भक्तिकाल के मुस्लिम कवि
- रामबाबू नीरव
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"तुम राम कहो वो रहीम कहें,
दोनो की गरज अल्लाह से है।
तुम दीन कहो, वो धर्म कहें,
मंशा तो उसी की राह से है."
इस मुक्तक अथवा रूबाई में एकता एवं दो सम्प्रदायों के बीच के प्रेम का कितना सुन्दर भाव छुपा है. इसी आपसी सौहार्द के भाव को मजबूती प्रदान करने के लिए समय समय पर भारत भूमि पर सूफी संतों ने जन्म लिया और हमें संदेश दिया कि राम या रहीम अथवा अल्लाह या ईश्वर में कोई फर्क नहीं है.
दोनों की मंजिल एक ही है, सिर्फ रास्ते अलग अलग हैं.
उन्हीं संतों में से एक थे श्रीकृष्ण के परम भक्त रसखान. कविवर रसखान जिन्होंने जन्म तो लिया था एक मुस्लिम के घर में, लेकिन उनके रोम रोम में बसे थे भगवान श्रीकृष्ण. और उन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी बृंदावन में रहकर श्रीकृष्ण की भक्ति तथा उनकी लीलाओं पर काव्य- सृजन में बिता दी. पिछले दो किश्तों में हम उनके जीवन चरित्र के बारे में जान चुके हैं, अब आइए जानते हैं उनके भक्ति काव्य की विशेषताओं को. उन्होंने ब्रजभाषा में कवित्त, छंद, दोहों तथा सैवये के द्वारा श्रीकृष्ण के रूप माधुर्य, ब्रज की महिमा, विभिन्न लीलाओं, उनके अनुपम रूप, गुण तथा पौरुष के साथ साथ गोपियों तथा राधा के साथ उनके प्रेमाभिनय को अपनी कलम से अनोखा रस प्रदान कर हिन्दी साहित्य के भंडार को लबालब भर दिया है. उनकी सबसे उत्तम अभिव्यक्ति है भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का भावपूर्ण तथा वात्सल्य पूर्ण प्रस्तुति. रसखान की तरह सूरदास ने भी श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को उसी भाव से प्रस्तुत किया है. इन दोनों के समकालीन श्रीराम भक्त गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपने प्रभु श्रीराम की बाल छवि को बड़े ही लोमहर्षक भाव से प्रस्तुत किया है. तो आईए इन तीनों महान विभूतियों के वात्सल्य भाव को देखते हैं, फिर रसखान के शृंगार भाव को भी देखेंगे. रसखान अपने इष्ट श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का चित्रण करते हुए भाव विभोर हो जाते हैं. वे अपने बाल गोपाल के लिए क्या कहते हैं, जरा देखिए - "धरि भरे अति शोभित श्याम जू,
तैसि बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरे अंगना
पग पैजनिया कटि पीरि कछौटी।।
वा छवि को रसखान विलोकत, बारत काम कलानिधि कोटि।
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ से लै गयो माखन रोटी।।"
"कोई गोपी बालकृष्ण के अनुपम सौंदर्य का बखान करती हुई कह रही है - हे सखि ! धूल से बने शरीर वाले श्रीकृष्ण अत्यंत ही शोभायमान हो रहे थे. ऐसी ही शोभा से युक्त उनके सर की चोटी भी थी. वे माखन रोटी खाते हुए ऑंगन में खेल रहे थे. उनके पैरों की पैजनिया बज रही थी. वे पीली लंगोटी पहनै हुए थे. उनके उस समय के अनुपम सौंदर्य को देखकर कामदेव भी उन पर अपनी कोटि कोटि सुन्दरता को न्यौछावर कर रहे थे. हे सखि! वह कौवा कितना भाग्यशाली है, जो, हमारे श्याम सुंदर के हाथ से माखन रोटी छीन कर भाग गया है."
इस पद में वात्सल्य भाव का कितना सुन्दर निरूपण किया गया है, इसका अंदाजा हम सहज ही लगा सकते हैं. साथ ही रसखान के मन में उस कौवा के प्रति इर्ष्या भाव भी उत्पन्न हो जाता है, जो उनके हाथ से माखन रोटी छीनकर उड़ जाता है. वह कौवा कविवर रसखान की दृष्टि में सबसे भाग्यशाली है.
अब आईए, जरा सूरदास के वात्सल्य भाव का भी अवलोकन कर लें -
"खिझत जात, माखन खात!
अरुण लोचन, भौहें टेढ़ी बार बार जंभात !
कबहूँ रुनझुन ही चलत घुघुरुनिया धूरि धूसरत गात।
कबहु झुकि के अलक खैंच नैन जल भरि जात।।
कबहुं तोतर बोल बोलत, कबहूँ बोलत तात।
सूर हरि की निरखि शोभा निमिष तजत न जात।।" भावार्थ ; एकबार श्रीकृष्ण माखन खाते खाते रूठ गये और रूठे भी कुछ ऐसे कि रोते रोते उनके नेत्र लाल हो गये, भौंहे वक्र हो गयी और वे बार बार जंभाई लेने लगे. कभी वे घुटनों के बल चलने लगते, जिससे उनके पैरों में पड़ी पैजनिया से रूनझुन की आवाज निकलने लगती थी. घुटनों के बल चलते हुए उन्होंने सारे शरीर को धूलधुसरित कर लिया. कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और ऑंखों में ऑसू भर लाते कभी तोतली बोली बोलते. सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक पल भी छोड़ने को तैयार न थी. यानि उन्हें अपने बाल गोपाल की इन छोटी छोटी लीलाओं पर रस (आनंद) की अनुभूति होने लगी.
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अब जरा गोस्वामी तुलसी दास जी के श्रीराम के बाल रूप पर भी दृष्टिपात कर लें -
"ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां।
किलकि किलकि उठत धाय गिरत भूमि लटपटाय।।
धाय माता गोद लेत दशरथ की रनियाॅं।
अंचल रज अंग झारि विविध भांति सो दुलारी।।
तन मन धन वारि वारि कहत मृदु बनियां।
विद्रुम से अरुण अधर बोलत मुख मधुर मधुर।।
सुभग नासिका में चारु लटकत लटकनियाॅं ।
तुलसी दास अति आनंद देखे मुखारविंद।
रघुवर छवि के समान रघुवर छवि बनियां।।"
भावार्थ ; तुलसी दास जी कहते हैं कि रामलला जब ठुमक ठुमक कर चलते हैं तब उनके पैरों में बंधी हुई छोटी छोटी पैजनिया अर्थात छोटे छोटे पायल उनके चलने से बार बार बजने लगती है. रामलला किलकारी मार कर जब दौड़ने लगते हैं, तब कभी कभी गिर पड़ते हैं, फिर धरती पर से लटपटा कर उठने की कोशिश करते हैं, तब दशरथ जी की तीनों रानियां अर्थात रामचंद्र जी की तीनों माताएँ उन्हें दौड़कर बारी बारी से अपनी अपनी गोद में ले लेती हैं. गोद में लेकर वे बालक राम के अंग पर लगी हुई रज अर्थात धूल के कणों को अपने ऑंचल से झाड़ देती हैं और फिर उन्हें तरह तरह से दुलार (प्यार) करने लगती हैं और अपने रामलला पर तन मन धन यानि अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार हो जाती है."
तीनों भक्त कवियों के वात्सल्य भाव से ओतप्रोत इन कविताओं का स्वरूप एक जैसा है. इनके मन अपने आराध्य प्रभु के प्रति समर्पण का जो भाव है वह अनोखा है, अनुपम है और स्तुत्य है.
अब आईए रसखान के प्रेम के अनोखे भाव का भी अवलोकन कर लें. सबसे पहले इस सवैये को देखें. निर्गुण और सगुण ज्ञान और प्रेम का ऐसा संगम अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता ;
"सेस गणेश महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड अछेद अभेद सफेद बतावहि।।
नारद से सुक व्यास रहे परिहार तू पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरी छाछ पै नाच नचावै।।"
अर्थात ; जिनकी महिमा शेषनाग, गणेश, महेश, सूर्य और इन्द्र लगातार गाते रहते हैं, वेदों ने जिन्हें अनादि अनंत अखण्ड अछेद अभेद बताया है, उन्हीं भगवान कृष्ण को अहीर की छोकड़ियां कटोरे भर छाछ पर नाच नचाया करती है." ऐसा अद्भुत प्रेम सिर्फ ब्रज और गोकुल की गोपियाँ ही कल सकती हैं.
इस सवैये में रसखान के हृदय का प्रेम पवित्रता की पराकाष्ठा को लांघ जाता है. जिस भगवान श्रीकृष्ण को वेदों ने अनादि, अनंत, अछेद, अभेद बताया है उसी प्रभु को मामूली अहीर की छोकड़ियां अपने प्रेम की बदौलत एक कटोरी छाछ पर ही अपने वश में कर लेती है. अद्भुत है प्रेम की महिमा.
अब जरा गोपियों के श्रीकृष्ण के प्रति निश्छल प्रेम के दूसरे रूप को भी देखिए. गोपियों के श्री मुख से रसखान अपने मन के चंचल भाव को किस तरह व्यक्त करते हैं, देखिए -
"काननि दै अंगुरी रहिहौं, जबहि मुरली धनि मंद बजै है।
मोहिनि तानन सौं अटा चढ़ि गो धुन गैहै।।
पै गैहै टेरि कहौं सिगरे ब्रजलोगनि।
काल्हि कोई कितनो समझ है, माई री वा मुख की।
मुस्कान सम्मानित न जैहै, न जहै, न जहै।।"
अर्थात ; गोपियाँ कहती हैं - जब कृष्ण की बांसुरी की मधुर धुन बजेगी तब हो सकता है उस धुन को सुनकर गायें मग्न हो जाए और अटारी पर चढ़कर गाने लग जाये. परंतु हम अपने कानों में अंगुली डाल लेंगी, ताकि, हमें मुरली की धुन सुनाई न पड़े. लेकिन ब्रजवासी कह रहे हैं कि जब कृष्ण की मुरली बजेगी तो उसकी धुन सुनकर, गोपियों की मुस्कान संभाले न संभलेगी. और उस मुस्कान को पता चल जाएगा कि वे कृष्ण के प्रेम में कितना डूब चुकी हैं.
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क्रमशः........!
(अगले अंक में पढ़ें मुस्लिम भक्त कवि आलम शेख तथा उनकी पत्नी शेख रंगरेजिन की कहानी.)
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