधिक आलोचना हुई है. अपने जीवन काल में उन्होंने निम्न ग्रंथों की रचना की - कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पदावली, भूपरिक्रमा, पुरुष परीक्षा, लिखनावली, गोरस विजय, मणिमंजरा नाटिका, संदेश रासक, तथा बीसलदेव आदि. इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने इष्ट देव शिवजी, माँ भगवती तथा श्रीकृष्ण स्तुति करते हुए अनगिनत भक्ति गीतों की भी रचना की. इन ग्रंथों में कीर्तिलता, कीर्तिपताका तथा पदावली ही अत्यधिक लोकप्रिय है. इसलिए इस आलेख में मैं इन्हीं तीनों पुस्तकों की चर्चा करूँगा. जहाँ कीर्तिलता तथा कीर्तिपताका अवहट्ठ भाषा में लिखी गयी है, जिसे मैथिली भाषा का अपभ्रंश रूप माना जाता है, वहीं पदावली तथा अन्य भक्ति परक काव्यों की रचना उन्होंने शुद्ध मैथिली भाषा में की है. विद्वानों के मतानुसार उनकी आरंभ की दोनों कीर्तियाॅं (कीर्तिपताका एवं कीर्तिलता) की भाषा उतनी परिपक्व नहीं है, जितनी की पदावली की है. कीर्तिपताका तथा कीर्तिलता में पद्य के साथ साथ गद्य का भी प्रयोग किया गया है. जहाँ कीर्तिलता में उन्होंने अपने आश्रयदाता  सुगौना स्टेट (मिथिला राज्य) के चौथे राजा कीर्ति सिंह देव का स्तुति गायन किया है, वहीं कीर्तिपताका में उनके शौर्य तथा यवन शासक पर उनकी विजय का यश गान किया है. डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनकी वीर रस से परिपूर्ण  "कीर्तिपताका" की तुलना भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई की अनुपम कृति "पृथ्वीराज रासो" से की है. विद्यापति तथा अन्य इतिहासकारों के अनुसार बंगाल के तत्कालीन यवन शासक गयासुद्दीन आजम शाह ने प्रथम बार 1307 ई० में, जब मिथिला के राजा कीर्ति सिंह देव थे, तब उनके राज्य पर आक्रमण किया था. इस आक्रमण का राजा कीर्ति सिंह ने मुंहतोड़ जवाब दिया और बहादुरी के साथ लड़ते हुए गयासुद्दीन आजम शाह के अभिमान को चकनाचूर कर दिया. यवनों के दांत खट्टे हो गये. और राजा कीर्तिसिंह देव विजयी हुए. उनके इसी शौर्यगाथा का चित्रण महाकवि विद्यापति ने अपनी कृति "कीर्तिपताका" में की है. जहाँ उनकी इस वीर रस से सराबोर काव्य कृति की सराहना हुई, वहीं शृंगार रस से ओतप्रोत श्रीकृष्ण की प्रेयसी राधा रानी को मुख्य नायिका के रूप में लिखी गयी उनकी महत्वपूर्ण कृति "पदावली" की जितनी प्रशंसा हुई, उससे अधिक आलोचना हुई. वैसे अधिकांश आलोचकों और विद्वानों ने "पदावली" को जयदेव रचित "गीतगोविन्द" के टक्कर का काव्य माना है. फर्क सिर्फ यह है कि गीतगोविन्द में इस महाकाव्य के अनुरूप भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति अधिक है. वैसे इस महाकाव्य की नायिका "राधा" महाकवि जयदेव की ही खोज है, फिर भी जयदेव अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण के प्रति अधिक श्रद्धावान दिखाई देते हैं. साथ ही राधा रानी के अनुपम सौंदर्य का चित्रण करते समय वे संयत और मर्यादित भाषा का प्रयोग करते हैं. परंतु महाकवि विद्यापति ने अपनी कृति में भगवान श्रीकृष्ण की अपेक्षा राधा को अधिक महत्व दिया है. माना जाता है कि अपने आश्रय दाता राजा शिवसिंह देव को प्रसन्न रखने तथा उनके मनोरंजन हेतु उन्होंने शृंगार रस की मर्यादाओं का उलंघन भी किया है. नायिका (राधारानी) के अनुपम सौंदर्य का चित्रण करते समय वे संयम खो देते हैं साथ ही मर्यादा का भी हनन करते हुए से प्रतीत होते हैं. यदि आज का कोई कवि इस तरह की अमर्यादित भाषा में नायिका के नख शिख की वजाय "पयोधरों" के सौंदर्य का उन्मुक्त भाव से चित्रण करे, तब ऐसे कवि की सिर्फ  आलोचक ही नहीं बल्कि आम पाठक भी धज्जियाँ उड़ा कर रख देंगे. पाठकों के अवलोनार्थ उनके अश्लील माने जाने वाले दो पदों को यहाँ अर्थ सहित उधृत कर रहा हूँ -


*प्रथम पद*

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"सुन-सुन सुन्दर कन्हाई। तोहि सौंपलि धनि  राई।।

कमलिनी कोमल कलेबर। 

तुहु  से  भूखल  मधुकर ।। 

सहज  करह  मधुपान  । 

भूलह जनि  पंचबान  ।। 

परबोधि पयोधर परसह। 

मधुकर जइसे सरोरुह  ।। 

गनइत   मोतिम   हारा। 

छलें  परसब  कुच भारा।।

न  बुझए  रति-रस  रंग। 

खन  अनुमति  खन  भंग।।

सरिस - कुसुम  सम  तनु। 

थोरि   सहब  फुल - धनु।।

विद्यापति   कवि   गाब  । 

दूतिक  मिनती तुअ  पाब।।

अर्थात :

"सुनो ओ सलोने कन्हाई. मैंने तुम्हें अपनी सहेली (राधा) सौंप दी है. राधा की देह मुलायम कमल है. और तुम प्यास से तड़पते हुए भ्रमर हो. हौले हौले मधुपान करना. देखना कामदेव कहीं तुम्हारा होश न गायब कर दे. कहीं उस बेचारी पर तुम टूट न पड़ो. समझा -बुझाकर, बातचीत में भूलाकर, उसके कुंचों पर हाथ फेरना. भ्रमर पचास फेरे लगाता है, देरतक गुनगुनाता है, तब कहीं कमलिनी राजी होती है और वह उसे छू पाता है.  कुंचों में यूं ही हाथ मत लगाना. हार के मोतियों को छूने के बहाने, स्तनों को भले ही छू लो, यों मत छूना. उसे अभी काम कलि का ज्ञान नहीं है. वह कब हां करेगी और कब ना करेगी यह समझना आसान न होगा. उसकी देह शिरिष के फूल की तरह कोमल है. कामदेव का तीर वह कैसे झेलेगी.? विद्यापति ने गाया -"दूती की बातें तुम तक पहुॅंचा दी गयी है."

      

*द्वितीय पद*

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"पहिले बदरि कुच पुन नवरंग । 

दिन-दिन बढ़ए पिड़ए अनंग।। 

से पुन भए गेल बीजक पीर। 

अब कुच बाढ़ल सिरिफल जोर।। 

माधव पेखल  रमनि संधान।

घाटहि भेटलि करइत असनान ।। 

तनसुक सुबसन हिरदय लाग। 

जे पए देखब तिन्हकर भाग।। 

उर हिलोलित चाॅंचर केस। 

चामर झाॅंपल कनक महेश।। 

भनइ विद्यापति सुनहु मुरारी। 

सुपुरुख बिलसय से बर नारि।। 

अर्थात :

कुच (स्तन) पहले बेर के समान थे, फिर नारंगी जैसे हुए. वे दिन दिन बढ़ने लगे. कामदेव अंग अंग को पीड़ा पहुॅंचाने लगा. स्तन बढ़ते बढ़ते अमरूद जैसे दिखाई देने लगे. उन्होंने आगे जोर मारा और बेर फल जैसे दिखाई देने लगे. कन्हाई रमण के लिए अवसर ढूँढ रहा था. उसकी सुन्दरी से भेंट हो गयी. वह घाट पर नहा रही थी. भींगा हुआ महीन वस्त्र बदन से चिपका हुआ था. ऐसी स्थिति में जो भी उस तरुणी को देखता उसके भाग्य जग जाते. लम्बे गिले काले बाल इधर उधर छाती के इर्द गिर्द लहरा रहे थे. सोने के दोनों शिवलिंगों (स्तनों) को चंवर ने ढ़क लिया था. विद्यापति कहते हैं -"सुनो कन्हैया, सुन्दर पुरुष ही ऐसी सुन्दरी के साथ रंगरेलियां मनाता है."

इन दोनों पदों में नायिका (राधा) के रूप लावण्य तथा यौवन का वर्णन जिस तरह से किया गया है उसे साहित्य के दृष्टिकोण से अमर्यादित ही माना जाएगा. फिर भी विद्यापति के प्रशंसकों ने शृंगार रस की चासनी में डूबे हुए इन पदों को अनुपम माना है. यहाँ उनके एक और पद को उधृत करने की मैं धृष्टता कर रहा हूँ जो है तो शृंगार रस का ही, परंतु इसमें जो शालिनता है वह विद्यापति की श्रेष्ठता को दर्शाता है. यह पद मिथिलांचल में इतना विख्यात है कि यहाँ की युवतियाँ प्रातः होते ही भैरवी स्तुति के साथ साथ इसे भी गुनगुनाने लगती है.

(शेष अगले अंक में) 

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क्रमशः.......! 

(अगले अंक में पढ़ें विद्यापति जी के भजन तथा समालोचकों के मंतव्य.)

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