भक्तिकाल के संत एवं कवि  


(प्रथम किश्त) 

- रामबाबू नीरव

तुलसीदास भक्तिकाल के एक मजबूत स्तंभ थे. उन्होंने भगवान श्रीराम तथा संकटमोचन श्री हनुमान को अपना इष्ट देव मानकर इन दोनों की भक्ति में काव्य और महाकाव्य की रचना की. ये सूरदास जी के समकालीन थे. यानि मुगल बादशाह अकबर और रहीम खानखाना के समय में ही इनका भी प्रादुर्भाव हुआ था.  साहित्यकारों ने मुगल काल को भी भक्तिकाल की ही श्रेणी में रखा है. इस काल के भक्त कवियों ने अपनी कृतियों के द्वारा हिन्दुओं को अपने आचार विचार पर दृढ़ रहने की प्रेरणा दी. उन कवियों की खास विशेषता यह थी कि उनकी कृतियों ने हिन्दू प्रजा के इहलोक और परलोक दोनों को सुधार दिया. अध्यात्मिक पक्ष को लेकर चलते हुए भी उस समय के कविगण सामाजिक जीवन और जगत से भी सम्बन्ध बनाये रखते थे. संगीतात्मकता उस काल के काव्य की कलात्मक विशेषता रही है. उस काल के कवियों का मानना था कि संगीत काव्य का प्राण है. जीवन शक्ति है. गीतिकाव्य के लिए संगीत परम आवश्यक है. काव्य को जन जन के हृदय में स्थापित करने के लिए कवियों ने संगीत का सहारा लिया और गीतीकाव्यों की रचना की. सुफी कवि अमीर खुसरो से आरंभ होकर महाकवि जयदेव और विद्यापति से होते हुए इस गीतीकाव्य की परंपरा आजतक कायम है. अकबर के काल में सूरदास, रहीम खानखाना से लेकर तुलसीदास तक ने उस परंपरा का निर्वाह किया. तुलसीदास अपने रामचरितमानस तथा हनुमान चालीसा को लेकर जितना विख्यात हुए उतनी ही उनकी आलोचना भी हुई. (इस पर हम आगे चर्चा करेंगे). आईए सर्वप्रथम जानते हैं उनके आरंभिक जीवन के बारे में. 

माना जाता है कि उनका बालपन काफी कष्टमय बिता. उनका लालन पालन उनके घर की एक दासी ने किया. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तथा डा० ग्रियर्सन के अनुसार तुलसीदास जी का जन्म उत्तर प्रदेश के परसपुर तहसील के राजापुर नामक ग्राम में 11 अगस्त 1511 ई० को हुआ था. उनकी माता का नाम हुलसी देवी तथा पिता का नाम आत्माराम दूबे था. उनके पिता जी एक खाते-  पीते ब्राह्मण थे. समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी. परंतु वे आचार विचार से संकीर्ण मानसिकता के थे. एक अविश्वसनीय भविष्य वाणी के कारण उन्होंने अपने नवजात पुत्र का परित्याग कर दिया था. कहा जाता है कि तुलसीदास अपनी माँ के उदर में बारह महीने तक रहे थे. यानि उनका जन्म 12 महीने के बाद हुआ था और जन्म के समय उनके पूरे 32 दांत मुॅंह में मौजूद थे. उनके मुँह से क्रंदन के बदले "राम राम" की ध्वनि निकली थी, इसलिए उनका नाम रामबोला पड़ा. कहा जाता है कि उनके जन्म के चार दिन बाद ही उनकी माँ का देहांत हो गया. इससे उनके पिता काफी असहज हो गये. हिन्दू परंपराओं के अनुसार उनका जन्म अभुक्तामूल नक्षत्र में हुआ था. ज्योतिषियों ने उनके पिता आत्माराम दूबे को बताया कि इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले बच्चे अक्सर अपने माता-पिता के जीवन में खतरा पैदा किया करते हैं. इसका एक प्रमाण तो उनकी माता जी की मृत्यु के रूप में मिल ही चुका था. इसलिए ज्योतिषियों की इस भविष्यवाणी से आत्माराम दूबे डर गये और उन्होंने  अपने पुत्र का परित्याग कर दिया और स्वयं भौतिक जीवन से वैराग ले लिया. तुलसी दास जी ने अपने जीवन की उपरोक्त मार्मिक घटना का जिक्र अपनी कृतियों "कवितावली" तथा "विनय पत्रिका" में की है. उन्होंने यह भी कहा है कि उनके जन्म की चौथी रात को ही उनकी दासी चुनिया उन्हें अपने गाँव हरिपुर ले आयी और अपने पुत्र की भाॅंति उनका लालन पालन करने लगी. जब वे चार वर्ष के हुए तब उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी. लगभग साढ़े पाॅंच वर्षों तक चुनिया ने उनकी परवरिश की, फिर वह भी परलोक सिधार गयी. अब बालक रामबोला (तुलसी दास) अनाथ हो चुके थे. वे दर दर भटकते हुए, भिक्षाटन करके अपनी जीन्दगी वसर करने लगे. 

विनय पत्रिका के अनुसार बालक रामबोला बचपन से ही मेधावी थे. धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन करने की उनके मन में तीव्र ललक थी. एकबार वे घूमते घूमते अपनी जन्म भूमि राजापुर से चार कि०मी० दूर सरयू घाघरा नदी के संगम पर सूकरखेत नामक स्थान पर स्थित भगवान बाराह के मंदिर पर पहुँच गये. उस मंदिर के पुजारी थे स्वामी नरहरि दास. वहीं पर स्वामी जी का आश्रम भी था. रामबोला ने नरहरि दास को अपनी त्रासदीपूर्ण कहानी सुनाई. स्वामी जी ने रामबोला को अपने आश्रम में रख लिया और उनका नाम बदल कर रामदास  कर दिया. उन्होंने ही उनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया. नरहरि दास उन्हें शिक्षा देने लगे और बचे हुए समय में महर्षि बाल्मीकि कृत रामायण की कथा सुनाया करते. नरहरि दास जो भी उन्हें सुनाते वे उसे कंठस्थ कर लेते. उनके लगन और प्रतिभा को देखकर स्वामी नरहरि दास चकित थे. वे समझ गये कि यह बालक भविष्य में महान व्यक्ति बनेगा. उन्होंने 15-16 वर्ष की अवस्था में रामदास को वाराणसी के अपने मित्र शेष सनातन के पास विद्यार्जन हेतु भेज दिया. शेष सनातन का गुरुकुल वाराणसी के पंचगंगा घाट पर था. वहाँ पहुंचकर उन्होंने शेष सनातन से संस्कृत व्याकरण, चारों वेद, छ: वेदांग, ज्योतिष शास्त्र, आदि की शिक्षा ली. अब वे  प्रकांड विद्वान बन चुके थे.

*रत्नावली से विवाह*

 शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात वे अपने पैतृक गांव राजापुर आ गये. उस समय तक वे पूर्ण युवा यानि 29 वर्ष के हो चुके थे. उनके माता पिता तो थे नहीं, इसलिए उनके निकटवर्ती रिश्तेदारों ने उनका विवाह राजापुर से थोड़ी दूरी पर यमुना नदी के उस पार के एक गाँव के कुलीन ब्राह्मण की पुत्री रत्नावली से करवा दिया. रत्नावली भी उनकी तरह ही विदुषी थी साथ ही अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी थी. अपनी पत्नी के सौंदर्य पर वे इस तरह से मोहित गये कि उसके बिना एक पल भी गुजारना उनके लिए कठिन हो गया. यानि वे रत्नावली का वियोग सह नहीं सकते थे. 

*रत्नावली की धिक्कार*

तुलसी दास जी की अपनी पत्नी के साथ घटने वाली एक बड़ी ही रोचक घटना है, जिस घटना ने उनके जिन्दगी की दिशा ही बदल दी और पत्नी से मिली प्रतारणा ने उन्हें रामचरितमानस जैसे महान ग्रंथ लिखने की प्रेरणा दी.

 कहा जाता है कि एक बार रत्नावली अपने मायके चली गयी. अपनी पत्नी के वियोग में वे तड़पने लगे. दो तीन दिनों के बाद ही वे आधी रात को जब मूसलाधार बारिश हो रही थी, अपनी प्रियतमा से मिलने के लिए निकल पड़े. यमुना नदी पूरे उफान पर थी. उस समय कोई नौका भी नहीं था. और पत्नी से मिलने की उनकी बेताबी बढ़ती जा रही थी. वे नदी में कूद गये और नदी में बह रहे एक मुर्दा को लकड़ी का गट्ठर समझ कर उसके सहारे ही उस पार पहुँच गये. जब वे ससुराल पहुंचे तब किवाड़ बंद था. पीछे की दीवार फांद कर वे घर के अंदर पहुंचे और अपनी पत्नी को उन्होंने जगाया. वे पूरी तरह से भींग चुके थे.  उनकी पत्नी ने आधी रात को इस हाल में उनको देखा तब वह एकदम से उन पर उफन पड़ी और उन्हें धिक्कारती हुई यह दोहा सुनाने लगी -

"लाज न आयी आपको, दौरे आएहु नाथ.

अस्थि चर्ममयदेह यह, तासों ऐसी प्रीत। 

नेह कुछ जो होती राम से, 

काहे भवभीत।।"

अपनी पत्नी की धिक्कार सुनकर तुलसी दास जी शर्म से गड़ गये.

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क्रमशः.....! 

(अगले अंक में पढ़ें तुलसी दास जी का अपने आराध्य प्रभु श्रीराम से नेह की कथा)

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