भक्तिकाल के मुस्लिम कवि
(अंतिम किश्त)
- रामबाबू नीरव
रानी पद्मावती के अनुपम सौंदर्य की किंवदंतियां उड़ते उड़ते कुंभलनेर (कुंभलगढ़) के राजा देवपाल के कानों में भी पड़ी. देवपाल भी अलाउद्दीन खिलजी की तरह ही ऐय्याश और दिलफेंक था. रानी पद्मावती को देखे बिना ही वह उसके रूप का दीवाना हो गया और हर हाल में रानी पद्मावती को पाने की योजना पर चिंतन करने लगा. जब अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़गढ़ पर आक्रमण किया और राजा रत्नसिंह को बंदी बनाकर वह शैतान अपने साथ उन्हें दिल्ली ले गया, तब राजा देवपाल प्रसन्नता से झूम उठा. जबकि पूरा चितौड़गढ़ शोक में डूबा हुआ था. देवपाल को इससे सुन्दर मौका कब मिलता.? उसने अपने एक दूत के हाथों रानी पद्मावती को संदेश भिजवाया कि मैं कुंभलनेर का राजा, देवपाल चितौड़गढ़ की छोटी रानी पद्मावती से विवाह करने को इच्छुक हूँ. इसके बदले में मैं सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की कैद से राजा रत्नसिंह को आजाद करवाने का वचन देता हूँ." राजा देवपाल की ऐसी धृष्टता देखकर रानी पद्मावती का सर्वांग क्रोध से कांपने लगा. रानी ने संदेशा भिजवाया -"राजा देवपाल, लगता है सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की तरह आप भी अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं. आपकी धृष्टता का प्रत्युत्तर स्वयं महाराज रत्नसिंह देंगे. वे शीघ्र ही सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की कैद से आज़ाद होकर चितौड़गढ़ पधार रहे हैं." जब तक राजा देवपाल का दूत रानी पद्मावती का संवाद लेकर कुंभलनेर पहुँचा तब तक राजा रत्नसिंह अपने सैनिकों तथा दुस्साहसी योद्धा बादल के साथ चितौड़गढ़ पहुँच चुके थे. दोनों रानियों ने उनका भव्य स्वागत किया. एकांत में रानी पद्मावती ने राजा रत्नसिंह को दुष्ट राजा देवपाल की पूरी कारस्तानी सुना दी. रत्नसिंह देवपाल की करतूत को जानकर आगबबूला हो उठे और उन्होंने अपने सेनापति बादल सिंह को शीघ्र ही कुंभलनेर के किले पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी. हालांकि अपने चाचा वीर योद्धा गोरा सिंह की शहादत ने बादल को अंदर तक तोड़ कर रख दिया था, फिर भी वह रानी पद्मावती के अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए अपने जांबाज सैनिकों के साथ कुंभलगढ़ के लिए प्रस्थान कर गया. इस युद्ध का नेतृत्व स्वयं राजा रत्नसिंह ने किया. वे घायल शेर की भांति राजा देवपाल के सैनिकों पर टूट पड़े. चितौड़गढ़ के सैनिक कुंभलगढ़ के सैनिकों पर भारी पड़ गये. अपने सैनिकों को पराजित होते देख कर राजा देवपाल ने स्वयं आकर मोर्चा संभाल लिया. कुछ ही देर में दोनों राजा एक दूसरे के सामने थे और एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए लड़ रहे थे. देखते ही देखते दोनों खून से लथपथ हो गये. जहाँ राजा देवपाल के प्राण पखेरू युद्ध भूमि में ही उड़ चुके थे, वहीं राजा रत्नसिंह सिंह बुरी तरह से घायल होकर चितौड़गढ़ लौटे. उनकी चिन्ताजनक हालत देखकर दोनों रानियां बुरी तरह से घबरा गयीं और उनकी सेवा में जुट गयी. राज वैद्य भी उपचार में लग गये, परंतु लाख कोशिशों के बावजूद भी राजा रत्नसिंह को बचाया न जा सका. राजा रत्नसिंह के साथ बड़ी रानी नागमती ने सती होने की इच्छा व्यक्त की. राज पुरोहितों ने अनुमति प्रदान कर दी. किले के भीतर ही राजा रत्नसिंह का दाह संस्कार कर दिया गया उनके शव के साथ रानी नागमती सती हो गयी.
अभी राजा रत्नसिंह की चिता बुझी भी न थी कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने पुनः चितौड़गढ़ पर आक्रमण कर दिया. चूंकि चितौड़गढ़ राजा विहीन हो चुका था, इस कारण सैनिकों में वह उत्साह नहीं था, जो पूर्व में हुआ करता था. अलाउद्दीन के सैनिकों ने किले को चारों ओर से घेर लिया. किसी भी समय अलाउद्दीन अपने सैनिकों के साथ किले के अंदर दाखिल हो सकता था. ऐसी परिस्थिति में रानी पद्मावती तथा चितौड़गढ़ के मुख्य सेनापति बादल सिंह के समक्ष एक ही विकल्प बचा था - "*साका."*
उन दिनों राजपूताना (मेवाड़) के राजपूत राजाओं में एक प्रथा प्रचलित थी, जिसका नाम था "साका." इस प्रथा के अन्तर्गत युद्ध के दौरान पराजय की स्थिति में दो काम किये जाते थे -"केसरिया " और "जौहर."
केसरिया का प्रावधान पुरुषों के लिए था और जौहर का महिलाओं के लिए. केसरिया अंतिम युद्ध माना जाता था. इसमें सभी योद्धा सिर्फ मरने अथवा मारने की ही शपथ लेते थे. यानि उन्हें युद्ध भूमि से जिंदा नहीं लौटना होता था. सभी योद्धा अपने अपने सर पर केसरिया पगड़ी बांध लेते थे तथा किले के सभी दरवाजे खोल दिये जाते थे, फिर ये केसरिया दस्ता इतनी तीव्रता से दुश्मन पर टूट पड़ा करते थे कि दुश्मन भौंचक्के रह जाया करते थे. इस अंतिम युद्ध में अधिकांश योद्धा मारे जाते थे और जो बच जाते थे वे भी अपनी तलवार से स्वयं अपना शिरच्छेद कर लिया करते थे. चितौड़ का वीर योद्धा बादल ने अन्य वीरों के साथ केसरिया पगड़ी बांधकर शहादत दे दी.
इसीतरह महल की रानियां तथा अन्य महिलाएँ भी जलती हुई चिता में कूद कर आत्मदाह कर लिया करती थी, जिसे जौहर कहा जाता था. रानी पद्मावती ने भी हजारों क्षत्राणियों के साथ धधकती हुई चिता में कूदकर जौहर कर लिया और सुल्तान अलाउद्दीन हाथ मलता रह गया.
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क्रमशः.......!
(अगले अंक में पढ़ें विद्रोही संत कवि कबीर साहेब की कहानी तथा उनकी कृतियों का यथार्थ.)
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