भक्तिकाल के संत कवि 


(तृतीय किश्त) 

-रामबाबू नीरव

संत शिरोमणि कबीर दास जी के रहस्यवाद पर चर्चा करने से पहले एक खास बात की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना मैं आवश्यक समझता हूँ. पिछले दो किश्तों में उनकी दो तस्वीरें दी गयी हैं. वे दोनों तस्वीरें उनके व्यतित्व से मेल नहीं खाती. उन्हें निरक्षर और अनपढ़ बताया गया है, साथ ही उनका कर्म एक‌ बुनकर अर्थात जुलाहे का था, परंतु पूर्व प्रकाशित तस्करों को देखने से प्रतीत होता है जैसे वे तस्वीरें किसी मठाधीशी अथवा धर्माधिकारी का हो. इससे ज्ञात होता है कि वे तस्वीरें किसी चित्रकार द्वारा अपनी कल्पना से बनाई गयी है. संत कबीर साहेब की तरह की तस्वीरों से भ्रम पैदा होता है. कबीर मन, वचन और कर्म से एक थे, अर्थात वे जैसा बाहर से थे वैसे ही भीतर से भी थे. अतः वे सारी तस्वीरें कलाकार की कल्पना मात्र है. अब आईए उनके रहस्यवाद पर चर्चा करें -

 कबीर साहेब की कृतियों में रहस्यवाद की जो भावना है, वह मानव शरीर में निहित है. कबीर साहेब मानव शरीर को ही देवालय मानते हैं. वे भक्तजनों को अपने अंदर ही ईश्वर को ढूँढने की शिक्षा देते हैं. यही कबीर साहेब के इस रहस्यवाद का प्रतीकार्थ है. कुछ विद्वानों का मानना है कि कबीर के रहस्यवाद पर इस्लामिक सूफीवाद का प्रभाव है. परंतु सुप्रसिद्ध समालोचक डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि कबीर की कृतियों में प्रेम की पीड़ा वैष्णव भावना से प्रेरित है, न कि सूफी भावना से. डा० द्विवेदी के अनुसार "निर्गुण राम के उपासक होने के कारण उन्हें वैष्णव न मानना उस महात्मा के प्रति घोर अन्याय होगा. वास्तव में संत कबीर स्वभाव और विचार से वैष्णव थे." 

कबीर के रहस्यवाद में अध्यात्मिकता, प्रेम की पीड़ा, सहजता, मौलिकता और सजीवता है. उनके रहस्यवाद में अज्ञात शक्ति के प्रति जिज्ञासा है और तन को देवालय मानकर अपने ईश्वर से साक्षात्कार करने का प्रयत्न है. साथ ही  साधनात्मक रहस्य की सहजानुभूति है. 

कबीर के दोहों, पदों तथा वाणी को 'साखी" कहा जाता है. साखी अथवा साक्षी का अर्थ है गवाह. कबीर ने इस संसार में आने के बाद जो कुछ भी देखा और भोगा उसे ईश्वर को साक्षी अथवा गवाह (प्रत्यक्षदर्शी) मानकर उसकी अच्छाई अथवा बुराई की विवेचना करते हुए व्यक्त किया. इसलिए उनकी वाणी को साखी अथवा साक्षी कहा गया. संत कबीर ने अपने हृदय के उद्गार, ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा भक्ति "वाणी (प्रवचन)" के रूप में व्यक्त किये थे, जिन्हें उनके भक्तों (शिष्यों) ने लिपिवद्ध एवं कंठस्थ किया. कबीर की रहस्यवादी साखियां सिक्खों के धर्मग्रंथ "गुरुग्रंथ साहिब", संत गरीब दास के "सतगुरु ग्रंथ साहिब" तथा धरम दास के "कबीर सागर" में देखने को मिलते हैं. (आचार्य रजनीश जो वर्तमान समय के बड़े दार्शनिक हो चुके हैं, भी अपने विचारों को वाणी, अर्थात प्रवचनों के द्वारा व्यक्त किया करते थे, जिन्हें आधुनिक तकनीक द्वारा टेप कर लिया जाता था, बाद में उन प्रवचनों को लिपिवद्ध कर पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता था.) 

आइए अब कबीर साहेब के रहस्यवाद का अवलोकन उनके पदों के द्वारा करते हैं -

*एक*

-------

"झीनी झीनी बीनी चदरिया। 

काहे कै ताना, काहे कै भरनी। 

कौन तार से बीनी चदरिया।। 

इंगला-पिंगला ताना भरनी। 

सुखमन तार से बीनी चदरिया ।। 

आठ कम्बल दस चरखा डोलै। 

पांच तत्व गुन तीनी चदरिया।। 

साईं को सियत मास दस लागै। 

ठोक, ठोक के बीनी चदरिया।। 

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी। 

ओढ़ि कै मैली कीनी चदरिया।। 

दास कबीर जतन करि ओढ़ी। 

ज्यौं की त्यौं धरि दीनी चदरिया।।"

इस पद अथवा साखी में कबीर साहेब ने बड़ी बहुमूल्य बातें कही हैं. जिसके एक एक शब्द में रहस्य छुपा हुआ है. इसलिए इसे कबीर साहेब के रहस्यमय पदों में से सबसे महत्वपूर्ण पद माना जा सकता है. इस पद में कबीर साहेब मानव शरीर को चादर मानकर बनाने वाले बुनकर (सृष्टिकर्ता) की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि उस अन्तर्यामी ने बड़े जतन और होशोहवास में रहकर इस चादर (शरीर) को बुना अर्थात बनाया है. इसलिए‌त तुम इस जीवन को जितना ही जागकर जिओगे उतना ही

आनंदमय और सुखी जीवन का अनुभव प्राप्त करोगे. जीवन की यह चादर (शरीर) बड़ी झीनी (आरपार दिखने वाली) है. और जितना तुम झीनापन देख पाओगे इसमें बुनावट की बारीकी को उतनी ही गहराई से महसूस कर पाओगे. 

इस चादर यानि शरीर को इंगला-पिंगला ताना भरनी सुषमन तार से बुना गया है, यहाँ कबीर साहेब शरीर की उन तीन प्रमुख नाड़ियों की ओर इंगित कर रहे हैं, जिससे यह शरीर रूपी चादर बुनी गयी है. 

हमारे प्राचीन संत महात्माओं, ऋषि-मुनियों ने  मानव शरीर को ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सूक्ष्म रूप बताया है. इसमें 8 चक्र, 5 तत्त्व 3 गुण समाहित हैं. इन चक्रों, तत्त्वों तथा गुणों के संघर्षण से मिलने वाली उर्जा ही शरीर को जीवनी शक्ति प्रदान करती है. यह स्थूल शरीर सूक्ष्म तार से बना है, जिसे सिने अर्थात बुनने में परमात्मा को नौ से दस माह लग जाते हैं. और इस चादर रूपी शरीर को प्रकृति ने बड़े जतन से ध्यान देकर बनाया है. परमात्मा ने जिस शरीर रूपी चादर को बनाने (बुनने) में महीनों लगा दिये, तुम ऐसे मूरख (अज्ञानी) हो कि उसका मोल नहीं समझते. ? 

कबीर साहेब कहते हैं कि प्रकृति द्वारा रचित इस शरीर रूपी चादर को देवलोक में रहनेवाले देवता, मृत्यु भुवन के मनुष्य तथा तपोभूमि के मुनि सबने ओढ़ी और इन तीनों ने इसे मैली कर दी. तात्पर्य यह है कि देवता इसे भोग के कारण मैली कर देता है. (कबीर साहेब का इशारा देवलोक, स्वर्गलोक अथवा इन्द्रलोक के ऐश्वर्य भोग अर्थात अप्सराओं के साथ भोग की ओर है. जिसकी चर्चा प्रायः सभी पुराणों में की गई है.) वहीं मुनि अर्थात तपस्वी त्याग (योग) के कारण और बीच में यह मनुष्य रूपी जो जीव है, वह खिचड़ी जैसा है. यानि यह भोगी भी है और त्यागी (योगी) भी. सुबह में पूजा - पाठ करते हुए त्यागी यानि योगी, दोपहर को रोजमर्रा की जिंदगी में लग जाने के कारण भोगी फिर शाम में संध्या पूजन के कारण योगी और रात्रि में स्त्री संसर्ग में आने के कारण पुनः भोगी बन जाता है. यहाँ कबीर साहेब ने भोगी और त्यागी को एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रूप में प्रतिपादित किया है. यानि त्यागी (योगी) और भोगी दोनों की कामना एक ही है. एक को मिल गया है और दूसरा पाने के लिए व्याकुल हो रहा है. 

अंत में कबीर दास जी अपने बारे में कहते हैं कि मैंने भी इस चादर (शरीर) को ओढ़ी है. परंतु इस चादर को चादर समझकर बड़े जतन से ओढ़ी है. और जिस रूप में मैंने ओढ़ी उसी रूप में यह जिसकी अमानत थी उसे ज्यौ की त्यौं सौंप दिया. यानि शरीर त्यागने के पश्चात इसे परम पिता परमेश्वर को लौटा दिया जिन्होंने यह शरीर मुझे प्रदान किया था. यहाँ शरीर त्यागने का भाव मोक्ष प्राप्ति से है. और मोक्ष प्राप्ति का अर्थ है बार बार इस योनि से उस योनि में भटकते रहने (पुनर्जन्म) से मुक्त हो जाने का भाव. भगवान बुद्ध ने भी मोक्ष प्राप्ति की कामना की थी. इस परिपेक्ष में यदि हम देखें, तो कहीं न कहीं संत कबीरा साहेब का रहस्यवाद भगवान बुद्ध के आत्मज्ञान के भाव से जुड़ा हुआ है.

*दो*

----

"दुलहिनि गावहु मंगला- चार। 

हम घरि आये हो राजा राम भरतार।। 

तनरत करि में मनरत करिये पंचतत्त बराती। 

रामदेव मोरे पाहुन आये मैं जीवन में माती।। 

सरीर सरोवर वेदी करिहबमा वेव प्रचार। 

रामदेव संग भौवरी हूँ धनी धनी भाग हमार।। 

सुरतेतीसू कौतिन आए मुनिवर साहस अत्यासी । 

कहत कबीर हम व्याहि चले हैं पुरिष एक अविनासी."

तुलसी दास जी का कथन है कि हे सुहागिन नारियों, 

अब तुमलोग विवाह के अवसर पर गाये जाने वाले मंगलमय गीत को गाओ क्योंकि आज मेरे घर में मेरे पति रूपी राजा राम अर्थात परमात्मा अतिथि बनकर आये हैं. मेरा तन और मन दोनों ही उनकी भक्ति में लीन हो गये हैं. पाॅंचों तत्व-पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु राजा राम के साथ बराती बनकर आये हैं. और मैं अपने यौवन अर्थात उनकी भक्ति में लीन हो गयी हूँ. मैं अपने शरीर रूपी कुंड को वेदी बनाकर इस विवाह की परिक्रमाएँ पूरी करूँगी.  मेरा जीवन धन्य है, अर्थात हमारे मिलन को देखने के लिए तैंतीस करोड़ देवी देवताओं और अठासी हजार मुनिजन यहाँ पधारें हैं. कबीर दास जी कहते हें  कि इस प्रकार मेरी आत्मा उस एक अविनाशी पुरुष अर्थात आत्मा के साथ विवाह करने जा‌ रही है. 

*तीन*

"काहे री नलनी तू कुंभलानी, 

तेरे ही नाली सरोवेर पानी। 

जल में उत्पत्ति, जल में वास, 

जल में नलनी तोर निवास। 

ना तली तपती ना ऊपरी आगि, 

तोर हेतु कहु काटने लागी।। 

कहै कबीर जे उदिक समान। 

ते नहीं हुए हमारे जान ।।"

भावार्थ : हे जीवात्मा! तू इतना दुखी क्यों है? तेरा मन मुर्झाया हुआ सा क्यों लग रहा है. तू प्रत्येक पल परब्रह्म के सम्पर्क में रहता है. तेरी उत्पत्ति परमात्मा से ही हुई है. और तू सदा परमात्मा के सम्पर्क में ही रहता है. कोई भी सांसारिक दु:ख (ताप) तूझे कष्ट नहीं पहुॅचा सकता. लगता है तू उस परब्रह्म से भिन्न किसी और के प्रति  (सांसारिक विषयों) आसक्त है. इसके अतिरिक्त तेरे दुखों का और कारण क्या हो सकता है.? कबीर साहेब का कहना है कमल दंड में स्थित‌ जल‌ और सरोवर का जल जिस प्रकार से एक जैसा है, उसी तरह से आत्मा और परमात्मा भी अभिन्न है. इस रहस्य को जो ज्ञानी लोग जान चुके‌ हैं, वे स्वयं को अजर अमर मानते हुए मृत्यु के भय से सदा मुक्त रहते हैं. 

अर्थ : अरी कमलिनी तू क्यों मुर्झाई हुई है. तेरे नाल (डंठल) में तो तालाब का जल विद्यमान है. जल मिलते रहने के कारण भी तेरे कुम्हलाने का कारण क्या हो सकता है. हे कमलिनी ! तेरी उत्पत्ति भी तो जल में ही हुई है. और तू सदा से जल में ही निवास करती रही है. कभी इससे अलग नहीं हुई. निरंतर जल मेंं रहते हुए भी  तेरे मुर्झाने का कारण क्या है? न तो तेरा तला तप रहा है, न ऊपर से कोई आग तुम्हें तपा रही है. यह तो बता तेरा किसी से प्रेम तो नहीं हो गया है.? जिसके वियोग के दु;ख से तू मुरझा गयी है. कबीर कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष अपने भीतर के और बाहर के जल की एकता का ज्ञान रखते हैं, वे, हमारे मतानुसार कभी मृत्यु के भय से पीड़ित नहीं होते. अर्थात आत्मा और परमात्मा की एकता का ज्ञान रखने वाला कभी मृत्यु से भयभीत नहीं होता. 

कबीर साहेब के इस तरह के रहस्यवादी भाव के अनेकों पद और दोहें हैं जिसमें आत्मा और परमात्मा के एकाकार होने का भाव छुपा है. यानि कबीर के रहस्यवाद में आत्मा को ही परमात्मा का स्वरूप माना गया है.

            ∆∆∆∆∆

क्रमशः.........! 

(अगले अंक में पढ़ें माया, मोह, ढ़ोंग और पाखंड पर कबीर दास का तीखा प्रहार "कबीरा खड़ा बाजार में".)

0 comments:

Post a Comment

 
Top