भक्तिकाल के संत कवि


 (द्वितीय किश्त)  

- रामबाबू नीरव

संत शिरोमणि कबीर दास (उनके अनुयायी उन्हें कबीर साहेब भी कहते हैं) निरक्षर थे, वे न तो लिख सकते थे और न ही पढ़ सकते थे. किंवदंती है कि अपने जीवन काल में उन्होंने सिर्फ एक शब्द लिखना और पढ़ना सिखा था और वह शब्द था -"आल्हा" 

उन्होंने अपने निरक्षर होने के बारे में अपने ग्रंथ "कबीर बीजक" की एक साखी में कहा है -

"मसि कागद छुओ नहीं, 

कलम गहौ नहीं हाथ।"

"अर्थात, मैंने न तो लेखनी (कलम) को कभी हाथ में लिया और न ही कागज और स्याही को हाथ लगाया."

परंतु यह आश्चर्यजनक बात है कि एक निरक्षर व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की उस पराकाष्ठा को छू गया जहाँ पहुँच कर उनकी तेजस्विता ने अज्ञानता रूपी अंधकार में डूबे हुए सम्पूर्ण मानव समाज को आलोकित कर दिया. 

वास्तव में अनपढ़ और निरक्षर होना सत्य प्राप्ति के मार्ग में बाधक नहीं होता. भले ही कबीर निरक्षर और अनपढ़ हैं, मगर वे चैतन्य हैं अर्थात जागे हुए हैं. इसलिए ही वे सम्यक ज्ञान प्राप्त करने में सफल रहे.

वैसे तो कबीर दास की प्रतिभा बाल्यावस्था से ही उभरने लगी थी. फिर भी सम्यक ज्ञान के लिए एक गुरु तो चाहिए ही. मान्यता है कि बिना गुरु के ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती. इसलिए बालक कबीर एक गुरु की तलाश में भटकने लगे. उन दिनों काशी में रामानंदी सम्प्रदाय के रामानंद स्वामी काफी विख्यात थे. गंगा के तट पर उनका आश्रम था. जहाँ वे उच्च वर्ण तथा उच्च कुल के छात्रों को ही धर्म शास्त्रों की शिक्षा दिया करते थे. बालक कबीर रामानंद स्वामी के आश्रम में पहुंचे और उनसे अपना शिष्य बनाने की विनती करने लगे, परंतु यह जानकर कि कबीर जाति के जुलाहा, और विधर्मी है स्वामी जी ने उन्हें शिक्षा देने से इंकार कर दिया. वे सवर्णो को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ण के बालकों को अपना शिष्य नहीं बनाया करते थे. यहीं से बालक कबीर के मन में मनुवादी सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश उभरने लगा. परंतु उन्होंने  मन ही मन स्वामी रामानंद जी को ही अपना गुरु मान लिया था, इसलिए कबीर ने उनसे ही गुरुमंत्र लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया. स्वामी जी प्रत्येक दिन ब्रह्म मुहूर्त में ही गंगा स्नान के लिए जाया करते थे. एकदिन बालक कबीर आधी रात को ही उस घाट की सीढ़ी पर जाकर सो गये जिस घाट पर स्वामी रामानंद जी स्नान करने आया करते थे. जब स्वामी जी ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने हेतु उस घाट पर पहुँचे तब अंधेरे में उनका एक पांव बालक कबीर के शरीर पर पड़ गया और वे चिहुँक उठे साथ ही उनके मुँह से "राम राम" की ध्वनि निकल पड़ी. यही "राम राम" की ध्वनि बालक कबीर के लिए गुरु मंत्र बन गया, यानि उन्हें गुरु का आशीर्वाद प्राप्त हो चुका था. उनके लिए इतना ही काफी था. भले ही स्वामी रामानंद ने अयोध्या पति राजा दशरथ के पुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी के लिए राम की ध्वनि निकाली हो, मगर यह राम कबीर के लिए वह राम था जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के कण कण में समाया हुआ है. (संत कबीर दास जी के इस निराकार राम पर हम बाद में चर्चा करेंगे. यहाँ हम उनकी उस तेजस्विता पर विचार करेंगे जिसमें‌ उनका सम्पूर्ण दर्शन समाया हुआ है.) 

सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो मानना पड़ेगा कि कबीर प्रकृतिस्थ पुरुष हैं. प्रकृतिस्थ का भावार्थ है अपने मूल रूप में रहना. प्रकृतिस्थ पुरुष ही सही अर्थों में प्रेम, सहृदयता तथा समरसता का संदेश दे सकता है. कबीर ऐसे युग पुरुष थे, जिन्होंने समाज को धर्म के सही मर्म को समझाने के साथ साथ निराकार ईश्वर की वास्तविकता से परिचित कराया. उनका प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ, जब हमारे समाज में धर्म की जगह अधर्म का बोलबाला था. जातिप्रथा और अस्पृश्यता की अमानवीय परंपरा में जकड़ा हुआ हमारा समाज कराह रहा था. कूपमंडूक बने समाज को एक ऐसे युगद्रष्टा की जरूरत थी जो समाज को इस जड़ता से मुक्त कर सके. कबीर के रूप में एक ऐसे अनूठे संत, फक्कड़ कवि और, समाज सुधारक  का आगमन होता है जो बाहर और भीतर से निर्मल, निष्कपट और बिना किसी लाग लपेट के स्पष्ट वक्ता है. कबीर मानवीय मूल्यों और परिष्कृत आध्यात्मिक चेतना के पैरोकार हैं. वे ढ़ोंग, पाखंड और आडंबरों पर प्रहार करने से तनिक नहीं घबराते. यदि वे मूर्ति पूजा के विरोधी हैं तो इस्लाम की कट्टरता और दिखावा के भी विरोधी. देखिए किन तीखे शब्दों में वे हिन्दू और इसलाम पर प्रहार करते हैं -

"पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़, 

ताते ये चक्की भली पीस खाये संसार."

"कंकड़ पाथर जोड़ के मस्जिद दियो बनाये, 

ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय."

कबीर कहते हैं कि ऐसा ज्ञान भला किस काम का, जो जनमानस के अन्तर्मन में बैठी कालिमा को दूर न कर सके. कबीर का ज्ञान उनके अपने आत्मबोध से प्रेरित है. उनके आत्मबोध में एकेश्वरवाद की गहराई है. किसी न किसी रूप में संसार का प्रत्येक धर्म इस एकेश्वरवाद की सच्चाई को अवश्य स्वीकारता है. इस दृष्टिकोण से देखें तो कबीर का दर्शन उत्कृष्ट ही नहीं बल्कि सर्वोत्कृष्ट है. उनका वह दर्शन जो समस्त मानवता के कल्याण की वकालत करता है मात्र ढ़ाई अक्षर में छुपा हुआ है -

"पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोई, 

ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय."

कबीर जिस निराकार परब्रह्म की साधना करते हैं, उसमें ढ़ाई अक्षर

का यह प्रेम ही अनिवार्य तत्व है. कबीर को कर्म की शुचिता और श्रम की महता पर अटूट विश्वास है. अंत:करण शक्ति ने उनके हृदय में अपरिग्रही बनने का हौसला दिया. इसलिए वे अपने निराकार परब्रह्म से मांग करते हैं-

"साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाय, 

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु भी भूखा न जाए."

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क्रमशः............. 

(अगले अंक में पढ़ें "कबीर का रहस्यवाद")

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